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भारत
राजनीति
कम्युनिस्टों ने नेपाल चुनाव जीता, शासकीय पार्टियों को करारा झटका
शासकीय पार्टियों की चुनावी प्रतियोगिता में हार का कारण उनके द्वारा भ्रष्टाचार, अंतर्कलह और देश के प्रति कोई दृष्टि न होना मुख्य है.
विजय प्रसाद
15 Dec 2017
Translated by महेश कुमार
nepal elections

माउंट एवरेस्ट के शिखर से आपको बड़े लाल ध्वज को फहराए जाने की कल्पना हो सकती है. नेपाल के संसदीय और प्रांतीय चुनाव का नतीजा भी कुछ ऐसा ही इशारा करता है. कम्युनिस्टों ने दोनों चुनावों को निर्णायक रूप से जीत लिया है. संसद में, कम्युनिस्ट गठबंधन दो-तिहाई बहुमत लेकर बैठेगा. सरकार इस बहुमत के साथ न केवल पूरे पांच साल पूरे करेगी बल्कि यह नेपाल में 1990 के संसदीय लोकतंत्र को अपनाने करने के बाद हुआ है और साथ ही यह सरकार 2015 के संविधान को संशोधित करने में भी सक्षम होगी.

दोनों संसदीय और प्रांतीय परिणाम बताते हैं कि साम्यवादियों पार्टियों ने पूरे देश में ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरी इलाकों तक भारी जीत हासिल की है. हालांकि उन्हें अपने एजेंडे के अनुसार शासन करने के लिए जबरदस्त जनादेश है, लेकिन संभावित प्रधानमंत्री के पी ओली ने बड़ी ही सावधानी बरतते हुए कहा, कि  'हमने अतीत में देखा है कि विजय अक्सर पार्टियों को अक्खड़ बनाने की कोशिश करती है. यह आशंका उत्पन्न होती है कि राज्य दमनकारी हो जाएगा. विजेता अपनी जिम्मेदारी के प्रति उदासीन हो जाते हैं. कम्युनिस्ट सरकार यहाँ ऐसा कुछ नहीं करेगी, ओली ने कहा.

ऐसा क्या था जिससे कम्युनिस्टों को इतनी निर्णायक जीत मिली? शासकिय दल, नेपाली कांग्रेस भ्रष्टाचार के घोटालों, अंदरूनी कलह  और देश के लिए कोई दृष्टि न होने से हार गयी. 2015-16 में, जब भारत सरकार ने सीमावर्ती नेपाल को अपनी सीमा बंद कर दी, तो नेपाली कांग्रेस को भारत की निंदा करने के लिए शब्द ही नहीं मिले. लेकिन कम्युनिस्टों में, विशेष रूप से ओली, आलोचना करने से पीछे नहीं हटे. ऐसा लगा जैसे राष्ट्रवादी संवेदनशीलता कांग्रेस से निकलकर कम्युनिस्टों में घुस गयी. फिर आगे, कांग्रेस ऐसे गठबंधन के साथ चुनावों में सामने आई जिसमें मधेसी पार्टी और राजशाहीवादी पार्टी शामिल थी और वे अल्पसंख्यक आबादी जोकि राजशाही की समर्थक हैं के साथ चुनावों में उतरी. इस गठबंधन में ऐसी कोई बात नहीं थी जो जनता को जीत की अपील कर सकती थी.

दूसरी ओर, कम्युनिस्ट, बहुत ही सरल नारे के साथ लोगों के पास गए थे: "स्थिरता के माध्यम से समृद्धि." चूंकि नेपाल 1990 में राजशाही से उभरा था, इसलिए देश असंख्य मुसीबतों से भरा था. एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली में विफल होने से कम्युनिस्टों के एक बड़े तबके को 1996 से 2006 तक चलने वाले एक दशक से लंबे समय तक की सशस्त्र बगावत करने के लिए मजबूर होना पडा. इस बगावत में 17,000 लोग मारे गए, जो संविधान सभा के माध्यम से शुरू हुई एक नई लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ समाप्त हो गया. राजशाही को 2008 में खत्म कर दिया गया और संविधान सभा ने 2015 के संविधान का मसौदा तैयार किया. फिर भी, सशस्त्र विद्रोह समाप्त हो जाने के बाद के दशक में 10 प्रधानमंत्री रहे हैं और लोगों के लिए कोई ख़ास सामाजिक विकास का रास्ता नहीं खुला. आम लोगों को भ्रष्टाचार और निराशा के अलावा कुछ और नहीं मिला.

नेपाली साम्यवाद दलों - माओवादियों और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड मार्क्सवादी लेनिनिस्ट) ने चुनावों में संयुक रूप से शामिल होने का फैसला किया और ये शपथ ली कि चुनाव के बाद वे संयुक्त दल बनाएंगे. यह दूसरा आह्वान – जिसमें एक नई एकीकृत पार्टी बनाने के लिए कहा गया –चुनावी गठबंधन की तुलना में और भी स्थिरता का वादा करती है. इससे पता चलता है कि कम्युनिस्ट - जो पहले एक दूसरे के दुश्मन थे – को संयुक्त कार्यक्रम पर एक साथ लाया जा सकता है. यदि वे इस एकता को मजबूती से आगे बढ़ा सकते हैं, तो शायद वे अगले पांच साल तक स्थिर सरकार देने में सक्षम होंगे. यह शायद उनके अभियान के बारे में सबसे अधिक आकर्षक नारा था. और इसने मतदान में खूब असर दिखाया.

हिमालय साम्यवाद

1920 के दशक में चीन और भारत में साम्यवादी विचारधारा का आगमन हुआ था, लेकिन नेपाल में ऐसा नहीं हुआ और यह देश  दोनों देशों के बीच सैंडविच बन गया. राजशाही द्वारा कठोर दमन के चलते देश में किसी भी प्रगतिशील आंदोलन को पनपने से रोका. 1940 के दशक तक नेपाल में साम्यवाद की कुछ चर्चा हुयी. 1947 में बिराटनगर जूट और कपड़ा मिलों के श्रमिकों ने एक बड़ी  और बहादुरना हड़ताल की और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं जैसे मनमोहन अधिकारी को दखल कर भारत भेजा गया था. वह वे भारत में नेपाली छात्रों के साथ, इस बात के लिए चिंतित रहे कि नेपाली अभिजात वर्ग – खासतौर पर नेपाल के राणा नेपाल में एक सैन्य अड्डे स्थापित करने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ जुड़ने के लिए तैयार थे. यदि ऐसा हुआ तो यह नेपाल को पश्चिम के खेमे में शामिल कर देगा और अपनी आजादी का भी आत्मसमर्पण कर बैठगा. नेपाल के ये छात्र और कार्यकर्ता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से काफी प्रभावित थे. उनमें से एक, पुष्पा लाल श्रेष्ठ थे जिन्होंने, 1949 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का नेपाली भाषा में अनुवाद किया था. बाद में उसी साल कलकत्ता में (भारत), पुष्पा लाल श्रेष्ठ, अधिकारी और अन्य साथियों ने मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल की स्थापना की.

अपने अस्तित्व के पहले दशक में ही, कम्युनिस्ट पार्टी ने राजशाही के खात्मे को अंजाम दे दिया और एक गणतंत्र की स्थापना की. एक संविधान सभा के निर्माण की भी व्यवस्था की. राजशाही और चुनाव के सवाल पर पार्टी के भीतर गहरे विभाजन ने  पार्टी को दो-फाड़ कर दिया. विभाजन अवश्यम्भावी था. सशस्त्र संघर्ष का मुद्दा 1965 में चौथे कन्वेंशन में चर्चा में आया था. सशस्त्र संघर्ष के प्रश्न ने 2006 तक आंदोलन को विभाजित किये रखा.

2006 के बाद, सशस्त्र संघर्ष बातचीत के पटल पर आ गया. इससे देश को बड़ा नुकशान हुआ. ज्यादातर नेपाली लोगो ने इसे छोड़ दिया हालांकि, उन्होंने बंदूक नहीं थामी थी. इसने राजशाही, सामंती एकाधिकारवाद और पूंजीवादी संपत्ति संबंधों के खिलाफ लोकप्रिय संघर्ष खडा किया. संयुक्त वाम मोर्चा, जिसे 1990 में जन आन्दोलन में लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए बनाया गया था, ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सवादी लेनिनिस्ट), वर्तमान कम्युनिस्ट गठबंधन के मुख्य स्तंभों में से एक बनकर निर्देशित किया. वह लोकतंत्र को बहाल करने की लड़ाई की बड़ी रीढ़ थी.

मौजूदा गठबंधन का दूसरा स्तंभ माओवादी है, जिन्होंने अब संसदीय लोकतंत्र स्वीकार कर लिया है. ये ही दोनों पार्टियां हैं जो नए साल में नेपाल में एकजुट होकर सबसे शक्तिशाली राजनीतिक ताकतें हो जाएंगी.

माओवादी नेता पुष्पा कमल दहल (जिन्हें प्रचंड के नाम से भी जाना जाता है) जीतने के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र चिटवाओं में पहुंचे तो उन्होंने कहा कि, 'सरकार के गठन और पार्टी एकता, दोनों की प्रक्रिया को एक साथ आगे बढ़ेगी'. प्रचंड - माओवादियों की तरफ से - पार्टी के नेता बन जाएगें, जबकि के. पी. ओली - यूएमएल से - प्रधान मंत्री होंगे. नेपाली कम्युनिज्म की व्यापक धारा, जो 1949 में पार्टी के गठन से उभरी, अब एक साथ आ जाएगी.

एजेंडा

नई सरकार का एजेंडा क्या होगा? के.पी. ओली, जो कम्युनिस्ट सरकार के प्रधानमंत्री होंगे, ने कहा है कि उनका मुख्या एजेंडा सरकार की स्थिरता रखना हैं. लेकिन स्थिरता ही पर्याप्त नहीं है. नेपाल अपनी बड़ी गरीबी और उसके बुनियादी ढांचे में घुसी कमजोरी से ग्रस्त हैं. ओली ने कहा है कि वह तिब्बत से नेपाल में एक चीनी रेल रोड सहित, नेपाल के बुनियादी ढांचे के निर्माण में निवेश का स्वागत करेंगे. सनद रहे यह चीन के प्रति झुकाव नहीं है, जैसा कि कुछ लोग अंदाजा लगा सकते हैं, यह नेपाली कम्युनिस्टों की भारत और चीन जोकि स्थानीय अश्वमेघ घोड़े हैं के मध्य में खड़े रहने का सावधानीपूर्वक कदम है – व्यावहारिकता का खेल है, वैचारिक आधार पर चीन के लिए कोई खतरा नहीं है.

नेपाल में सभी दल – राज्शाहिवादियों सहित - अपने देश को 2022 तक कम विकसित देश की स्थिति से आगे बढ़ाना चाहते हैं. लेकिन इन सभी को उस उद्देश्य को पाने का रास्ता इन्हें अलग करता है. कम्युनिस्ट गठबंधन ने वचन दिया है कि वर्तमान में 862 डॉलर प्रति व्यक्ति आय को 5000 डॉलर प्रति व्यक्ति आय करेंगे. प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश की आवश्यकता होती है, साथ ही युवा लोगों के लिए नौकरियों में बढ़ोतरी की आवश्यकता होती है (वर्तमान में 28 लाख में से 20 लाख नेपाली देश के बाहर काम करते हैं).

सवाल उठता है कि सरकार इस सबके लिए संसाधन कहां से लाएगी?  भ्रष्टाचार के अंत से खजाने काफी पैसा बच जाएगा. लेकिन उस से अधिक, टैक्स से इकठ्ठा धन विकास के लिए अधिक कुशल उपयोग प्रदान करेगा. वित्तीय संघवाद वामपंथी एजेंडे का प्रमुख हिस्सा है. उसे उम्मीद है कि वह प्रांतीय और नगरपालिका सरकारों को 50% संसाधनों का वितरण करने में कामयाब रहेगा. आशा करते है कि वे स्थानीय विकास की दिशा में बेहतर धन का उपयोग करेंगे. यह भी सत्य है कि एक स्थिर सरकार क जरिए धन और पर्यटकों को नेपाल में आकर्षित करेगी - और यह धन जैविक कृषि और स्वच्छ ऊर्जा (पनबिजली सहित) को विकसित करने के लिए इस्तेमाल करेगी जो ऊर्जा आयात के बोझ को हल्का करेगी.

ओली ने नेपाली लोगों के जीवन स्तर को बढ़ाने की कोशिश में कम्युनिस्ट गठबंधन में शामिल होने के लिए सभी पार्टियों से कहा है. यह काफी चतुर राजनीति है. इसका मतलब यह होगा कि साम्यवादी एजेंडा राष्ट्रीय एजेंडा बन जाएगा. यह प्रमुख वर्गों और प्रमुख जातियों पर सामाजिक विकास की नीति को स्वीकार करने के लिए दबाव डालेगा. यह नेपाल की बढ़ोतरी में एक छोटा और बढ़ता कदम साबित होगा.

विजय प्रसाद, ट्रिनिटी कॉलेज हार्टफोर्ड, कनेक्टिकट में इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर हैं,  वह अरब स्प्रिंग, लिबियन शीतकालीन (एके प्रेस, 2012), द पोरेर नेशंस: ए पोस्सीबल हिस्ट्री ऑफ द ग्लोबल साउथ (वर्सो, 2013) और द डेथ ऑफ़ ए नेशन एंड द फ्यूचर ऑफ द अरब रिवोल्यूशन सहित 18 पुस्तकों के लेखक हैं. (कैलिफोर्निया प्रेस विश्वविद्यालय, 2016) उनके कॉलम प्रत्येक बुधवार को अलटरनेट पर दिखाई देते हैं.

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