NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
राजनीति
विशेष : 21वीं सदी में हिंदी के प्रति बदलता हुआ नज़रिया
हिंदी की प्रसार और संख्या की दृष्टि से बढ़त ने भूमंडलीकरण के इस युग में सभी को एक बार फिर से इसके प्रति नए दृष्टिकोण से सोचने पर मजबूर कर दिया है, यह बदलाव भी कम अचरज वाली बात नहीं है।
डॉ. डी के सिंह
13 Sep 2019
Hindi
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार 

(हिंदी दिवस 14 सितंबर के उपलक्ष्य में विशेष आलेख)

जैसा कि कहा जाता है और कई लोगों ने लिखा भी है  कि उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र ( कासगंज के पास पटियाली)  में ही जन्म लेने वाले सुप्रसिद्ध कवि, शायर,  गीतकार और संगीतकार अमीर खुसरो ने 13 वीं शताब्दी में ही 22 बोलियों का अध्ययन करने के बाद यह कहा था कि भविष्य में  भारत की भाषा हिंदी ही होगी। अमीर खुसरो ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया, वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा। उनका लिखा हुआ सूफियाना कलाम 'छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नयना लड़ाई के’ और 'बहुत कठिन है डगर पनघट की' उनके  हिंदी पर उनके बलिहारी होने की निशानी भर है। इसलिए आज हिंदी दिवस के अवसर पर  

यदि किसी  भी शख्सियत को  याद किया जाए तो सबसे पहला हक़ तो अमीर खुसरो का ही बनता है।

भारत में संविधान निर्मात्री सभा में होने वाली बहस और संविधान के लागू होते समय भी ऐसा लगा  था की हिंदी को लेकर अमीर खुसरो द्वारा  की गई भविष्यवाणी  सही होने जा रही है, परंतु पूरी तरह से ऐसा  नहीं हो पाया।

भारत की संविधान सभा में यह प्रश्न कि भारत की  राजभाषा क्या होगी? सर्वाधिक विवादित प्रश्नों में से एक माना जाता है। संविधान सभा की आरंभिक बैठक 14 दिसंबर 1946 को ही  संविधान सभा की कार्यवाही का अभिलेख (रिकॉर्ड) किस भाषा में रखा जाएगा को लेकर विवाद प्रारम्भ हो गया था।

संविधान सभा में  सेठ गोविंद दास ने  हिंदी की जोरदार पैरोकारी की थी परंतु उनका विरोध मद्रास प्रान्त से आने वाले के. संथानम ने भी उतने ही जोरदार तरीके से किया था, फिर संविधान सभा में के. एम. मुंशी  ने बीच का रास्ता निकालने पर जोर दिया था।  
हिंदी के पक्ष में लगातार बोलने वालों मे बरेली से संविधान सभा के क्रांतिकारी सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता है।

संविधान सभा में भाषा संबंधी विवाद लगातार किसी न किसी रूप में चलता रहा और लगातार उसे टाले जाने की कोशिश भी होती रही। अंत मे 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी (देवनागरी लिपि) ही भारत की राजभाषा होगी। हिंदी के पूरे देश में प्रचार-प्रसार और अनुप्रयोग के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर  1953 से ही 14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा में भी भारी गुटबाजी और अंतर्विरोध को देखते हुए ही हिंदी और अंग्रेजी दोनों को ही एक साथ राजकीय  कार्यों के लिए जारी रखने का निर्णय भी लेना पड़ा था।

वर्तमान में लागू संविधान के अनुच्छेद 343 के द्वारा संघ की राजभाषा का प्रावधान किया गया है। संविधान के लागू होने से पहले संघ की भाषा अंग्रेजी थी। अंग्रेजी से हिंदी में एकदम काम करने में कठिनाई को देखते हुए 15 वर्ष का समय निर्धारित किया गया था और यह कहा गया था कि इस बीच में अंग्रेजी भाषा पहले की तरह चलती रहेगी साथ ही यह भी कहा गया था कि संसद इस 15 वर्ष अवधि को बढ़ा भी सकती है। इसी 15 वर्ष से आगे बढ़ाने के प्रावधान का सहारा लेते हुए राजभाषा अधिनियम, 1963 बनाकर तत्कालीन सरकार ने अंग्रेजी को अनिश्चितकाल तक के लिए संघ की भाषा के रूप में मान्यता दे दी।

किस अधिनियम द्वारा यह सुनिश्चित हो गया कि 26 जनवरी 1965 के बाद भी हिंदी भाषा के साथ साथ अंग्रेजी भाषा भी राजकीय कार्यों में प्रयुक्त होती रहेगी। भारत के राष्ट्रपति को भी यह अधिकार दिया गया वह आदेश द्वारा हिंदी के अधिकाधिक प्रयोग के लिए निर्देश जारी कर सकते हैं। भारत के राष्ट्रपति महोदय ने 21 अप्रैल 1960 को ऐसा आदेश जारी भी किया और उसमें केंद्रीय कर्मचारियों के लिए हिंदी में प्रशिक्षण अनिवार्य किया गया। इस प्रकार यदि देखा जाए तो संवैधानिक रूप से राजभाषा का दर्जा प्राप्त होने के बावजूद भी हिंदी को भारत सरकार की ढुलमुल नीतियों के कारण ही वह दर्जा हासिल नहीं हो सका जो उसे प्राप्त होना चाहिए था और इन्हीं कारणों से अंग्रेजी सिरमौर बनी रही।

इन्हीं कारणों से  संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी हिंदी का स्थान शासकीय कार्यों में दोयम दर्जे का ही बना रहा, और केवल दिखावे के लिए हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और कुछ प्रशिक्षण कार्यक्रमों, निबंध प्रतियोगिताएं,  वाद-विवाद प्रतियोगता, कविता पाठ, नाटक, और प्रदर्शनियों, भाषण कार्यक्रम का आयोजन साल दर साल रस्म अदायगी के रूप में चलता आ रहा है।

अंग्रेजी और हिंदी का यह विवाद आगे चलकर देश की सबसे बड़ी अदालत तक भी पहुंचा। माननीय उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ बनाम मुरसोली मारन (1977) में भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 और 344 पर गहराई से विचार किया था।माननीय न्यायालय ने संवैधानिक, विधिक और गृह मंत्रालय द्वारा जारी निर्देशों पर विचार करते हुए राजकीय कार्यों में हिंदी और अंग्रेजी के प्रयोग में एक सामंजस्य बैठाने की कोशिश ही की। जब भी मैं हिंदी और अंग्रेजी के भारत में प्रयोग के विषय पर सोचता हूं तो मुझे मुझे ऐसा लगता है कि सत्ता में बैठे लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय के लिए हिंदी और अंग्रेजी में सामंजस्य बैठाने  के सिवाय कोई विकल्प भी तो नहीं छोड़ा था।

दूसरी तरफ यदि हम सरकारी प्रयासों को छोड़ कर हिंदी को उसकी लोकप्रियता और जनमानस में प्रसार की दृष्टि से देखें तो हिंदी भारत में सर्वाधिक बोले जाने वाली तथा दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली चौथी भाषा के रूप में वर्तमान में प्रतिष्ठित है। जनगणना के आंकड़ों पर यदि ध्यान दिया जाए तो यह प्रकाश में आता है कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच हिन्दी बोलने वाले की संख्या में लगभग 10 करोड़ लोगों का इजाफा हो गया है। यह हिन्‍दी की ताकत ही है कि लगभग सभी विदेशी कंपनियां हिन्‍दी को बढ़ावा दे रही हैं।

यहां तक कि दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन गूगल में पहले जहां अंग्रेजी कॉनटेंट को बढ़ावा दिया जाता था वहीं गूगल अब हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषा वाले कॉन्‍टेंट को प्रमुखता दे रहा है। समस्त ऑनलाइन व्यापार करने वाली कंपनियां भी अपने समस्त व्यापारिक कार्य अब हिंदी में भी संपादित कर रही हैं। यह उम्मीद की जा रही है कि 2021 तक भारत में हिंदी में इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या अंग्रेजी में इंटरनेट का उपयोग करने वालों से अधिक हो जाएगी।

बॉलीवुड फिल्मों और गानों ने हिंदी के प्रचार प्रसार में बड़ा योगदान किया है। आज संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग लगभग सभी राज्यों में किंचित आपवादों को छोड़कर हो रहा है।

लेकिन हिंदी की एक बानगी और है कि हम सभी बोलते हिंदी हैं परंतु देवनागरी में नहीं लिखकर आज हम और हमारे बच्चे रोमन में लिखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। हिंदी भाषी क्षेत्र में रोमन में लिखने की प्रवृत्ति का विकास सोशल मीडिया के द्वारा  द्वारा तेजी से बढ़ा है। सोशल मीडिया पर रोमन में लिखने की प्रवृत्ति निश्चित रूप से हम सभी के शब्द ज्ञान, लिपि और बोलचाल की भाषा को भी प्रभावित कर रही है।

विगत के लगभग 10 वर्षों  में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बयार गांव- गांव तक पहुंची है जो हैरान करने वाली है, अब हम एक ऐसे भारत का निर्माण करने में लगे हैं जहां अंग्रेजी का सम्मोहन जबरदस्त है या यूं कहें  की अंग्रेजी एक नए फ्लेवर और कलेवर में फिर से हिंदी भाषी भारतीय परिदृश्य में उभर कर आयी है जो गांव-गांव तक फैल गई है। पुनः एक बार फिर से आज अंग्रेजी रोजगार और कार्य की भाषा बनती जा रही है वहीं हिंदी  भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी जीवन का अपरिहार्य तत्व होते हुए भी वह केवल चैटिंग और बोलचाल की भाषा में तब्दील होती जा रही है।

शुद्ध हिंदी लिखने, बोलने और समझने वालों की संख्या में साल दर साल लगातार गिरावट होती जा रही है जो कि दुखद है। हिंदी दिवस पर हिंदी को लेकर सिर्फ कुछ औपचारिकता का निर्वहन करने से काम नहीं चलने वाला है क्योंकि हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए हिंदी एक भाषा नहीं एक संस्कार है। लेकिन सब कुछ के बाद भी हम यह कह सकते हैं की हिंदी प्रसार की दृष्टि से बढ़ रही है और अपने दम पर बढ़ रही है, अपनी सहजता, सरलता और स्वयं के मजबूती के कारण से बढ़ रही है। हिंदी की प्रसार और संख्या की दृष्टि से बढ़त ने भूमंडलीकरण के इस युग में  सभी को एक बार फिर से इसके प्रति नए दृष्टिकोण से सोचने पर मजबूर कर दिया है, यह बदलाव भी कम अचरज वाली बात नहीं है।
(लेखक संवैधानिक मामलों की जानकार है तथा बरेली कॉलेज बरेली के विधि विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

hindi
Changing attitude towards hindi
Amir Khusro
languages in Indian constitution
Seth Govind Das

Related Stories

अपनी भाषा में शिक्षा और नौकरी : देश को अब आगे और अनीथा का बलिदान नहीं चाहिए

नज़रिया: मातृभाषा की पगडंडी से नहीं अंग्रेज़ी के एक्सप्रेस-वे से गुज़रता है तरक़्क़ी का क़ाफ़िला

जयंती विशेष : हमारी सच्चाइयों से हमें रूबरू कराते प्रेमचंद

तिरछी नज़र : ज़रूरत है एक नई राजभाषा की!

हिंदी अब धमकी की भाषा बनती जा रही है : मंगलेश डबराल


बाकी खबरें

  • hafte ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    मोदी सरकार के 8 साल: सत्ता के अच्छे दिन, लोगोें के बुरे दिन!
    29 May 2022
    देश के सत्ताधारी अपने शासन के आठ सालो को 'गौरवशाली 8 साल' बताकर उत्सव कर रहे हैं. पर आम लोग हर मोर्चे पर बेहाल हैं. हर हलके में तबाही का आलम है. #HafteKiBaat के नये एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार…
  • Kejriwal
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: MCD के बाद क्या ख़त्म हो सकती है दिल्ली विधानसभा?
    29 May 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस बार भी सप्ताह की महत्वपूर्ण ख़बरों को लेकर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन…
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष:  …गोडसे जी का नंबर कब आएगा!
    29 May 2022
    गोडसे जी के साथ न्याय नहीं हुआ। हम पूछते हैं, अब भी नहीं तो कब। गोडसे जी के अच्छे दिन कब आएंगे! गोडसे जी का नंबर कब आएगा!
  • Raja Ram Mohan Roy
    न्यूज़क्लिक टीम
    क्या राजा राममोहन राय की सीख आज के ध्रुवीकरण की काट है ?
    29 May 2022
    इस साल राजा राममोहन रॉय की 250वी वर्षगांठ है। राजा राम मोहन राय ने ही देश में अंतर धर्म सौहार्द और शान्ति की नींव रखी थी जिसे आज बर्बाद किया जा रहा है। क्या अब वक्त आ गया है उनकी दी हुई सीख को अमल…
  • अरविंद दास
    ओटीटी से जगी थी आशा, लेकिन यह छोटे फिल्मकारों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा: गिरीश कसारावल्ली
    29 May 2022
    प्रख्यात निर्देशक का कहना है कि फिल्मी अवसंरचना, जिसमें प्राथमिक तौर पर थिएटर और वितरण तंत्र शामिल है, वह मुख्यधारा से हटकर बनने वाली समानांतर फिल्मों या गैर फिल्मों की जरूरतों के लिए मुफ़ीद नहीं है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License