NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
रूस द्वारा डोनबास के दो गणराज्यों को मान्यता देने के मसले पर भारत की दुविधा
डोनबास के संदर्भ में, भारत की वास्तविक दुविधा स्वयं के दूर-दराज के प्रदेशों की जमीनी हकीकत को देखते हुए उनके आत्मनिर्णय को लेकर है। 
एम. के. भद्रकुमार
24 Feb 2022
putin

रूस द्वारा डोनबास के दो गणराज्यों-डोनेट्स्क और लुगांस्क-को स्वतंत्र देशों के रूप में मान्यता देने के साथ ही भारत मानवीय हस्तक्षेप पर पुनर्विचार को लेकर दुविधा में है। फिर भी इतना तो तय है कि भारत रूसी पदचिह्नों का अनुसरण नहीं करने जा रहा है। मामले की जड़ यह है कि नरसंहार, मानवाधिकारों और आत्मनिर्णय से जुड़े मुद्दों पर भारत का रुख निरंतर ही अपरिवर्तित रहा है। 

संयुक्त राज्य अमेरिका ने जब 2008 में कोसोवो को सार्बिया से अलग किया तो भारत ने पूर्व यूगोस्लाविया के खंडित क्षेत्रों में घूमते हुए पश्चिमी कारवां में सहयात्री होने से इनकार कर दिया था। यहां तक कि भारत आज भी कोसोवो को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने से इनकार करता है। 

स्पष्ट रूप से, इस क्षेत्र में भारतीय गणना में भू-राजनीति का कोई तत्व नहीं है। भारत में अमेरिकी विश्लेषक और उनके खेमे के अनुयायी पूरी तरह बकवास कर रहे हैं, जब वे यह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत डोनबास के संबंध में हॉब्सन की पसंद का सामना कर रहा है, जिसमें रूस और पश्चिम में बीच का पक्ष लेने का आह्वान किया गया था। 

इनको फैलाने वालों को इस बात का एहसास नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डोनबास की मान्यता के लिए भारतीय समर्थन का प्रचार करना रूस के नजरिए में काफी अलग है। रूस पहले ही स्वीकार कर रहा है कि उसने अपने हित में और यूक्रेन के साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से अपने विशेष संबंधों के कारण उन दोनों प्रांतों को मान्यता देने का काम किया है। 

राष्ट्रपति पुतिन ने कल रात राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में इस पहलू को कुछ विस्तार से छुआ है। पुतिन ने कहा:

"मैं फिर से इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि यूक्रेन हमारे लिए सिर्फ एक पड़ोसी देश नहीं है। यह हमारे अपने इतिहास, संस्कृति और आध्यात्मिक स्थान का एक अविभाज्य-अभिन्न अंग है। ये हमारे साथी हैं, जो हमारे सबसे प्यारे हैं-न केवल सहकर्मी, मित्र या वे लोग हैं, जिन्होंने साथ-साथ सेवा की है बल्कि ये हमारे रिश्तेदार हैं, खून से रिश्ते से और पारिवारिक संबंधों से बंधे लोग हैं।" 

“अनंतकाल काल से, ऐतिहासिक रूसी भूमि के दक्षिण-पश्चिम में रहने वाले लोगों ने खुद को रूसी और रूढ़िवादी ईसाई कहा। यह 17वीं सदी के पहले की बात है, जब इस क्षेत्र का एक हिस्सा बाद में रूसी राज्य में फिर से शामिल हो गया।"

"हमें ऐसा प्रतीत होता है कि, सामान्यतया, हम सभी इन तथ्यों को जानते हैं, कि यह सामान्य ज्ञान की बात है। फिर भी, इस मुद्दे को समझने के लिए कि आज जो कुछ हो रहा है, उनके पीछे रूस की मंशा क्या है और हम ये सब करके क्या हासिल करना चाहते हैं, यहां इतिहास के बारे में कम से कम कुछ शब्द कहना आवश्यक है।”

"इसलिए, मैं अपनी बात की शुरुआत इस तथ्य के उल्लेख से करूंगा कि आधुनिक यूक्रेन पूरी तरह से रूस द्वारा बनाया गया था। इससे अधिक सटीक रूप से कहें तो यूक्रेन को बोल्शेविक, कम्युनिस्ट रूस द्वारा बनाया गया था। यह प्रक्रिया व्यावहारिक रूप से 1917 की क्रांति के ठीक बाद शुरू हुई थी। लेकिन लेनिन और उनके सहयोगियों ने इस काम को इस तरह से किया, जो रूस के प्रति बेहद कठोर था-ऐतिहासिक रूसी भूमि को उससे अलग कर यूक्रेंन को दे दिया गया। वहां रहने वाले लाखों लोगों से यह पूछे बगैर कि वे क्या सोचते हैं...।" 

पुतिन कहते गए: "फिर, महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध से पहले और इसके बाद में, स्टालिन ने उसे यूएसएसआर में शामिल कर लिया और यूक्रेन को कुछ भूमि दी जो पहले पोलैंड, रोमानिया और हंगरी की हुआ करती थी। इस प्रक्रिया में, उन्होंने पोलैंड को मुआवजे के रूप में पारंपरिक रूप से जर्मन भूमि का हिस्सा दे दिया। बाद में, ख्रुश्चेव ने 1954 में किसी कारण से क्रीमिया को रूस से छीन कर यूक्रेन को सौप दिया। वास्तव में, इस तरीके से आधुनिक यूक्रेन का भूभाग बनाया गया था।" 

भारत रूस की बाध्यताओं को समझता है, और जबकि भारत उनके साथ एक मित्र के रूप में सहानुभूति रख सकता है, वह उसके फैसले पर कोई एक्शन नहीं ले और न ही लेगा। वास्तव में, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि डोनबास रूस के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी का कोई लिटमस टेस्ट नहीं है। 

इसलिए डोनबास में रूस के इन्वॉल्वमेंट को कोसोवो में अमेरिकी कार्रवाई से पृथक करना, देखना उपयोगी है। अमेरिका न तो भौगोलिक रूप से बाल्कन देश है और न ही सांस्कृतिक रूप से स्लाविक राष्ट्र। फिर भी, इसने पूर्व यूगोस्लाविया के विघटन की नाटो की कार्रवाई को बढ़ावा दिया (बिना संयुक्त राष्ट्र के जनादेश के) और बाद में विशुद्ध रूप से भू-राजनीतिक बाध्यताओं के चलते कोसोवो को एक स्वतंत्र देश बनाया। 

इसके विपरीत, भारत का रुख निरंतर ठोस सिद्धांतों पर आधारित है और वह भू-राजनीति के उतार-चढ़ाव से पूरी तरह अभेद्य है। अगर इसकी तुलना ही करें, हालांकि यह विडंबना पूर्ण है, तो उसकी चीन से अधिक समानता बैठती है! 

इस प्रकार, न तो चीन और न ही भारत ने अबकाज़िया और दक्षिण ओसेशिया या कोसोवो को मान्यता दी है जो क्रमशः रूस और अमेरिका के साथ गठबंधन कर रहे हैं। 

भारत का सैद्धांतिक रुख अपने आधुनिक इतिहास में निहित है। यह तब से ही है, जब जवाहरलाल नेहरू की पीढ़ी ने ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की राष्ट्रीय संप्रभुता को एक बड़ी कीमत पर छीन लिया था। तभी से स्वतंत्र भारत की विदेश नीति का एक मूल सिद्धांत संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना और अन्य राज्यों के आंतरिक मामलों में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना है। निश्चित रूप से भारत ने अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर जोर दिया है। 

अंतरराष्ट्रीय कानून का अस्वीकार या परित्याग भारत के लिए कभी भी एक पूर्ण 'रेड लाइन' नहीं था, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय निंदा के बावजूद, 1961 में पुर्तगाली औपनिवेशिक शासन से गोवा के अधिग्रहण से जाहिर है। लेकिन भारत ने बड़े पैमाने पर अपनी कूटनीति को अंतरराष्ट्रीय कानून के मौजूदा ढांचे के भीतर ही रखा है। 

बांग्लादेश का निर्माण एक अनूठी स्थिति थी। आज पाकिस्तान भी कुबूल करता है कि उस वक्त का उसका फैसला गलत था। जहां तक इस मामले से भारत का संबंध है, तो तात्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में उसकी दखल देने के चार परस्पर दावे विश्वसनीय और वैध बने हुए हैं: मानवाधिकार का हनन, व्यापक पैमाने पर किए जा रहे नरसंहार, वहां के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार और भारत की अपनी संप्रभुता की रक्षा का तर्क। 

निश्चित रूप से, आज डोनबास पर रूस की बाध्यताएं 50 साल पहले भारत के बरअक्स बांग्लादेश के समान ही हैं। डोनबास क्षेत्र में भी नरसंहार हुआ था, जब नव-नाजी चरम राष्ट्रवादियों, पश्चिमी खुफिया से उत्साहित होकर, तबाही के दौरान जातीय रूसी आबादी के खिलाफ उग्र हो गए थे, जिसके बाद 2014 में कीव में विद्रोह और सत्ता परिवर्तन हुआ था। 

18 मिलियन से अधिक जातीय रूसी आबादी ने शासन परिवर्तन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और अपनी नियति खुद गढ़ने का फैसला किया था। तब बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया क्योंकि नए शासन ने "यूक्रेनीकरण" कार्यक्रम शुरू करते हुए रूसी भाषा और रूसी संस्कृति की सभी अभिव्यक्तियों पर नकेल कसनी शुरू कर दी थी। इसके साथ ही, रूसी रूढ़िवादी चर्च के साथ यूक्रेनी लोगों को ऐतिहासिक रूप से जोड़ने वाले गर्भनाल को काट दिया था। 

दरअसल, दिसम्बर 2018 में, कीव में रूसी विरोधी शासन, अमेरिकियों को खुश करने के लिए यूक्रेन क्षेत्र से रूस पहचान मिटाने की हद तक चला गया। इसके लिए उसने यूक्रेन क्षेत्र के लिए एकमात्र विहित निकाय के रूप में एक नए रूढ़िवादी चर्च का निर्माण किया। 

बहरहाल, रूस यह मांग नहीं करने जा रहा है कि भारत भी अगले सप्ताहांत तक डोनबास गणराज्यों को अपनी मान्यता दे दे। नंगी आंखों के लिए हमेशा यह स्पष्ट नहीं होता है कि भारत और रूस के बीच रणनीतिक साझेदारी निर्बाध बनी हुई है और वह दोनों पक्षों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए गुंजाईश देती है। 

बेशक, भारत-रूस के संबंध में कुछ मार्मिकता भी है। हालांकि, लियोनिद ब्रेज़नेव के सोवियत नेतृत्व ने शुरू में पूर्वी पाकिस्तान संकट के समय 1971 में राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के उल्लंघन के मुद्दों पर अपना दुख जताया था पर जब संकट का समय आया, तो उसने तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए ताकत के एक स्तंभ के रूप में भी काम किया था-यहां तक कि उन्हें डराने के लिए बंगाल की खाड़ी में आए अमेरिकी विमानवाहक पोत यूएसएस एंटरप्राइज का भी डटकर सामना किया था। 

आज के डोनबास के संबंध में, भारत की वास्तविक दुविधा अपने स्वयं के दूर-दराज के क्षेत्रों में जमीनी हकीकत को देखते हुए आत्मनिर्णय को लेकर है। भारत आत्मनिर्णय के कानूनी दृष्टिकोण पर जोर देना जारी रखेगा जो उसकी अपनी आबादी पर अवधि पर लागू नहीं होता है। मुद्दा यह है कि कई उत्तर-औपनिवेशिक राज्यों की तरह, भारत जातीय या धार्मिक अलगाववादी आंदोलनों से डरता है। 

दिलचस्प बात यह है कि आत्मनिर्णय का मामला चीन के लिए भी विशेष रूप से अप्रिय है। इस तरह भारत सुरक्षित विकेट पर है जबकि अमेरिकी रणनीतियों में आत्मनिर्णय का काफी वजन है-इथियोपिया में टाइग्रे विद्रोह इसका ताजा उदाहरण है-अलगाव अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत लगभग सभी परिस्थितियों में निषिद्ध है, और अधिकांश राष्ट्रीय संविधानों द्वारा भी इसे खारिज किया गया है। 

हालाँकि, भारत को जिस बात से सावधान रहने की आवश्यकता है, वह यह है कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से, आत्मनिर्णय ने कुछ सीमित आधार प्राप्त किया है, यह एक तरह से प्रथम विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों की याद दिलाता है। पश्चिम इसे बढ़ावा देता है, क्योंकि यह उनके अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए नव-औपनिवेशिक रणनीतियाँ हैं। कोई भी देख सकता है कि सरकार संयुक्त राष्ट्र के निगरानीकर्ताओं को तेजी से दूर कर रही है।  

आखिरकार, अमेरिका के नेतृत्व में कई शक्तिशाली पश्चिमी सरकारों ने भारत जैसे बहुलतावादी समाज वाले देश यूगोस्लाविया को छिन्न-भिन्न कर दिया और इसके बाद बने सर्बिया से 2008 में कोसोवो को भी अलग कर दिया। जब सर्बिया ने संयुक्त राष्ट्र में विरोध किया, तो ब्रिटेन ने पलटवार किया कि कोसोवो की स्वतंत्रता को लगभग सभी यूरोपीय संघ के देशों ने पहले ही मान्यता दे दी थी! इसका स्पष्ट और सख्त संदेश था: 'हम, पश्चिमी देश, नियम लिखेंगे’। पश्चिमी “नियम पर आधारित व्यवस्था" में आपका स्वागत है! 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

India and the Donbass Republics

India
Russia
ukraine
Territory of Ukraine
united nation
United States

Related Stories

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

बाइडेन ने यूक्रेन पर अपने नैरेटिव में किया बदलाव

डेनमार्क: प्रगतिशील ताकतों का आगामी यूरोपीय संघ के सैन्य गठबंधन से बाहर बने रहने पर जनमत संग्रह में ‘न’ के पक्ष में वोट का आह्वान

रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने के समझौते पर पहुंचा यूरोपीय संघ

यूक्रेन: यूरोप द्वारा रूस पर प्रतिबंध लगाना इसलिए आसान नहीं है! 

पश्चिम बैन हटाए तो रूस वैश्विक खाद्य संकट कम करने में मदद करेगा: पुतिन

और फिर अचानक कोई साम्राज्य नहीं बचा था

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन में हो रहा क्रांतिकारी बदलाव

90 दिनों के युद्ध के बाद का क्या हैं यूक्रेन के हालात

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा


बाकी खबरें

  • UttarPradesh
    लाल बहादुर सिंह
    यूपी चुनाव: नहीं चल पा रहा ध्रुवीकरण का कार्ड
    04 Feb 2022
    तमाम कोशिशों के बाद भी यूपी में बीजेपी का हिंदू-मुस्लिम का कार्ड नहीं चल पा रहा है। पश्चिम UP से आने वाली ग्राउंड रिपोर्ट्स बता रही हैं कि ध्रुवीकरण तो नहीं ही हुआ, उल्टे जाट समुदाय में, किसानों में…
  • CPIM
    भाषा
    नोएडा : रालोद- सपा गठबंधन के प्रत्याशियों को समर्थन देगी माकपा
    04 Feb 2022
    ग्रेटर नोएडा के स्वर्ण नगरी में स्थित प्रेस क्लब में बृहस्पतिवार को पत्रकार वार्ता के दौरान माकपा के जिला प्रभारी गंगेश्वर दत्त शर्मा ने मौजूदा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘भारतीय जनता पार्टी (…
  • tomar
    भाषा
    सरकार विधानसभा चुनावों के बाद एमएसपी समिति गठित करने के लिए प्रतिबद्ध : तोमर
    04 Feb 2022
    तोमर ने कहा कि एमएसपी पर समिति बनाने का मामला मंत्रालय के विचाराधीन है और विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद इसका गठन किया जाएगा।
  • RRb
    भाषा
    रेलवे ने आरआरबी परीक्षा प्रदर्शन को लेकर दो लाख अभ्यर्थियों से संपर्क साधा
    04 Feb 2022
    रेलवे ने एनटीपीसी और ‘लेवल-1’ की परीक्षाओं में कथित अनियमितताओं के विरोध में प्रदर्शन करने सड़कों पर उतरे अभ्यर्थियों से संपर्क साधना शुरू किया है और बृहस्पतिवार को उसने करीब दो लाख विद्यार्थियों से…
  • fertilizer
    तारिक अनवर
    उप्र चुनाव: उर्वरकों की कमी, एमएसपी पर 'खोखला' वादा घटा सकता है भाजपा का जनाधार
    04 Feb 2022
    राज्य के कई जिलों के किसानों ने आरोप लगाया है कि सरकार द्वारा संचालित केंद्रों पर डीएपी और उर्वरकों की "बनावटी" की कमी की वजह से इन्हें कालाबाजार से उच्च दरों पर खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License