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राजनीति
कर्नाटक : आख़िरी पल तक संस्पेंस की वजह?
कर्नाटक विधानसभा में संख्या एकदम साफ़ थी। राजनीति से अनजान व्यक्ति भी आसानी से कह सकता था कि गलत और असंवैधानिक तरीके से बनाई गयी सरकार है, बहुमत साबित नहीं कर पाएगी, जाएगी।
बादल सरोज
21 May 2018
Karnataka Elections

कर्नाटक विधानसभा में संख्या एकदम साफ़ थी।  राजनीति से अनजान व्यक्ति भी आसानी से कह सकता था कि गलत और असंवैधानिक तरीके से बनाई गयी सरकार है, बहुमत साबित नहीं कर पाएगी, जाएगी। फिर शनिवार को आख़िरी वक़्त तक इतना सस्पेंस क्यूँ था? 

यह सस्पेंस इसलिये था क्योंकि सभी को पक्की आशंका थी कुछ विधायकों के बिकने की और जबरदस्त विश्वास था उन्हें खरीदने वालों की खरीदी-क्षमता पर, था न ? 

असली समस्या यह है।  समस्या किसी तिरपट नेता की कोई चिरकुट पार्टी भर नहीं हैं, समस्या यह है। समस्या है संसदीय राजनीति का मछलीबाजार और विधायकों का रोहू, कतला, हिल्सा मछलियों की छोटी बड़ी टोकनी बन जाना । यह खतरनाक सिंड्रोम है - इसे धिक्कारा, दुत्कारा और अस्वीकारा नहीं गया तो आज ख़रीददार बेल्लारी के रेड्डी बंधू है, किसी रिसोर्ट का कोई सोम-मंगल-बुध है, कल थैलियां किसी अमरीकन कारपोरेट की होंगी ।  जिन्हें बिकना है वे उनसे पैसा लेकर बिकेंगे और जिन्हें इस खुल्लमखुला धतकरम  को चाणक्य सी चतुराई बताना है वे उनसे पैसा लेकर ऐसा लिखेंगे और दिखाएँगे ।

यह आशंका भर नहीं है, इतिहास में ऐसा हुआ है । ऐसा दुनिया के अनेक देशों में हुआ है । सीआईए के किसी भी पूर्व वरिष्ठ जासूस की एक भी किताब उठाकर देख लें । (ऐसी बीसियों किताबें हैं) । कई देशों की -खुद अपने यूएसए सहित - सत्ता उलटने के सचित्र ब्यौरे मिल जायेंगे । इस लिहाज से वह प्रवृत्ति अतिरिक्त चिंता का कारण है। 

पूँजी छप्परतोड़-खदानफोड़-बैंकनिचोड़ कमाई की लालसा में मतवाली हो जाती है । इसके लिए उसे मुनाफे की एटीएम पर सत्ता के रूप में अपना वफादार चौकीदार चाहिए होता है । वह सारे मुखौटे नकाब उतार कर बाजार में उतरती है । मतदाता, घोषणापत्र, विचारधारा, आर्टी-पार्टी नेपथ्य में चली जाती है।  सूत्रधार खुद मंच पर आ जाता है और खलनायकों के नायकत्व की तैयारी शुरू हो जाती है।  निर्वाचित जनप्रतिनिधियो के मन में राष्ट्र सेवा की भावना हिलोरें मारने लगती है और  "राष्ट्र" को बचाने के लिए दल छोड़ने-सीट छोड़ने-बिकने की कुर्बानी देने को तैयार हो जाते हैं । संविधान, ताक पर रखा धूल खाता रह जाता है  !! बचता है सिर्फ एक ब्रम्ह वाक्य ; आरमः दक्षः - कुर्सी हमारा लक्षः । 

समस्या यह भी हैं : और यह कुछ ज्यादा ही गम्भीर तथा सांघातिक है ; कि इन बाजारियों ने ऐसी "जनता" भी तैयार कर ली है जो इसे उचित और सही मानती है । भ्रष्टाचार को कौशल और ईमान बेचने को समझदारी मानने लगती है । यह खायी, पीयी, अघाई और अक्सर द्विजत्व से भरमाई "जनता" खुद को ओपिनियन-मेकर मानती है।  हाल के वर्षों में इस की आबादी बढ़ी है - इनमे से ज्यादातर किसी न किसी स्तर पर ट्रिकलिंग इफ़ेक्ट से तर हैं।  काली कमाई की गाढ़ी मलाई या उसकी जूठन और पतली लीद में साझेदार हैं ।

कुल मिलाकर यह कि संकटों में घिरे शासकों ने खुद की सलामती के लिए वास्तविक और आभासीय, वस्तुगत और मनोगत दोनों ही तरह की परिस्थितियां बना ली है।  लोकतंत्र का परिधान उनके हाथों से फिसलने लगा है, उनकी नग्नता को उघाड़ कर दिखाने लगा है।  वे इसे त्यागने को आतुर हैं किन्तु उसके पहले वे नग्नता को जीवनमूल्य के रूप में स्थापित कर देना चाहते हैं। 

यह अचानक अनायास नहीं हुआ है।  संविधान निर्माताओं को इसकी पक्की आशंका थी। नव-लिखित संविधान पर हस्ताक्षर करने के लिए 25 नवम्बर 1949 को इकट्ठा हुए संविधान सभा के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने साफ़ कहा था कि "संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा। " उन्होने संवैधानिक लोकतंत्र को बचाने और तानाशाही से बचने के लिए तीन चेतावनी दी थीं ; एक ; आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीको पर ही चलना।  दो; अपनी शक्तियां  किसी व्यक्ति - भले वह कितना ही महान क्यों न हो - के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे।  राजनीति में भक्ति या व्यक्तिपूजा  संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है। 

डॉ. अम्बेडकर की तीसरी चेतावनी और भी सारगर्भित थी।  उन्होंने कहा कि "हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया - मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी) , दूसरी  भ्रातृत्व (फ्रेटर्निटी) " उन्होंने चेताया था कि "यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।"

डॉ. अम्बेडकर सही थे। सामाजिक लोकतंत्र तो दूर रहा इस समाज के परिवार में भी लोकतंत्र नहीं है। ऐसी दशा में यदि कुछ लोगों के मन में कर्नाटक जैसे नाटक विद्रूप नहीं लगते - जुगुप्सा नहीं जगाते तो अजीब बात नहीं है।  यह उनके भीतर का भाव है जो सामाजिक के साथ साथ राजनीतिक मसलों पर भी उनके रवैय्ये को तय करता है। 

खैरियत की बात है कि , कमसेकम फिलहाल, सब कुछ खत्म नहीं हुआ है । बहुतायत भारतीय और वाम-वामोन्मुखी ताकतें-व्यक्ति-संस्थाएं अभी इस खायी - पीयी -अघायी व्याधि से बची हैं । इसलिए अभी भी पलटी जा सकती है शकुनि की बिसात । पलटी जायेगी ही, क्योंकि अँधेरे कभी सही विकल्प नहीं होते। 

karnataka
Karnataka Assembly
Karnataka Assembly Elections 2018
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