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भारत
राजनीति
प्रधानमंत्री जी, इतना तो काफ़ी नहीं?
भारत पर घातक कोरोना महामारी का साया मंडरा रहा है, और अपने प्रवचन सरीखे भाषण में मोदी ने इस लड़ाई की ज़िम्मेदारी लोगों के पाले में डाल दी है।
सुबोध वर्मा
20 Mar 2020
modi
Image Courtesy: Business Today

19 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में जारी COVID-19 महामारी को लेकर लोगों को सम्बोधित किया। मुहाने पर खड़ी इस बीमारी से चिंतित और परेशान पूरा देश प्रधानमंत्री से अपेक्षा कर रहा था कि वह न केवल ढांढस बंधायेंगे, बल्कि इस बात का आश्वासन और विश्वास भी दिलायेंगे कि देश के संसाधनों को इस बीमारी से पार पाने में लगा दिया जायेगा। लोगों की यह उम्मीद इसलिए अहम थी, क्योंकि देश के निर्वाचित नेता इस संकट के समय उन्हें संबोधित कर रहे थे।  लोग हल चाहते थे, भविष्य के लिए एक ऐसी योजना,जो उनके ढीले पड़ते उत्साह में  एक उफ़ान ला दे।

हालांकि मोदी ने कोशिश ज़रूर की, लेकिन उनके विज़न की दुर्भाग्यपूर्ण सीमायें साफ़ तौर पर सामने आ गयीं। उनके भाषण का मूल आधार ही यही था कि लोगों को अपने व्यवहार में बदलाव लाने की ज़रूरत है, और व्यवहार में आने वाला यह बदलाव भारत को इस महामारी के माध्यम से दिखेगा।

मोदी ने ऐसी नौ बुनियादी चीज़ों को सूचीबद्ध किया, जिन पर लोगों को व्यक्तिगत रूप से अमल करना चाहिए। इनमें घर पर रहना, भीड़-भाड़ वाली जगहों पर न जाना, अनावश्यक रूप से अस्पतालों का दौरा न करना, आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी न करना आदि शामिल थे।

मोदी को भव्य आयोजन पसंद है, और इसलिए उन्होंने आने वाले रविवार को एक दिन के ‘जनता कर्फ्यू’ की घोषणा कर दी, इस दिन पूरे देश को अपने घरों में रहने की हिदायत दी गयी। और, ऐसा न हो कि इस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाये, इसके लिए उन्होंने लोगों को सेवा देने वालों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए शाम को 5 बजे बाहर निकलने के लिए भी कहा।

क्या यह सोच पाना संभव है कि यह सब ग़लत नहीं है ? सचमुच संभव नहीं है। यह ऐसा आघात है,जो अभूतपूर्व और दुखद,दोनों है, क्योंकि दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश के नेता ने ख़ुद को और अपनी सरकार को कुछ करने के अवसर को गंवा दिया है।

सरकार के बारे में क्या ?

जबसे दुनिया भर में यह महामारी फैलने लगी है और अब तो यह बीमारी का विस्फोटक रूप अख़्तियार करने लगी है, तबसे एक बात साफ़ हो गयी है कि इस बीमारी से लड़ने में सरकारों की महत्वपूर्ण और विशिष्ट भूमिका है। अलग-अलग ज़रिये से होने वाली किसी भी तरह की आवाजाही पर प्रतिबंध लगाने के अलावा, यह सरकार का ही काम है कि वह इस बात पर नज़र रखे कि बड़े पैमाने पर स्क्रीनिंग हो रही है या नहीं, संपर्कों को तत्पर तरीके से ट्रेस किया जाय, यह सुनिश्चित किया जाय कि प्रभावित सभी लोगों को तुरंत सबसे अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल रही है या नहीं, आर्थिक या भावनात्मक संकट से पीड़ित परिवारों की देखभाल हो रही है या नहीं, आर्थिक गतिविधि को बनाये रखने में मदद की जाय और अन्य कार्यों को अंजाम दिया जाय।

चीन में पहली बार पक्के तौर पर जनवरी में इस महामारी को चिह्नित किया गया था। तब से, इस वायरस को लेकर हमारे पास व्यापक अनुभव है कि क्या किया जाना चाहिए, और क्या नहीं किया जाना चाहिए। चीन और दक्षिण कोरिया ने COVID-19 से लड़ने और उसे नियंत्रित करने के बहुत स्पष्ट सबक दिये हैं। इसके बारे में बहुत कुछ बताया गया है और जैसा कि मोदी के भाषण में भी संकेत दिया गया कि निश्चित रूप से वे ख़ुद इसे लेकर जागरूक हैं।

इसके उलट, किसी भी तरह की देरी या ग़लत प्राथमिकताओं के भयावह परिणाम भी सबके सामने हैं, जैसा कि इटली में देखने को मिला है कि वहां एक चौथाई समय में ही मरने वालों की संख्या चीन में मरने वालों की संख्या से ज़्यादा हो गयी है। शुरुआती दिनों की अमेरिकी शिथिलता ने इस समय तत्परता की जगह ले ली है, लेकिन इसकी क़ीमत भी अमेरिका को चुकानी पड़ी है।

चूक

इसके बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में सबसे बुनियादी चीज़ों को अंजाम दिये जाने को लेकर पैसे लगाने के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा है। उन्होंने स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को मज़बूत करने का उल्लेख तक नहीं किया, उन्होंने संकट में पड़ने वाले परिवारों या व्यवसायों को बचाने के लिए किसी भी तरह के फ़ंड की घोषणा नहीं की (जो कुछ किया जा सकता है,इसका पता लगाने के लिए एक टास्क फोर्स बनाने को छोड़कर !), सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से भोजन को सुनिश्चित करने आश्वासन को लेकर भी उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं था। उनके पास लोगों के लिए जो ज़रूरी शब्द थे, वह ये कि वे ख़ुद की देखभाल करें, जमाखोरी न करें ताकि आपूर्ति व्यवस्था बाधित न हो, इसके अलावा उनके पास कहने को कुछ भी नहीं था।

लोगों को घरों में रहने के लिए कहने के अलावा, प्रधानमंत्री के पास इस वायरस की रोकथाम की कोई योजना नहीं थी। मास स्क्रीनिंग के बारे में कुछ भी नहीं, परीक्षण के बुनियादी ढांचे को बढ़ाने को लेकर कुछ भी नहीं, यह सुनिश्चित करने को लेकर भी कुछ नहीं था कि लोग दिशा-निर्देशों का पालन कर भी रहे हैं या नहीं।

उन्होंने नियोक्ताओं, ख़ास तौर पर घरेलू नियोक्ताओं को यह सलाह दी कि वे मज़दूरी में कटौती नहीं करें। लेकिन,भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में बिना किसी छुट्टी के अधिकार के काम करने वाले,बिना मेडिकल कवर वाले 93% कर्मचारियों के लिए क्या किया जा रहा है,यह केवल मोदी और उनकी सरकार को मालूम है।

प्रधानमंत्री विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लेकर बेहद उत्साह दिखाते रहते हैं-निजी जानकारी और अंतरिक्ष मिशन के ऐप्स और डेटाबेस और उन्नत युद्ध के सामान उनकी पसंदीदा चीज़ें हैं। इसके बावजूद, इस नये वायरस पर शोध के लिए उनके पास कोई शब्द नहीं था, और न ही इसके लिए कोई योजना थी, धन की तो बात ही जाने दें।

केरल की मिसाल

प्रधानमंत्री ने COVID-19 से जूझते हुए केरल सरकार द्वारा अंतिम गणना में 25 सकारात्मक मामलों को लेकर किये जा रहे अनुकरणीय कार्य का उल्लेख तक नहीं किया। केरल सरकार ने परीक्षण से लेकर पीड़ितों को चिह्नित किये जाने और चिकित्सकीय मदद पहुंचाने तक प्रभावित परिवारों के लिए सहायता का कार्य शुरू किया है, आंगनवाड़ी केन्द्रों को बंद करने के बाद घर पर पोषण सहायता प्रदान की है और सभी सरकारी उपायों को लागू करने में बड़े पैमाने पर लोगों को लामबंद किया है। केरल सरकार ने इसके लिए जन जागरूकता कार्यक्रमों की शुरुआत की है। केरल सरकार की इन पहले की तुलना सेवा देने वालों के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए बालकॉनी में आने को लेकर मोदी के आह्वान से की जाय ? केरल, जिसने 20,000 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है, इसे सबक के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन यह भी हमारे प्रधानमंत्री के लिए राजनीतिक रूप से अस्वीकार्य होगा।

रूढ़िवाद के संकेत

इस तमाम असंगत प्रवचन के बावजूद, मोदी यह कहकर विज्ञान पर चोट नहीं कर सकते थे कि विज्ञान के पास अब तक इसका कोई निश्चित इलाज नहीं है। हालांकि यह बात सही है। यह भी सही है कि इसके लिए अबतक कोई टीका नहीं है।

लेकिन,यह  विज्ञान ही है, जिसने इस वायरस के लक्षणों की खोज की है, इसकी संरचना को चिह्नित किया है, इस बात पर काम किया है कि इससे सबसे अच्छे तरीक़े से कैसे निपटा जाय, और यह विज्ञान ही है,जो आख़िरकार इस वायरस पर जीत हासिल करेगा। यह लोगों को आश्वस्त करने का एक सुनहरा अवसर था कि विज्ञान अपना काम कर रहा है और इसका समाधान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और असाधारण गति से कर लिया जायेगा। लेकिन, मोदी ऐसा नहीं कह पाये, वे उसी अतीत की विचारधारा में  क़ैद रहे, जहां लोगों ने संयम बरतते हुए और विश्वास को क़ायम रखते हुए बीमारियों से लड़ाइयां लड़ीं और बेशक ऐसा करते हुए लाखों लोग काल के गाल में में समाते रहे।

आख़िरकार, मोदी यह कहने से भी ख़ुद को नहीं रोक पाये कि नवरात्रि का हिंदू त्योहार अप्रैल में आ रहा है और यह ‘शक्ति उपासना’ यानी शक्ति की आराधना का सूचक है। उनकी इस बात पर ग़ौर किया जाना चाहिए ?  उन्होंने इस बात की कामना की कि ऐसी ताकत या शक्ति देश को आगे ले जाये।

इस बात को यहां कहने की आख़िर ज़रूरत क्यों पड़ी ? अन्य धर्मों के लोगों को छोड़ भी दें,तो यह त्योहार सभी हिंदुओं द्वारा भी नहीं मनाया जाता है। और किसी भी हालत में, क्या आस्था कोरोनोवायरस से लड़ सकती है ? जैसा कि मशहूर कहावत है कि आस्था शायद इस हृदयहीन दुनिया का हृदय है, शोषितों की आह है, लेकिन यह अंतिम रूप से उस सरकार की अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाडने के अलावा कुछ भी नहीं है,जिसका नेतृत्व मोदी खुद कर रहे हैं।

इतिहास इस भाषण और इसके सभी निहितार्थों को इसलिए याद रखेगा,क्योंकि एक तो इस भाषण में भारत के लोगों को नकारा गया है, और दूसरा कि भारत के लोगों का सामना मानवता पर आघात करने वाले सबसे बुरी आपदाओं में से एक से है।  

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Is That All, Mr. Modi?

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