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अर्थव्यवस्था
कर राजस्व में धीमी वृद्धि
अप्रत्यक्ष कर राजस्व(टैक्स रिवेन्यू) में धीमी वृद्धि हो रही है और मंदी की तरफ़ बढ़ रही अर्थव्यवस्था से बचने के लिए, सरकारी ख़र्चों को बढ़ाना होगा, ख़ासकर सरकारी कल्याणकारी ख़र्च में बढ़ोतरी करना अत्यंत आवश्यक है।
प्रभात पटनायक
09 Jul 2019
Translated by महेश कुमार
tax revenue

पिछले दो वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा लगातार इकट्ठे किए गए कर राजस्व में वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से काफ़ी कम हुई है। केंद्र में कुल इकट्ठे हुए कर राजस्व में वृद्धि (इसके पिछले वर्ष की तुलना में) 2016-17 में 17 प्रतिशत थी; यह 2017-18 में 11 प्रतिशत और 2018-19 में मात्र 8 प्रतिशत तक रह गई। चूँकि इस किस्म की बढ़ोतरी नाममात्र है, इसलिए देखा जाए तो वास्तविक विकास काफ़ी धीमा रहा है। इसका मतलब साफ़ है कि वर्ष 2018-19 में वास्तविक कर राजस्व में वृद्धि पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 3 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है, जो कि देश की वास्तविक जीडीपी में वृद्धि से बहुत कम है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सकल घरेलू उत्पाद के कर राजस्व का अनुपात काफ़ी समय से नीचे आ रहा है।

कर राजस्व वृद्धि की इस धीमी गति का कारण केंद्र द्वारा जीएसटी निज़ाम में किया गया बदलाव है। यह नोट करना चाहिए कि अप्रत्यक्ष कर राजस्व के मामले में कर राजस्व वृद्धि की वास्तविक गति काफ़ी धीमी हो गई है। प्रत्यक्ष करों का जीडीपी अनुपात के मामले में राजस्व कम या ज़्यादा स्थिर रहा है; यह अप्रत्यक्ष कर राजस्व है जो जीडीपी के मुक़ाबले गिर गया है। वर्ष 2016-17 में केंद्र को मिलने वाले अप्रत्यक्ष कर राजस्व में वृद्धि 20 प्रतिशत से अधिक की थी। जीएसटी निज़ाम के लागू होने के बाद 2017-18 में यह घटकर 6.3 प्रतिशत पर रह गया था, और आगे चलकर 2018-19 में पूरी तरह से ढह कृ 2.7 प्रतिशत पर आ गया। वास्तविक तौर पर जीएसटी से कर राजस्व 2018-19 में कम होना चाहिए।

संक्षेप में कहा जाए तो, जीएसटी निज़ाम केंद्र सरकार के लिए कर राजस्व की धीमी गति की वृद्धि के लिए मुख्य दोषी है। इसे लागू करने की शुरुआत में यह सोचा गया था कि यह धीमी गति जीएसटी के नए निज़ाम को लागू करने के कारण थी; और जब वित्त वर्ष 2019-20 के पहले के कुछ महीनों में कुल जीएसटी राजस्व (सब मिलाकर जो राज्यों के पास आया) प्रति माह 1 लाख करोड़ रुपये को पार कर गया था, तो आधिकारिक हलकों में ख़ुशी की लहर थी कि ये "शुरुआती परेशानियां" अब ख़त्म हो गई हैं, और उन्होंने माना कि इसके बाद, जीएसटी राजस्व में वृद्धि मज़बूत होगी। हालांकि अब यह पता चला है कि जून 2019 में, जिस महीने का डेटा हमारे पास मौजूद है, उसमें कुल जीएसटी राजस्व संग्रह फिर से 1 लाख करोड़ रुपये से कम हो गया है, जिसने सभी पुरानी आशंकाओं को पुनर्जीवित कर दिया है।

निश्चित रूप से इस बात का पता लगाना मुश्किल है कि अप्रत्यक्ष कर राजस्व वृद्धि में कितनी मंदी आई है क्योंकि अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो गई है क्योंकि जीएसटी निज़ाम में ख़ुद को स्थानांतरित करने के कारण कितना नुकसान है। लेकिन अर्थव्यवस्था के धीमे होने से, ऐसा कोई कारण मौजूद नहीं है कि अप्रत्यक्ष कर राजस्व जीडीपी की तुलना में धीमा होना चाहिए; तथ्य यह है कि जीएसटी राजस्व में मामूली रूप से केवल 2.7 प्रतिशत की वृद्धि से, यह स्पष्ट है कि हम सुस्त जीएसटी राजस्व वृद्धि को स्पष्ट करने के लिए मंदी के तर्क पर वापस नहीं आ सकते हैं; इससे साफ़ है कि जी.एस.टी. निज़ाम में ही कुछ स्पष्ट रूप से ग़लत है।

यह याद किया जा सकता है कि जीएसटी निज़ाम, छोटे उत्पादन क्षेत्र पर भारी पड़ रहा है। न केवल ऐसी कई इकाइयाँ थीं, जिन्होंने अतीत में कभी भी कोई कर नहीं चुकाया था, अब वे कर भुगतान के दायरे में आ गईं हैं, लेकिन उन्हें भी कर रिटर्न दाख़िल करना था, और रिफ़ंड का दावा करने के लिए सावधानीपूर्वक खातों को बनाए रखना था, जिसके लिए उन्हें महंगे लेखाकारों को नियुक्त करना था। 

वास्तव में यहाँ "अविभाज्यता" का एक तत्व मौजूद है। चूंकि रिटर्न भरने की लागत व्यवसाय के आकार के अनुपात में नहीं बढ़ती है, इसलिए बड़ी कंपनियां इस संबंध में "बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं" का आनंद उठाती हैं, जबकि छोटी फ़र्मों के लिए इस तरह का बोझ समान रूप से बड़ा होता है। इसकी वजह से कई छोटी फ़र्मों, या छोटे उत्पादन वाले क्षेत्र से संबंधित इकाइयों को एक बहुत बड़ा बोझ सहन करना पड़ता है, जिसने उनके अस्तित्व को और अधिक अनिश्चित बना दिया है।

सरकार के इस क़दम को उचित ठहराने की कोशिश की गई है, उस समय जब जीएसटी को इस तर्क के साथ पेश किया गया था कि इससे कर अदायगी अनुपात बढ़ेगा और सरकारी खज़ाने को बड़ा राजस्व मिलेगा। हालांकि अब यह पता चला है कि छोटे उत्पादन का क्षेत्र सिकुड़ रहा है, और छोटी फर्मो के इस तरह के निचोड़ के चलते राजस्व संग्रह कम हो रहा है। वास्तव में, दूसरे शब्दों में कहे तो, बड़े व्यवसाय ने जीएसटी निज़ाम से अच्छा फ़ायदा उठाया है: क्योंकि टर्नओवर के अनुपात में इनका कर का बोझ पहले के मुकाबले कम हो गया है। इस तथ्य से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जीएसटी के दायरे में आने वाली इकाइयों की संख्या के मामले में कर आधार व्यापक तो हो गया है, लेकिन जीएसटी राजस्व पहले के अप्रत्यक्ष कर राजस्व की तुलना में जीडीपी के संबंध में काफ़ी कम है।

चूंकि केंद्र और राज्यों का जीएसटी राजस्व आपस में जुड़ा हुआ है, इसका स्पष्ट मतलब है कि राज्यों का जीएसटी राजस्व भी काफ़ी नीचे चला गया है। जीएसटी निज़ाम ने न केवल राज्यों के अधिकारों का हनन किया है; बल्कि इसने राज्यों को एक कठिन वित्तीय संकट में भी डाल दिया है। सच यह है, कि वस्तुओं की एक छोटी सी सूची है जो जीएसटी के दायरे से बाहर हैं जिनके ज़रिये राज्य बड़े राजस्व प्राप्त कर सकते हैं; लेकिन जीएसटी के मामले में राज्यों को कम पैसा मिला है।

जीएसटी राजस्व में धीमी वृद्धि का अर्थ है कि केंद्रीय बजट के अनुमानों के मुक़ाबले राजस्व में बड़ी कमी आई है। वास्तव में 2018-19 में बजट अनुमानों की तुलना में जो कमी है वह 1, 6 लाख करोड़ रुपये की राशि की है; और 2019-20 में, जब मूल रूप से यह माना गया था कि जीएसटी राजस्व में अंतरिम बजट की परिकल्पना के अनुसार बढ़ोतरी होगी, यह अब अनुमानित ही लगता है, जिसका वास्तविकता कोई लेना-देना नहीं है।

जीएसटी निज़ाम में बदलाव के कारण राजस्व वृद्धि में मंदी के साथ-साथ, अतिरिक्त मंदी, आर्थिक गतिविधि में सुस्ती के कारण भी रही है। अगर सरकार ख़र्च को कम करके इस स्थिति में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को कम या ज़्यादा रखती है, तो यह केवल आर्थिक गतिविधियों को सुस्त बनाएगा। दूसरी ओर यदि केंद्र आर्थिक गतिविधि को सहायता प्रदान करने के लिए अपने ख़र्च को बनाए रखता है, तो यह केवल 2019-20 के अंतरिम बजट में परिकल्पित किए गए वित्तीय घाटे को और बढ़ाएगा।

राजकोषीय घाटे में वृद्धि के बारे में बुर्जुआ अर्थशास्त्र जो कहता है वह समस्या नहीं है। यह विचार कि राजकोषीय घाटा मुद्रास्फ़ीति का कारण बनता है, इस धारणा पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था पूरी क्षमता से काम कर रही है ताकि आपूर्ति में वृद्धि न हो सके। ज़ाहिर है कि वर्तमान में भारत में ऐसी स्थिति नहीं है और शायद ही किसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ऐसी स्थिति होगी। राजकोषीय घाटे के साथ वास्तविक समस्या यह है कि यह बिना किसी तुक या कारण के निजी संपत्ति के बराबर के निर्माण की तरफ़ बढ़ता है, अर्थात, निजी धन-धारकों द्वारा इसे कमाने के लिए बिना कुछ किए इसे अर्जित करता है (यहाँ तक कि बुर्जुआ विचार के सिद्धांत द्वारा भी)।

यह एक ग़लतफ़हमी है कि एक राजकोषीय घाटा निजी क्षेत्र से उधार लेने के लिए बचत के भंडार से होकर गुज़रता है जिसे उसने पहले हासिल कर लिया होता है; वास्तव में, हालांकि, इस राजकोषीय घाटे को निजी हाथों में डाल देता है, निजी क्षेत्र जो इसके बारे में कुछ नहीं जानता है, सरकार इनसे क्या उधार लेती है।

इसे जिस प्रकार अंजाम दिया जाता है वह इस प्रकार है: राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था में मांग को उत्पन्न करता है जो उत्पादन बढ़ाता है और इसलिए निजी हाथों में लाभ पहुंचता है, जिसका एक हिस्सा बचाया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक कि (मान लें कि कोई विदेशी लेन-देन नहीं हुआ है) निजी हाथों द्वारा की गई बचत राजकोषीय घाटे के बराबर नहीं हो जाती है। ये बचत निजी धन में जुड़ती है। इसलिए राजकोषीय घाटा निजी धन में जुड़ जाता है।

अगर निजी धन में इस बढ़ोतरी को कम करना है तो निजी लाभ पर कर या फिर इससे भी बेहतर, निजी धन पर लगने वाले कर का इस्तेमाल सरकारी ख़र्चों के लिए किया जाना चाहिए। चूँकि केंद्र सरकार का बजट कुछ दिनों के अंतराल में पेश किया जाना है, इसलिए यह याद रखने लायक बात है।

अप्रत्यक्ष कर राजस्व में धीमी वृद्धि चल रही है और अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है, तो सरकारी ख़र्चों को बढ़ाना होगा, विशेष रूप से सरकारी कल्याणकारी ख़र्च का बढ़ना तो बेहद ज़रूरी है। और ऐसा करने के लिए, राजकोषीय घाटे को नहीं, बल्कि यह वेल्थ टैक्स है, जो संसाधनों को बढ़ाने का सबसे अच्छा रास्ता और तरीक़ा प्रदान करता है। निश्चित रूप से वेल्थ टैक्स को विरासत कर के साथ जोड़ा जाना चाहिए, इसलिए धन-धारकों को अन्यथा वेल्थ टैक्स से बचने के लिए अपनी संपत्ति को पूर्वजों या सगे संबंधियो के बीच विभाजित करना होगा।
 

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