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जम्मू-कश्मीर पर भारत का नज़रिया खेदपूर्ण है
सभी तरह से जम्मू और कश्मीर की ज़मीनी स्थिति काफी विस्फोटक है और इंसान का दु:ख एक चीख़ की हद तक बढ़ गया है।
एम.के. भद्रकुमार
14 Aug 2019
Translated by महेश कुमार
jammu kashmir
चीन के स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी, भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ, बीजिंग में, 12 अगस्त, 2019 को आपसी बातचीत में शामिल थे।

दिल्ली के दो प्रमुख अखबारों में इस पर संपादकीय में दिखाई दिए, जिसमें सरकार से जम्मू-कश्मीर के घटनाक्रम पर एक विश्वसनीय, आकर्षक राजनयिक कहानी पेश करने का आग्रह किया है।

भारतीय नज़रिया काफी हद तक घरेलू दर्शकों पर केंद्रित है। इन संपादकियों के ज़रिए अनुमान लगाया गया है कि जम्मू और कश्मीर में स्थिति वास्तव में काफी "सामान्य" है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की कश्मीरी मुसलमानों के साथ श्रीनगर के नुक्कड़ पर मटन बिरयानी खाने की तस्वीरें छप रही हैं। (वास्तव में, अब यह साबित हो गया है कि यह जनता को धोखे में रखने की एक चाल है।)

इस तरह का भोंडा प्रचार लोगों के दिलों और दिमाग को नहीं जीत पाएगा। किसी कहानी को तर्कसंगत रूप से गढ़ना होगा। यह सामान्य ज्ञान की बात है कि कश्मीरी मुसलमानों के बीच सरकार के कदम की बहुत ही कम स्वीकृति है।

जब भारत की कहानी को बाहरी दुनिया में पेश करने की बात आती है, तो भारत को इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिए कि भारत का मामला अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सामने उड़ान भर रहा है, इसलिए सरकार को उपज़े हालात पर संवेदना और विशेषज्ञता को दिखाने में सक्षम होना चाहिए।

सरकार कूटनीतिक स्तर पर इस पहल का आगाज़ कर इस पल को अपने पक्ष में कर सकती थी अगर गृह मंत्री अमित शाह द्वारा संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द करने को जिस गति से संसद के दोनों सदनों मे पेश किया और पारित करवाया उसके तुरंत बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर को खड़ा होकर कह देना चाहिए था कि वे क्षेत्रीय सुरक्षा, शांति और स्थिरता के सर्वोत्तम हितों के लिए व्यापक बातचीत में पाकिस्तान के साथ सभी मतभेदों पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं।

बेशक, इस तरह की एक महत्वपूर्ण पहल के लिए एक कल्पना, दूरदृष्टि और ज्ञान की आवश्यकता होती है - और, सबसे महत्वपूर्ण होता है,नेतृत्व के स्तर पर राजनीतिक साहस का होना। राज्य के कामकाज और कूटनीति में कमी भयावह स्तर की है।

एक स्वधर्मी रवैया काम नहीं करेगा। सोमवार को बीजिंग में चीनी समकक्ष स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी के सामने विदेश मंत्री ने मसले विभिन्नता पेश की। विदेश मंत्री ने भारतीय रुख को स्पष्ट करते हुए निम्नलिखित बयान पढ़ा:

एक, कश्मीर के मामले में संवैधानिक संशोधन "भारत का आंतरिक मामला" है और " एकमात्र देश का ही विशेषाधिकार" है।

दो, जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति (लद्दाख की स्टेटस में किए परिवर्तन सहित) का उन्मूलन "बेहतर प्रशासन और सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा देगा"।

तीन, सरकार के इस कदम का चीन के साथ "भारत की बाहरी सीमाओं या वास्तविक नियंत्रण रेखा पर इसका कोई असर नहीं" पड़ेगा।

और, चार, भारत "कोई अतिरिक्त क्षेत्रीय दावे नहीं कर रहा है।"

अविश्वसनीय रूप से पर्याप्त है, कि विदेश मंत्री ने किस तरह से चीन की "कश्मीर में उथल-पुथल की हालिया वृद्धि पर गंभीर चिंता" को संबोधित क़िया हैं; ऐसी कोई भी एकतरफा कार्रवाई जो कश्मीर में स्थिति को जटिल बना सकती है, उसे नहीं किया जाना चाहिए; कश्मीर मुद्दा क्षेत्र के औपनिवेशिक इतिहास से पैदा हुआ एक विवाद है और इसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार शांतिपूर्ण तरीके से संभाला जाना चाहिए, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रासंगिक प्रस्तावों और पाकिस्तान और भारत के बीच द्विपक्षीय समझौते के आधार पर ऐसा होना चाहिए "; और, इसकी अपेक्षा की जाती है कि "भारत क्षेत्रीय शांति और स्थिरता में एक रचनात्मक भूमिका निभाएगा।" (XINHUANET, XINHUANET,XINHUANET,GLOBAL TIMES)

जीवन वास्तविक है। विदेश मंत्री का बयान भारत के भीतर एक मर्दाना या आक्रमक रवैये के रूप में गूंज सकता है, लेकिन यह विदेश में उपहास का पात्र ही बनेगा - और यहां तक कि चाणक्यपुरी के राजनयिक एन्क्लेव में भी।

वास्तव में, किसी भी पी-5 सदस्य देश ने भारत को इस पर समर्थन नहीं दिया है। अब तक इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि रूसी विदेश मंत्रालय ने इस मुद्दे पर भारत को समर्थन दे दिया है - न तो इसे विदेश मंत्रालय की वेबसाइट; या तास और न ही नोवोस्ती रिपोर्ट में दर्शाया गया है;न ही दबाव में न आने वाले रूसी मीडिया में इसका कोई बयान है। कुछ गैर-विश्वसनीय लोग भारतीय तरीके से अच्छी तरह से वाकिफ थे, जाहिर तौर पर शुक्रवार की रात को फर्जी खबरें फैलीं और अगली सुबह तक यह भारत के भीतर "ब्रेकिंग न्यूज" बन गई थी। इससे ज्यादा दयनीय क्या हो सकता है।

सीधे शब्दों में कहा जाए तो विदेश मंत्री का बयान भारतीय रुख के बारे में मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है और यह केवल नुकसान कर सकता है,क्योंकि यह चर्चा के द्वार को ही बंद कर देता है। मुद्दा यह है कि कश्मीर एक अंतरराष्ट्रीय विवाद है और भारत ने प्रासंगिक आर्थिक प्रस्तावों का उल्लंघन कर जम्मू और कश्मीर की "स्थिति" को एकतरफा रूप से बदल दिया है। कोई भी भारत के दावे को स्वीकार नहीं करेगा कि यह एक "आंतरिक मामला" है।

विश्व जनमत इस तथ्य को स्वीकार करता है कि पाकिस्तान कश्मीर विवाद में वार्ता का भागीदार है। यह वह स्थिति है जिसकी वजह से भारत अपनी सीमाओं को नहीं बदल सकता है। और यह एक खराब सोच है कि एल.ओ.सी. या एल.ओ.ए.सी. पर "कोई असर" पड़ेगा। अगर चीजें इतनी सरल थीं, तो मोदी सरकार गिलगित-बाल्टिस्तान से गुजरने वाले सीपीईसी पर रोक क्यों नहीं लगा पाई? हम "क्षेत्रीय संप्रभुता" के नाम पर चिल्लाए ऐसा है,वैसा है, पर हुआ कुछ नहीं।

विश्व जनमत केवल यह विश्वास करेगा कि दिल्ली का वास्तविक उद्देश्य जनसांख्यिकीय संतुलन को बदलना है, ताकि भारतीय संघ के भीतर कोई भी मुस्लिम-बहुल राज्य न हो।

अगर आधुनिक इतिहास में इस तरह की एकतरफा हरकतें "आंतरिक मामले" इतने ही सरल हैं, तो कोई भी रूस को क्रीमिया के संबंध में मान्यता क्यों नहीं दे रहा है? बीजिंग क्यों हांगकांग में हस्तक्षेप से कतरा रहा है? अमेरिका दक्षिण चीन सागर में "नेविगेशन की स्वतंत्रता" पर जोर क्यों दे रहा है? नॉर्थ सी रूट और आर्कटिक पर अमेरिका क्यों भौं चढ़ा रहा है? फ़ारस की खाड़ी के मामले में ईरान का संप्रभु क्षेत्र होने के दावे में क्या गलत है?तो फिर श्रीलंका की महिंद्रा राजपक्षे को तमिल समस्या को इसी तरह से हल करने से कौन रोक सकता है (जैसा कि उसने पहले ही संकेत दिया था)?

मोदी सरकार आने वाली पीढ़ियों के लिए इस तरह की संकीर्ण सोच से बड़ी और न समाधान होने वाली समस्या खड़ी कर रहे हैं। विश्लेषकों ने(AAऔर SCMP.COM) कहा है कि लद्दाख के स्टेटस में किए गए बदलाव से भारत-चीन सीमा विवाद अविश्वसनीय रूप से जटिल हो जाएगा और समाधान की परिधि से बाहर हो जाएगा। भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर स्थिति गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो सकती है।

इस पहेली को सुलझाने और संबोधित करने का एकमात्र तरीका यह है कि हम पाकिस्तान को यह प्रस्ताव दें कि भारत इन मतभेदों पर चर्चा करने के लिए तैयार है। सौभाग्य से, पाकिस्तान भी ख़राब स्थिति का सामना कर रहा है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में से कोई भी खड़ा होकर भारत को इस कदम को वापस लने के लिए नही कह रहा है।

लब्बोलुआब यह है कि भारत को पाकिस्तान के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय वार्ता की अनिवार्यता के खुद के रुख के लिए व्यापक स्वीकृति प्राप्त है। भारत को अब इस विशेषाधिकार का चतुराई से इस्तेमाल करना चाहिए। हमेशा अनौपचारिक आश्वासन देना संभव है कि कश्मीर घाटी का कोई "उपनिवेशिकरण" नहीं होगा। आखिरकार, हमारे पास भारत के कई क्षेत्रों के लिए ऐसे अंतर्निहित सुरक्षा उपाय हैं।

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प्रदर्शनकारी  कश्मीर को बंद करने के विरोध में एक अस्पताल की आपातकालीन इकाई के बाहर नारेबाजी कर रहे हैं, श्रीनगर 9 अगस्त, 2019। रायटर

इस अवसर की खिड़की लंबे समय तक खुली नहीं रहेगी। सभी तरह से जम्मू और कश्मीर की जमीनी स्थिति काफी विस्फोटक है और इंसान का दु:ख एक चीख़ की हद तक बढ़ गया है। पीएम इमरान खान का एक और पुलवामा होने की बात का पूर्वानुमान कोई गलत नहीं हो सकता है। दिल्ली के सामने जम्मू-कश्मीर में चारों ओर लगे मलबे के ढेर से एक नई वास्तुकला का निर्माण करने के लिए, पाकिस्तान के साथ बातचीत काफी महत्वपूर्ण है।

 

सौजन्य: इंडियन पंचलाइन

 

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