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भारत अमेरिका की अफ़गान नीति का पिछलग्गू न बन कर, स्थानीय ताकतों के साथ मिलकर काम करे
‘किसी भी सूरत में, तालिबान शासित अफगानिस्तान भारत के लिए एक बेहद चिंताजनक विषय बना रहने वाला है, जिसका वहां करोड़ों डॉलर मूल्य का निवेश लगा हुआ है...’
अमिताभ रॉय चौधरी
21 Aug 2021
भारत अमेरिका की अफ़गान नीति का पिछलग्गू न बन कर, स्थानीय ताकतों के साथ मिलकर काम करे
चित्र साभार: एपी 

तालिबान के द्वारा अफगानिस्तान पर “रेंगते हुए आक्रमण” करने के बाद, देश में एक इस्लामी अमीरात की स्थापना की जा रही है, जिसे दुनिया के किसी भी देश द्वारा मान्यता हासिल करना फिलहाल बाकी है। तालिबान ने पहले से ही एक “मजबूत इस्लामी एवं समावेशी सरकार” स्थापित करने का वादा करना शुरू कर दिया है, जिसमें हिंसा को समाप्त करने, महिलाओं सहित आम लोगों को उनके पूर्ण अधिकार प्रदान करने, और “शरिया के ढाँचे के भीतर” सभी को सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश की जायेगी। एक तालिबान प्रवक्ता ने देश पर कब्जा किये जाने के एक दिन बाद की गई पहली प्रेस वार्ता के दौरान अपने बयान में इसकी घोषणा की।

15 अगस्त को सत्ता हस्तगत किये जाने के कुछ दिनों के भीतर ही नांगरहार, खोश्त और जलालाबाद जैसे कुछ प्रमुख शहरों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। काबुल से आ रही न्यूज़ रिपोर्ट्स के मुताबिक कम से कम तीन लोगों की जान चली गई है। पंजशीर घाटी में एक अन्य घटनाक्रम जारी है, जिसमें इन रिपोर्टों के मुताबिक, अभी तक तालिबान द्वारा कब्ज़ा स्थापित नहीं किया जा सका है।

अफगानिस्तान का अधिग्रहण, या तत्कालीन सत्ताधारी अभिजात्य वर्ग द्वारा उन्हें सत्ता सौंपने के साथ एक अन्य समानांतर विकास भी देखने को मिला है – वह यह है कि राष्ट्रपति अशरफ घनी देश छोड़कर भाग गए हैं, और अपने साथ कथित तौर पर तीन ट्रक नकद भी ले गए हैं। कई समाचार पत्रों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वे अपने पीछे ऐसी दो और एसयूवीज को छोड़ गए हैं, जिसे तालिबान और काबुल हवाई अड्डे पर मौजूद स्थानीय ने अपने कब्जे में ले लिया था। 

उस अवधि से ठीक पहले और बाद में कुछ और भी विकास क्रम देखने को मिला। अफगानिस्तान के उप-राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह और कुछ अन्य शक्तिशाली युद्ध सरदारों ने तालिबान के खिलाफ प्रतिरोध को जारी रखने का ऐलान किया है, उनमें से एक, अता मोहम्मद नूर का आरोप है कि इस सत्ता अधिग्रहण को होने देने के पीछे “एक बड़ी, संगठित और कायराना साजिश है।” हालाँकि, रिपोर्टों के मुताबिक, नूर और मार्शल अब्दुल रशीद दोस्तम, जो मज़ार-ए-शरीफ़ के बचाव में जुटे हुए थे, फिलहाल उज्बेकिस्तान भाग चुके हैं, जबकि नूर यह दावा करते हुए कि “हमारा रास्ता यहीं पर खत्म होने नहीं जा रहा है।” 

खुद को अफगानिस्तान का कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित करने वाले अमरुल्लाह सालेह ने अपने ट्वीट में कहा है: “मैं कभी भी और किसी भी परिस्थितियों में तालिब आतंकवादियों के सामने किसी भी हाल में नहीं झुकूँगा। मैं अपने नायक और कमांडर, अहमद शाह मसूद, जो मेरे आदर्श और पथप्रदर्शक हैं की आत्मा और विरासत के साथ कभी भी विश्वासघात नहीं कर सकता। मैं उन लाखों-लाख लोगों को निराश नहीं करूँगा, जिन्होंने मेरा अनुसरण किया है। मैं तालिबान के साथ कभी भी एक छत के नीचे नहीं रहूँगा। कभी नहीं।” खबरों के मुताबिक सालेह फिलहाल पंजशीर में हैं, जहाँ वे प्रमुख युद्ध सरदार अहमद मसूद के साथ मिलकर प्रतिरोध को संगठित कर रहे हैं।

अता मोहम्मद नूर ने 15 अगस्त को सिलसिलेवार एक के बाद एक अपने कई ट्वीटस में कहा है: “मेरे प्यारे देशवासियों! हमारे दृढ प्रतिरोध के बावजूद, दुःख की बात है कि एक बड़े संगठित एवं कायराना साजिश के तहत सभी सरकारी एवं #एएनडीएसएफ (अफगानिस्तान राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा बलों) के हथियारों को #तालिबान के हाथों सुपुर्द कर दिया गया है। उन्होंने मार्शल दोस्तम और मुझे भी फांसने के लिए साजिश रची थी, लेकिन वे अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो सके।”

“मार्शल दोस्तम, मैं खुद, बाल्ख के गवर्नर, बाल्ख के कई सांसद, बाल्ख प्रांतीय परिषद के प्रमुख और कुछ अन्य अधिकारी फिलहाल एक सुरक्षित स्थान पर हैं। मेरे पास ढेर सारी अनकही कहानियां हैं जिन्हें मैं समय आने पर साझा करूँगा। उन सभी को शुक्रिया जिन्होंने अपनी भूमि की रक्षा के लिए गौरवपूर्ण प्रतिरोध किया। हमारी मंजिल यहीं पर खत्म नहीं होने जा रही है।”

एक अन्य ट्वीट में, नूर ने कहा: “प्यारे एवं सम्माननीय देशवासियों! दुर्भाग्यवश, षड्यंत्र की जड़ें बेहद गहरी हैं, जिसके चलते ही बाल्ख में हार का मुहँ देखना पड़ा है। इस साजिश से अब काबुल और उसके नेताओं को सामना करना पड़ रहा है।”

प्रतिरोध, भले ही वह बेहद सीमित पैमाने पर ही क्यों न हो, लेकिन इसे पंजशीर घाटी में देखा जा रहा है, जो काबुल के उत्तर-पूर्व में स्थित है, जहाँ इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों और तालिबान के बीच सशस्त्र झड़पें जारी हैं। स्थानीय लोग युद्ध सरदार अहमद मसूद के अनुयायी हैं, जो नार्दन अलायन्स के नेता अहमद शाम मसूद के बेटे हैं, जिन्हें पंजशीर का शेर नाम से जाना जाता था, जो 9 सितंबर 2001 को एक आत्मघाती बम विस्फोट में मारे गए थे।

सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों का यहाँ पर कहना है कि इस मोड़ पर तालिबान से युद्ध करने की इस प्रकार की कोशिश का कोई खास नतीजा निकलने वाला नहीं है, क्योंकि यह एक ऐसे इलाके तक सीमित है जो तालिबान नियंत्रण के तहत आने वाले कई राज्यों से घिरा हुआ है। इसके अलावा, प्रतिरोध में शामिल लड़ाकों की तुलना में हथियारों से निपटने के मामले में तालिबान को भारी बढ़त प्राप्त है।

पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई और पूर्व मुख्य कार्यकारी एवं विदेश मंत्री अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने अपनी ओर से एक वीडियो में एक साथ दिखाई दिए हैं और देश में एक बार फिर से हालात को सामान्य किये जाने के प्रयासों की बात की है।

इस महीने की शुरुआत में, मसूद रक्षा मंत्री जनरल बिस्मिल्लाह मोहम्मदी के काबुल स्थित आवास पर मौजूद थे, जब 4 अगस्त को यहाँ पर एक बड़ा बम धमाका हुआ था। हालाँकि, उस हमले में दोनों नेता मौत के मुहँ से बाल-बाल बच गए थे। मसूद ने अगले दिन अपने ट्वीट में कहा था: “कल काबुल ने एक और घृणित हमले को देखा है, इस बार उन्होंने @muham_madi1 को निशाना बनाया था, हमारे बीच में एक बैठक हुई और हमले से चंद मिनट पहले ही हम इस कमरे से बाहर निकले थे। हालाँकि हम दोनों पूरी तरह से सही-सलामत हैं लेकिन दुर्भाग्यवश हमने इस हमले में लोगों को खोया है और कई लोग घायल हो गये हैं।” 

तालिबान अब स्थानीय प्रतिरोध के उपर भारी बढ़त हासिल कर पाने की स्थिति में हैं। इसके पास न सिर्फ अमेरिकी और नाटो सेनाओं द्वारा छोड़ दिए गए उच्च तकनीक वाले हथियारों और उपकरणों का जखीरा मौजूद है, बल्कि यह उन अरबों डॉलर तक भी अपनी पहुँच बना सकता है, जो इसे अफगानिस्तान के सेंट्रल बैंक, ‘दा अफगानिस्तान बैंक’ कहे जाने वाले सेंट्रल बैंक के खजाने से हासिल हो सकते हैं। हालाँकि ताजातरीन खबरों में कहा गया है कि अमेरिका ने अमेरिकी बैंकों में दा अफगानिस्तान द्वारा जमा किये गए 9.5 अरब डॉलर को फ्रीज कर दिया है। इसलिए, तालिबान को समूची रकम तक पहुँच नहीं हासिल हो सकती है। 21 जून, 2021 को बैंक की वित्तीय स्थिति के बयान के हवाले से रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि उसके पास लगभग दस अरब डॉलर की कुल संपत्तियां थीं, जिसमें 1.3 अरब डॉलर मूल्य का स्वर्ण भण्डार और 36.2 करोड़ डॉलर की विदेशी मुद्रा नकद कोष में शामिल है। दा अफगानिस्तान का तहखाना, जिसने अपने खजाने को भी राष्ट्रपति के महल में छिपा रखा था, के भीतर प्राचीन एवं ऐतिहासिक कलाकृतियाँ, सोने की छड़ें और सिक्के भी मौजूद हैं। यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तालिबान अपने शासन को जारी रखने के लिए इन खजानों तक किस हद तक पहुँच बना पाने में सफल रहता है। 

केवल अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की ही अचानक और पूर्ण वापसी नहीं हुई है बल्कि इसके साथ ही साथ उनके रख-रखाव करने वाले ठेकेदारों की भी हुई है। इसने अफगान राष्ट्रीय सेना की सूची में प्रमुख संपत्तियों पर उनकी काबिलियत को काफी हद तक कमजोर कर डाला, और इसके साथ ही उन्हें हासिल महत्वपूर्ण एयर कवर से भी वंचित कर दिया था। इस बारे में एक सैन्य विशेषज्ञ का कहना था कि बाईडेन के वापस जाने के फैसले के आलोक में, अमेरिका ने अपने हवाई समर्थन, गुप्तचर सेवा और अफगानिस्तान के विमानों और हेलीकॉप्टरों के रखरखाव में शामिल ठेकदारों को भी वापस बुला लिया। “इसका सीधा मतलब था कि अफगान सेना अब और कार्य संचालन में असमर्थ हो गई थी।”

अमेरिकी सैनिकों की वापसी की खबर न सिर्फ तालिबान के लिए बल्कि अल क़ायदा और इस्लामिक स्टेट के लिए भी एक शानदार खबर से कम नहीं है। यह करीब-करीब तय है कि अल-क़ायदा और आईएसआईएस अफगानिस्तान में एक बार फिर से अपने लिए सुरक्षित पनाहगाह को स्थापित करेंगे और इसका इस्तेमाल दुनिया भर में कहीं भी स्वतंत्र रूप से हमों की साजिश रचने के लिए करेंगे। तालिबान के साथ-साथ अल-क़ायदा और आईएसआईएस जल्द ही, सेंट्रल बैंक से लूटे गये पैसों, पराजित अफगान सेना से जब्त किये गए हथियारों और देश भर की जेलों से मुक्त किये गए लड़ाकों के आजाद हो जाने से मालामाल होने जा रहे हैं।

इस हालात के मद्देनजर, एक पूर्व अमेरिकी राजदूत और आतंकवाद-रोधी मामलों के समन्वयक, नैथन सालेस ने लिखा है: “इन सब (हालात) की परतें खुलेंगी, क्योंकि अफगानिस्तान में अमेरिकी ख़ुफ़ियागिरी की क्षमताओं को गंभीर रूप से निम्नस्तरीय बना दिया गया था। जमीन पर बिना किसी सैन्य या राजनयिक स्तर की उपस्थिति के चलते, अल-क़ायदा पर नजर रख पाना बेहद दुष्कर कार्य होगा क्योंकि यह खुद को पुनर्गठित करने से लेकर, प्रशिक्षण देने और हमलों की योजना बना सकता है। और अमेरिकी ड्रोन और लड़ाकू विमान अब खाड़ी में यहाँ से सैकड़ों मील दूर होने के कारण, आतंकियों को युद्ध के मैदान से बाहर खदेड़ पाना पहले से कहीं अधिक दुष्कर कार्य होने जा रहा है, भले ही उनके ठिकानों की मालूमात हासिल हो जाने के बावजूद। जैसे ही काबुल में धुल का गुबार थम जाए, सबसे अहम मुद्दा यह है कि, बाईडेन प्रशासन यथा संभव प्रयास कर, हमारी सैन्य क्षमता को आतंकवादियों को ढूंढ निकालने, बंदी बनाने और सफाया करने में सक्षम बनाये, जो हमारी मातृभूमि के लिए खतरा हैं।”  

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के मुताबिक अफगानिस्तान ने “गुलामी की जंजीरों को तोड़ दिया है”, और इसके साथ ही इस्लामाबाद ने तालिबान के साथ-साथ अफगानिस्तान के कुछ अज्ञात “विभिन्न प्रान्तों के नेताओं” के साथ सरकार के गठन और इसमें लोगों के प्रतिनिधित्व के बारे में बातचीत की पहल शुरू कर दी हैं।

बहरहाल, किसी भी सूरत में तालिबान शासित अफगानिस्तान भारत के लिए बेहद गंभीर चिंता का विषय बना रहने वाला है, जिसमें एक बड़े बाँध के निर्माण सहित करोड़ों डॉलर का निवेश दांव पर लगा हुआ है। काबुल में नया संसद भवन, जो अब तालिबान के कब्जे में है, को भी भारत द्वारा निर्मित किया गया था। अमेरिका की अफगान नीति के पीछे आखिरी दम तक पिछलग्गू बने रहने के बजाय, नई दिल्ली को चाहिए कि वह क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर काम करे, ताकि उस देश में शांति और स्थिरता की बहाली को सुनिश्चित किया जा सके और अपने खुद के हितों और निवेशों की रक्षा की जा सके।

लेखक प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के उप-कार्यकारी संपादक रह चुके हैं और उन्होंने आंतरिक सुरक्षा, रक्षा एवं नागरिक उड्डयन मामलों को व्यापक पैमाने पर कवर किया है। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 Instead of Toeing US' Afghan Policy, India Needs to Engage with Local Powers

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