NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
कर्नाटक चुनाव में लिंगयतों और हिंदू मठों का प्रभाव
“मठ पूरी तरह चुनाव को प्रभावित नहीं करते हैं”

विवान एबन
04 Apr 2018
कर्नाटका

12 मई को होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में कर्नाटक के चार मठों के संत बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने को इच्छुक हैं। इकॉनोमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ उडुपी के शिरूर मठ के लक्ष्मीवरा तीर्थ स्वामी, धारवाड़ के बसवनंद के श्री गुरु बसावा महामन, श्री शिव शरण मदारा गुरू पीठ के मदारा चेन्ना्या स्वामी और मैंगलुरू के नज़दीक विज्रादेह मठ के राजशेखर नंद स्वामी बीजेपी से नामांकन के लिए इच्छुक हैं।

उत्तर प्रदेश के बाद कर्नाटक विधानसभा चुनाव में संतों के उम्मीदवार होने का साक्षी बनेगा। कर्नाटक में मठों की परंपरा काफी पुरानी है और वहां लगभग सभी जातियों का अपना मठ होता है जो चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के लिए राजनीतिक हथियार साबित होता है। बीजेपी के नेता और राज्य में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बीएस येदूरप्पा अपने चुनाव प्रचार में लगातार प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं। बढ़ते विरोध को देखते हुए ऐसा लगता है कि बीजेपी ने मठ और संतों की तरफ अपना रूख बड़ी संख्या में वोटरों तक अपना पहुंच बनाने के लिए किया है। रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य में बीजेपी अब संतों को इस चुनाव में उम्मीदवार बनाकर हिंदू वोट बैंक को मज़बूत करना चाहती है। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस लिंगायत मठ के संतों को अपनी पार्टी की तरफ से मैदान में उतारने के लिए उनसे संपर्क कर सकती है।

राज्य के राजनीति में इन मठों का क्या हित है? क्या वे मतदान और चुनाव परिणाम को प्रभावित करते हैं? ऐसे प्रश्नों के जवाब की कोई कल्पना नहीं कर सकता है।

उडुपी के आठ मठों में से एक शिरूर मठ है। इस मठ के लक्ष्मीवरा तीर्थ स्वामी चुनाव लड़ने को इच्छुक हैं। स्वामी सीधे तौर पर राजनीति में शामिल होने वाले इन आठ मठों में से पहले संत बन गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ उन्होंने कहा कि "जैसा कि मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन में खड़ा हूं तो साफ है कि मैं बीजेपी का आदमी हूं। बीजेपी अगर मुझे मौक़ा देती है तो यह बेहतर होगा, अन्यथा मैं एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने का पूरा यकीन रखता हूं।"

न्यूज़़क्लिक से बात करते हुए लडई प्रकाशन के प्रकाशक बासवराज सुलिभवी ने संघ परिवार और बीजेपी के साथ आठ मठों के संबंध को इस तरह बतायाः

"इन मठों का हमेशा आपस में आंतरिक विवाद रहा है। उदाहरण स्वरूप पेजावर मठ का सभी आठ मठों के साथ अच्छे संबंध नहीं है। ये मठ विशेष रूप से पेजावर मठ संघ परिवार और उनके संगठनों के साथ मिलकर काम करता रहा है; इस प्रकार संघ परिवार और बीजेपी आठ मठों के ब्राह्मण अनुयायियों को प्रभावित करता रहा है; लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि ये मठ मतदाताओं पर प्रभाव डालते हैं। करवाली क्षेत्र उनकी सांप्रदायिक राजनीति का क्षेत्र रहा है। हमें एक बात याद रखनी चाहिए कि मठों के बीच हुए सभी संघर्ष और उनकी राजनीति में भागीदारी धर्मिक या आध्यात्मिक कारणों से नहीं बल्कि केवल आर्थिक कारणों से ही है। ये मठ अपने विशाल धन पर अपना स्वामित्व स्थापित करना चाहते हैं और वे इसे हासिल करने के एक तरीके के रूप में राजनीति में अपनी भागीदारी तलाशते हैं। शिरूर मठ के लक्ष्मीवरा तीर्थ स्वामी के निर्णय को इस पृष्ठभूमि के विपरीत देखा जाना चाहिए। चूंकि शिरूर मठ और इन संतों का पेजावर मठ से संघर्ष रहा है। इसके स्वामी सामने आए हैं और घोषणा किया है कि वह ये चुनाव लड़ रहे हैं।"

इन मठों के बीच के संघर्ष को जो सुलिभवी ने कहा उसे स्वामी ने ने खुद भी कहा है। उन्होंने कहा कि "अगर मैं एक स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर खड़ा होता हूं तो बीजेपी का वोट बिखर जाएगा और कांग्रेस को फ़ायदा होगा। मेरी लड़ाई उडुपी के बीजेपी इकाई के ख़िलाफ़ है।" रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी को उनकी उम्मीदवारी पर पूरा यकीन नहीं है।

अन्य तीन संतों के निर्णय के बारे में बताते हुए सुलिभवी ने कहा:

"यह कोई पहला मौक़ा नहीं है जब संतों से राजनीतिक दलों द्वारा संपर्क किया गया है; और यह निश्चित रूप से यह पहला मौक़ा नहीं है जब मठ पार्टियों का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन हमें जो याद रखना चाहिए वह यह कि 2013 के चुनावों में बीजेपी को नुकसान हुआ था। साल 2008 में येदूरप्पा को मठों द्वारा खुले तौर पर समर्थन किया गया था और जीतने पर उन्होंने इन मठों को हजारों करोड़ रूपए का दान दिया था। फिर भी बीजेपी 2013 चुनाव जीतने में सक्षम नहीं था। इससे हमें चुनाव में मठों के प्रभाव को लेकर संदेह होता है।"

सुलिभवी के अनुसार अल्पसंख्यक धर्म की स्थिति के मुद्दे पर बीजेपी पहले से ही लिंगायत मठों का समर्थन खो चुकी है। लिंगायत समुदाय बीएस येदूरप्पा का प्रमुख मतदाता था। सिद्धारामिया सरकार द्वारा लिंगायत के लिए अल्पसंख्यक धर्म के दर्जा की मांग स्वीकार करने के बाद येदूरप्पा को मुश्किल में डाल दिया है,जहां लिंगायत की मांग को स्वीकार करना हिंदुत्व के एजेंडे से विश्वासघात करने जैसा होगा, जबकि ऐसा नहीं करने पर उन्हें नुकसान हो सकता है। कांग्रेस के इस क़दम ने उसके लिए लिंगायत मठों का समर्थन हासिल कर लिया है।

लाइवमिंट में एक रिपोर्ट जिसका शीर्षक ‘why Mathas are so important in Karnataka politics’ (कर्नाटक की राजनीति में मठ इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं) में राज्य के चुनावों में मठों के प्रभाव और उनके इतिहास के बारे में बताया गया है। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के राजनीतिक विश्लेषक, समाजशास्त्री चन्दन गौड़ा ने रिपोर्ट में कहा है कि "किसी भी जाति या उप-जाति के लिए, उनके खुद का मठ महत्वपूर्ण हो गया है- जो कि कर्नाटक मॉडल है। इसलिए यदि आपकी कोई जाति हैं और आपका कोई मठ नहीं है तो आप यहां कुछ अधूरा-सा महसूस करते हैं। "

इस 'कर्नाटक मॉडल' के बारे में बात करते हुए सुलिभवी ने कहा, "मठ चुनावों को प्रभावित करते हैं, लेकिन वे एकमात्र प्रभावशाली कारक नहीं हैं। उनका प्रभाव बहुत सीमित है। ये मठ विशेष पार्टी के विशेष नेताओं का समर्थन कर सकते हैं, लेकिन अपने अनुयायियों को इन नेताओं के लिए वोट करने के लिए मजबूर नहीं करते हैं। ये अनुयायी, ठीक अन्य राज्य की तरह, चुनाव में भ्रष्टाचार, नीतियों, प्रचार आदि जैसे राजनीतिक परिदृश्य पर विचार करतें हैं।

लिंगायत
बीजेपी
कर्नाटका चुनाव
कर्नाटका
कांग्रेस

Related Stories

झारखंड चुनाव: 20 सीटों पर मतदान, सिसई में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में एक ग्रामीण की मौत, दो घायल

झारखंड की 'वीआईपी' सीट जमशेदपुर पूर्वी : रघुवर को सरयू की चुनौती, गौरव तीसरा कोण

हमें ‘लिंचिस्तान’ बनने से सिर्फ जन-आन्दोलन ही बचा सकता है

यूपी-बिहार: 2019 की तैयारी, भाजपा और विपक्ष

असमः नागरिकता छीन जाने के डर लोग कर रहे आत्महत्या, एनआरसी की सूची 30 जुलाई तक होगी जारी

एमरजेंसी काल: लामबंदी की जगह हथियार डाल दिये आरएसएस ने

अहमदाबाद के एक बैंक और अमित शाह का दिलचस्प मामला

आरएसएस के लिए यह "सत्य का दर्पण” नहीं हो सकता है

उत्तरपूर्व में हिंदुत्वा का दोगुला खेल

अशोक धावले : मोदी सरकार आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे किसान विरोधी सरकार है


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ः 60 दिनों से हड़ताल कर रहे 15 हज़ार मनरेगा कर्मी इस्तीफ़ा देने को तैयार
    03 Jun 2022
    मनरेगा महासंघ के बैनर तले क़रीब 15 हज़ार मनरेगा कर्मी पिछले 60 दिनों से हड़ताल कर रहे हैं फिर भी सरकार उनकी मांग को सुन नहीं रही है।
  • ऋचा चिंतन
    वृद्धावस्था पेंशन: राशि में ठहराव की स्थिति एवं लैंगिक आधार पर भेद
    03 Jun 2022
    2007 से केंद्र सरकार की ओर से बुजुर्गों को प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 7 रूपये से लेकर 16 रूपये दिए जा रहे हैं।
  • भाषा
    मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चंपावत उपचुनाव में दर्ज की रिकार्ड जीत
    03 Jun 2022
    चंपावत जिला निर्वाचन कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री को 13 चक्रों में हुई मतगणना में कुल 57,268 मत मिले और उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाल़ कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो…
  • अखिलेश अखिल
    मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 
    03 Jun 2022
    बिहार सरकार की ओर से जाति आधारित जनगणना के एलान के बाद अब भाजपा भले बैकफुट पर दिख रही हो, लेकिन नीतीश का ये एलान उसकी कमंडल राजनीति पर लगाम का डर भी दर्शा रही है।
  • लाल बहादुर सिंह
    गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया
    03 Jun 2022
    मोदी सरकार पिछले 8 साल से भारतीय राज और समाज में जिन बड़े और ख़तरनाक बदलावों के रास्ते पर चल रही है, उसके आईने में ही NEP-2020 की बड़ी बड़ी घोषणाओं के पीछे छुपे सच को decode किया जाना चाहिए।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License