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जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट : सरकारें नहीं समझ रही हैं स्थिति की गंभीरता
संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 अभी तक के मौजूद रिकॉर्ड में चौथा सबसे गर्म साल रहा है। आने वाले सालों में तापमान में और बढ़ोतरी होगी और यह स्थिति पृथ्वी के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकती है।
अजय कुमार
11 Feb 2019
climate change
image courtesy - the bubble

राजनीति केवल सत्ता की राजनीूति तक सीमित रह गयी है। सरकार का पूरा ढाँचा चौबीस घंटे केवल हार और जीत के बारे में सोचता है। इसलिए समय के साथ बीहड़ होते जा रहे सबसे बड़े सवालों का अब तक कोई जवाब नहीं है। साल 1991 के बाद की आर्थिक नीतियां पूरी तरह फेल हो चुकी हैं। भयंकर गरीबी के साथ घनघोर आर्थिक असमानता पर कोई बहस नहीं है। लेकिन अभी भी औद्योगिकरण और शहरीकरण जैसी बातों के सहारे विकास करने की बात की जाती है। इनका परिणाम यह हुआ है कि जलवायु परिवर्तन से जूझने के सारे उपाय असफल हो रहे हैं। 6 फरवरी को संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट के तहत साल 2018 अभी तक के मौजूद रिकॉर्ड में चौथा सबसे गर्म साल रहा है। बाकी तीन साल 2015, 2016 और 2017रहे हैं। रिपोर्ट का कहना है कि आने वाले सालों में तापमान में और बढ़ोतरी होगी और यह स्थिति पृथ्वी के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकती है।  

संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व मौसम विभाग शाखा का कहना है कि इस साल दुनिया  के तापमान में औद्यौगिक दौर (1850 -1900)के औसत तापमान की अपेक्षा 1 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इस बढ़ोतरी की वजह से ही इस साल दुनिया को जलवायु से जुड़ी कुछ भीषण घटनाओं का समाना करना पड़ा। केरल की बाढ़, दक्षिण अफ्रीका का सूखा और ग्रीस और कैलिफोर्निया के जंगलों  में लगी आग के पीछे जलवायु परिवर्तन ही बहुत बड़ा कारण था। पिछले 22 साल में 20 साल दुनिया के अब तक के सबसे गर्म साल रहे हैं। दुनिया के तापमान में यह बढ़ोतरी किसी एक या दो साल की नहीं है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ की मौसम शाखा का कहना है कि दुनिया के तापमान में यह बढ़ोतरी एक लम्बे समय से चलती आ रही है। पिछले चार साल सबसे अधिक बढ़ते तापमान वाले साल रहे हैं। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। और ऐसा भी लगता है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े वैश्विक पहल और समझौते पूरी तरह असफल रहे हैं। इसका सबूत यह है कि इंटर गवर्नमेंट पैनल ऑन  क्लाइमेट चेंज (IPCC) की पांचवी रिपोर्ट ने आकलन किया था कि दुनिया के तापमान में औद्योगिक दौर के औसत तापमान से  2 फीसदी से कम बढ़ोतरी रखने के लिए साल 2100 तक दुनिया में केवल 2900 गीगा टन कार्बन का उत्सर्जन किया जा सकता है।  लेकिन हाल यह है कि साल 2011 तक ही कार्बन का उत्सर्जन 1900 गीगा टन की सीमा  पार कर चुका है। यानी 89 साल में केवल 1000 गीगा टन  कार्बन उत्सर्जन की सीमा बची है। हाल ही में लेटर्स जनरल ऑफ एनवायरनमेंट की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में शहरीकरण बढ़ने के साथ कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में शहरीकरण का ढांचा बहुत बिगड़ा हुआ है। एक व्यक्ति के काम और आवास  के बीच बहुत अधिक दूरी है। जिसे पूरा करने में पब्लिक ट्रांसपोर्ट से रोजाना बहुत अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। कामचलाऊ नौकरी तो नगरों में मिल जाती है लेकिन कम आय और तंग आवास की वजह से जीवनशैली पूरी तरह चरमरा जाती है। इस अध्ययन के मुताबिक भारत की एक फीसदी के शहरीकरण बढ़ने पर कार्बन उत्सर्जन में 0.24 फीसदी की बढ़ोतरी होती है जबकि यह चीन में केवल 0.12 फीसदी है। 

इस स्थिति को देखते हुए दुनिया के वैज्ञानिकों ने पिछले साल IPCC को  यह सुझाव दिया  कि यह सीमा 2 डिग्री सेल्सियस से कम कर 1.5  डिग्री सेल्सियस कर देनी चाहिए। लेकिन इस सीमा से कम तापमान बनाये रखने पर भी उनका कहना है कि दुनिया की दशा और दिशा इस लिहाज से भी बिल्कुल अलग ट्रैक पर है। अगर हमें इस सीमा से कम तापमान रखना  है तो जीवन से लेकर विकास  से जुड़े सारे नजरियों में आधारभूत बदलाव करने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिक दुनिया की स्थिति को बहुत गंभीर बता रहे हैं। वह यहां तक चाहते हैं कि दुनिया की सरकारों को बड़े अक्षरों में  यह लिखकर सौंपे की ‘ACT NOW IDIOTS’ ताकि सरकारें इस मुद्दों को गंभीरता से लें। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन की भयावहता पर लगाम लगाने के लिए अगले दो दशकों में दुनिया के कुल जीडीपी का तकरीबन 2.5 फीसदी  जलवायु परिवर्तन से जुड़े उपायों पर खर्च होना चाहिए। इसके बाद जंगलों से लेकर पौधों की तरफ बहुत अधिक ध्यान देने की जरूरत है और इनके एरिया में बढ़ोतरी करने की जरूरत है  ताकि कार्बन उत्सर्जन कम हो। साल 2010 के मुकाबले साल 2030 तक कार्बन के उत्सर्जन यानी कार्बन का हमारे वायुमंडल के फैलाव में तकरीबन 48 फीसदी कम करने की जरूरत है। साल 2050 तक कुल बिजली के पैदावर में तकरीबन85 फीसदी रेनेवबल एनर्जी का होना जरूरी है। लगभग ऑस्ट्रेलिया के एरिया के बराबर एरिया में ऊर्जा उत्पादन से जुड़ी  फसलें हों ताकि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले ऊर्जा के साधनों में कमी आए। कार्बन उत्सर्जन से जुड़ी ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जिसपर लगाम लगाने की जरूरत है। 

वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो अमेरिका जैसा देश जिसने विश्व की सम्पदा का  सबसे अधिक दोहन किया है, वह जलवायु परिवर्तन पर गैरजिम्मेदराना रवैया दिखा रहा है। विकासशील देशों की आदत विकसित देशों का पिछलग्गू बनने की रही है। इसलिए भारत को भी लगता है कि पर्यावरण और संसाधनों के दोहन पर ही विकास सम्भव है। कुछ दिन पहले ही सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने ‘री-क्लैमिंग द रिपब्लिक’ नाम से फोरम बनाया। इस फोरम का उद्देश्य है कि साल 2019 के चुनावों के लिए नागरिकों के सामने देश के जनतंत्र से जुड़े असल मुद्दे रखे जाएं। इस फोरम की पर्यावरण पर यह राय है कि हमारे प्राकृतिक आर्थिक परितंत्र में गिरावट आई है, हमारी जैवविविधता का बहुत अधिक नुकसान हुआ है। तकरीबन दो तिहाई जमीन की उत्पादकता में बहुत अधिक कमी हुई है, हमारे जल और वायु इको-सिस्टम का बहुत बड़ा हिस्सा हद से अधिक प्रदूषित हो चुका है। साल 1991 के बाद से केंद्र और राज्य सरकारों का किसी भी शर्त पर जीडीपी बढ़ोतरी करने की सोच से पर्यावरण का बहुत अधिक नुकसान हुआ है। जल, जंगल, जमीन और खनिजों का बहुत अधिक नुकसान हुआ है। जिसका फायदा करोड़ों की जनसख्या के जीवन की बर्बादी पर  केवल कुछ लोगों को हुआ है।

संविधान का अनुच्छेद 48 A और 51 A भी कहता है कि राज्य और नागरिक मिलकर पर्यावरण का संरक्षण करें। लेकिन हुआ उल्टा है। पर्यावरण नुकसान को बचाने के लिए मौजूदा कानून कठोर नहीं है। पर्यावरण रेगुलेशन, संरक्षण औेर प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी संस्थाएं स्वतंत्र नहीं हैं। सरकारों की उनमें बहुत अधिक दखलंदाज़ी होती है। इसलिए यह प्रभावी ढ़ंग से काम नहीं कर पाती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत का पश्चिमी घाट है, जिसपर कई रिपोर्टें आईं। और सरकार ने उसे ही माना जिससे पर्यावरण दोहन की आजादी मिलती हो। इसी तरह से ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर हर सरकार पर्यावरण से जुड़े नियमों को कमजोर करने में लगी रहती हैं। हर साल आने वाली भयावह  बाढ़ के कारणों में यह देखने को मिलता है कि जिस जमीन पर मानवीय बसावट नहीं होनी चाहिए थी, उस जमीन पर आबादी बसा दी जाती है। नदियों के रास्ते बदल जाते हैं और भयावह बाढ़ की संभावना खुद ब खुद बढ़ जाती है।

चुनावी रणनीतियों और चुनावी अभियानों में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर कोई बात नहीं होती है। जबकि अब सारी बातें इसके आधार पर ही करने  की जरूरत है।

संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट भले ही यह बताए कि दुनिया की स्थिति बहुत खराब है लेकिन देश के चुनावों और आम बहसों में जलवायु परिवर्तन जैसा कोई मुद्दा नहीं है। देश का आम मानस भले ही इसे न समझे लेकिन यह समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक हानि आम जनता को ही उठानी पड़ती है। फसलों के उत्पादन चक्र से लेकर स्वस्थ रहना सबकुछ इस पर ही निर्भर है। मौसम की प्रकृति में  चुपचाप लगातार बदलाव होता रहता है और प्राकृतिक आपदाएं बार-बार आने लगती हैं। इसलिए जलवायु से जुड़ी ऐसी रिपोर्टें बार-बार  ऐसे संदर्भ बिंदु बनकर रह जाती हैं जिसपर विचार तो किया जाता है लेकिन काम नहीं किया जाता है।

 

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