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भारत
राजनीति
कन्नन गोपीनाथन : क्या इस्तीफ़ा दिए बिना भी सरकार की आलोचना का अधिकार है?
आईएएस कन्नन गोपीनाथन के इस्तीफ़े की वजह बहुत हिम्मत देती हैं। लेकिन सवाल भी खड़ा करती हैं कि आखिकरकार ऐसा क्या है कि सिविल सेवक नौकरी में रहते हुए सरकार की आलोचना नहीं कर पाते?  क्या ये नियम की वजह से है या डर की वजह से।
अजय कुमार
27 Aug 2019
kannan gopinathan
Image courtesy: The Asian Age

2012 बैच के सिविल सेवा अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने इस्तीफा दे दिया है। इस्तीफे की वजह यह बताई है कि वे कश्मीर में हो रहे मूल अधिकारों के उल्लंघन को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। कन्नन गोपीनाथन अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अंतर्गत AGMUT ( अरुणाचल, गोवा, मिजोरम यूनियन टेरिटरी) कैडर में कार्यरत थे।

एक इतने बड़े अधिकारी के इस्तीफ़े ने सबको चौंका दिया है। हालांकि कहने वाले कह सकते हैं कि गोपीनाथन अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के पहले दर्जे के अधिकारी नहीं थे, केंद्रशासित प्रदेश वाले सेवाओं की कैटेगरी के अधिकारी थे। निचली रैंक में मिलने वाले पद के अधिकारी थे। लेकिन उन्हें सोचना चाहिए कि आज के ज़माने में कितने प्रशासनिक अधिकारियों ने सरकार की कारगुजारियों का सबसे नजदीक से कच्चा चिट्ठा जानने के बावजूद इस्तीफ़ा दिया है। गिनती के भी लोग नहीं मिलेंगे। इससे यह साफ पता चलता है कि इस पद को हैसियत इतनी दबदबे वाली है कि सरकारी अधिकारी अपने अन्तः करण की आवाज को दबाते हुए बड़े शान से अपनी जिंदगी जीते हैं।

 कन्नन गोपीनाथन ने यह कहते हुए इस्तीफ़ा दिया, "कल अगर कोई मुझसे पूछे कि जिस वक़्त दुनिया का एक बड़ा जनतंत्र एक पूरे राज्य पर पाबंदी लगा रहा था और उसके नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन रहा था, आप क्या कर रहे थे, तब कम से कम मैं कह सकूँ कि मैंने उस राज्य की सेवा से इस्तीफ़ा दिया था। इस सेवा में यह सोचकर आया था कि मैं उनकी आवाज़ बनूँगा जिन्हें चुप करा दिया गया है लेकिन यहाँ तो मैं ख़ुद ही अपनी आवाज़ गँवा बैठा। सवाल यह नहीं कि मैंने इस्तीफ़ा क्यों दिया बल्कि यह है कि मैं इस्तीफ़ा दिए बिना रह कैसे सकता था?”

कन्नन गोपीनाथन की वजह बहुत हिम्मत देती हैं। लेकिन सवाल भी खड़ा करती हैं कि आखिकरकार ऐसा क्या है कि सिविल सेवक सरकार की आलोचना करने से डरते हैं? क्या यह डर हुकूमत ने पैदा किया है या क़ानूनी वजहें उन्हें रोकती हैं या नैतिकताओं और आदर्शों को तुच्छ मानकर चलनी वाली दुनिया का हिस्सा वो भी आसानी से होते जा रहे हैं कि जो चल रहा है,उसी तरह से चला जाए और उसे ही चलने दिया जाए।

संविधान के अनुच्छेद 19 में नागरिकों को मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी का वर्णन है। जिसके तहत भारत के नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है। शांति से हथियारों के बिना सभा करने का अधिकार है। संगम या सहकारी समिति बनाने का अधिकार है। भारत के राज्यक्षेत्र में बिना किसी रोक टोक के घूमने की स्वतंत्रतता हासिल है। भारत के किसी भी भाग में निवास करने और बसने का अधिकार हासिल है। किसी भी तरह के पेशे को अपनाने का अधिकार है। इसके बाद इसी अनुच्छेद में यह भी व्याख्या की गयी है कि कब इन अधिकारों में कटौती की जा सकती है।

भारत की सुरक्षा और सम्प्रभुता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, लोक व्यवस्था, विदेशी राज्यों के मैत्री सम्बन्ध, शिष्टचार और सदाचार, अपराध को उकसावा देने वाले व्यवहार के आधार पर  अभिव्यक्ति की आजादी को कम किया जा सकता है। इसके साथ यह भी शर्त है कि अधिकारों में कटौती करने का आधार उचित होना चाहिए। और 'उचित' शब्द की व्याख्या भी अमुक समय की परिस्थितयों को ध्यान में रखकर की जाएगी। संविधान की भाषा में कहे तो अधिकारों की कटौती के आधार युक्तियुक्त होने चाहिए। कहने का मतलब है कि सरकार की नीतियों का गहरी से गहरी आलोचना का अधिकार भारत के हर एक नागरिक को हासिल है।  इसमें अगर कटौती होती है तो इसका सीधा अर्थ है की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी जा रही है।

इसी संदर्भ के मद्देनजर सिविल सेवकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की व्याख्या करने वाले अनुच्छेद 309 को भी पढ़ने की जरूरत है। अनुच्छेद 309 कहता है लोक सेवकों की भर्ती और सेवा शर्तों को इस मकसद से बनाये गए विधान से रेगुलेट किया जाएगा। इसी के तहत केंद्रीय सिविल सेवा आचरण नियम, 1964 [CCS(conduct) rules,1964] को बनाया गया है। जिसमें यह उल्लेख है कि कोई सिविल सेवक क्या कर सकता है और क्या नहीं? इसका नियम 9 कहता है कि लोक सेवक का तथ्य या मत, जो केंद्र सरकार या राज्य सरकार की किसी प्रचलित नीति या नई नीति या किसी  कार्यवाही की प्रतिकूल आलोचना का प्रभाव रखता है, उस पर प्रतिबंध है। यह पूरी से लोक सेवक के मौलिक अधिकार को कम करता है। चूँकि यह नियम अंग्रेजों के समय के बने हैं। इसलिए इसमें इस तरह के प्रावधन मौजूद हैं।

फिर भी, इस पर साल 1962 में उच्चतम न्यायलय का फैसला भी आ चुका है। साल 1962 में कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य में यह फैसला दिया था कि एक लोकसेवक का पद हासिल करने से कोई अपने मौलिक अधिकारों का त्याग नहीं कर देता। अनुच्छेद 19 के तहत लोक सेवक को भी भारत के नागरिको के बराबर ही अधिकार हासिल है। फिर से साल 2014 में विजयशंकर पांडेय बनाम भारत संघवाद में भी सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि लोकसेवक बन जाने के बाद मौलिक अधिकार कम नहीं हो जाते।

सरकार द्वारा लोकसेवकों के अनुशासन को सुनिश्चित करने के लिए बार-बार अनुच्छेद 19 में लिखी बात 'लोकव्यवस्था' का उल्लेख किया जाता है। उन्हें लोक व्यवस्था कार्यवाहक बताकर अनुशासित रहने के लिए कहा जाता है।  इस पर साल 1960 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय कारगार बनाम राम मनिहार लोहिया में फैसला दिया था कि लोक - व्यवस्था लोक सुरक्षा और शांति का पर्यावाची है, जिसका अर्थ अव्यवस्था की गैरमौजूदगी है। इस तरह से लोक सेवक का कोई भी विचार अगर समाज में उत्तेजना के स्तर को पार नहीं करता है तो वह लोकव्यवस्था के खिलाफ नहीं है।

इस तरह से यह बात पूरी तरह से साफ है कि जो लोग कहते हैं कि सरकारी लोगों को सरकार या सिस्टम के खिलाफ बात नहीं करनी चाहिए, उन्हें सरकारी नियमों में बंधकर रहना चाहिए, वह नियमों को नहीं जानते हैं। वह अब भी समाज के उस हिस्से का प्रतिनिधत्व करते हैं, जिसका मानना है कि सरकार हम पर हुकूमत करती है, उसके खिलाफ नौकरशाहों को नहीं जाना चाहिए।

इस विषय पर पूर्व सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने कहा कि सरकार के कदम की आलोचना की जा सकती है। ऐसा करने का अधिकार है, लेकिन भाषा मर्यादित होनी चाहिए। अंग्रेजों के जमाने के रूल्स ऑफ़ कंडक्ट पर बहुत सारे बदलाव भी हो चुके हैं। मुझे याद नहीं है लेकिन इसपर सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी आए हैं। (इनका जिक्र ऊपर किया गया है)।

जब वजाहत हबीबुल्लाह से यह सवाल किया कि हमारे आम जनमानस में रूल्स ऑफ़ कंडक्ट को लेकर जिस तरह का पूर्वाग्रह है, क्या उसी तरह का पूर्वाग्रह सरकारी नौकरशाहों के बीच भी है क्या? तो इस पर उनका जवाब था कि सरकारी अफसर होने के नाते सरकार की बातों को मानने का भय तो होता ही है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी सिविल सेवक रूल्स ऑफ़ कंडक्ट से अनभिज्ञ होते हैं। बहुत लोग इन रूल्स ऑफ़ कंडक्ट में फंसना नहीं चाहते हैं।

इसलिए इसकी ऊपरी तौर पर जानकरी रखते हैं। फिर भी मुझे लगता है कि बहुतों को इस की जानकारी रहती है लेकिन यह सबका अपना निर्णय होता है कि वह किस तरह के फैसले ले। जहां तक कन्नन गोपीनाथन का की बात है तो मुझे लगता है कि उनको भी इसकी जानकरी होगी लेकिन उन्हें इस्तीफा देना सही लगा।  उन्हें लगा कि वह ऐसा सरकार के अधीन रहकर अपनी आवाज नहीं उठा सकते हैं। इसलिए उन्होंने इस्तीफा दिया।

इस सवाल कि जितने नैतिक द्वंदों का सामना एक सरकारी अफसर को करना पड़ता है उतना किसी और को नहीं। वह हर रोज अपने सरकारी आकाओं, वरिष्ठ अधिकारीयों और अपने से नीचे  अधिकारियों से प्रतियोगिता करते हुए फैसले लेता रहता है, जिसका प्रभाव एक व्यक्ति पर नहीं पूरे जनसमुदाय पर पड़ता है। ऐसे में बहुत सारे समझौते करना उसकी मजबूरी होती होगी। इस पर वजाहत हबीबुल्लाह ने जवाब दिया, "मैं सिविल सेवा को बहुत सम्मान के साथ देखता हूँ।

आपकी बात सही है कि उसे नैतिक द्वंदों का बहुत अधिक समाना करना पड़ता है। इसी में वह अपना रास्ता निकालता है। मैं शायद इस्तीफ़ा देने जैसा कदम नहीं उठा पाता लेकिन गोपीनाथन के कदम का सम्मान करता हूं। सब अपने  नजरिये से जीते हैं। देश सेवा में सरकारी बातों के मानने साथ और भी बहुत कुछ शामिल है। इसके तहत सरकार से अलग जाकर भी खड़ा हुआ जा सकता है। गोपीनाथन ने यही किया।"

'द वायर' को अपने इस्तीफे पर दिए गए इंटरव्यू में कन्नन गोपीनाथन ने कहा कि यह बिल्कुल इमोशनल फैसला है। जो सिद्धांत हमारे दिल दिमाग पर हावी रहते है, उसके प्रति हमारा कुछ ख़ास लगाव होता है। मेरा भी 'फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन' से बहुत अधिक लगाव है। इसी आधार पर मैंने दिल से यह निर्णय लिया है। एक चुनी हुई सरकार को अपनी जनता के लिए कुछ भी फैसले लेने का हक़ है लेकिन जनता को भी उस फैसले पर सवाल उठाने का हक़ है। जब उसके इस हक़ को छीना जाता है तो उस समय हम लोकतंत्र को मार रहे होते हैं। मैंने अपने सात साल के कैरियर में इस नौकरी से बहुत कुछ सीखा है और इसके प्रति सम्मान भी रखता हूँ।

मैं अब भी कहूंगा कि लोकसेवा करने का जितना अधिक मौका एक लोकसेवक को मिलता है, उतना किसी दूसरे नौकरी में नहीं मिलेगा। मैं यह भी जानता हूँ कि आगे आने वाले दिनों में मुझे इससे कमतर काम करने पड़ेंगे। अपनी जिंदगी में मैं कई बार सोचूंगा कि मैंने इस्तीफ़ा क्यों दे दिया। मैं आज सरकार के बड़े पद रहता और जनसेवा कर रहा होता। लेकिन जब इन सबकी तुलना मैं कश्मीर के सम्बन्ध में एक सरकारी लोकसेवक की तरफ से बोलने से करता हूँ तो मैं यह पाता हूँ कि जितनी बड़ी आवाज मैं केवल एक दो दिनों में बन गया हूँ। उतनी बड़ी आवाज मैं पूरी जिंदगी नहीं बन पाता। मुझे लगता हैं कि मैं सफल हुआ हूँ।

लेकिन गोपीनाथन के इस्तीफ़े से यह बात तो साफ है कि हमारे सरकारी अधिकारियों के बीच सरकार के क़दमों की सकारात्मक आलोचना करने वाला माहौल नहीं है। अगर होता तो कन्नन गोपीनाथन अपनी अभिव्यक्ति की स्वंत्रतता को दबा हुआ महसूस नहीं करते। इस्तीफ़े तक जाने की नौबत नहीं आती। इस तरह से सिस्टम में ऐसी आवाज को बनाये रखने का माहौल सिस्टम के लोग ही पैदा कर सकते हैं। अगर किसी सरकारी अधिकारी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मर रही है तो इसे बचाने की ज़िम्मेदारी भी सरकारी अधिकारियों और सरकार की है। 

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