NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
कृषि आंदोलन में महिला किसानों का ग़ायब चेहरा
वेतन के मामले में पूरे विश्व में भारत में महिलाओं तथा पुरुषों के बीच सबसे ज़्यादा अंतर है जो लगभग 34 प्रतिशत है। ये आंकड़ा हाल ही में प्रकाशित आईएलओ की रिपोर्ट में सामने आया है।
सुमेधा पॉल
05 Dec 2018
farmers

इस वर्ष की शुरुआत में मुंबई के 'किसान लॉन्ग मार्च' में शामिल हुईं 62 वर्षीय सखू बाई के पैर की तस्वीर देश भर के महिला किसानों की दुर्दशा के बारे में अनगिनत शब्द बयां करता है। ये महिला किसान अपनी भूमि का मालिकाना हक़ हासिल करने की लड़ाई लड़ रहीं हैं। 30 नवंबर 2018 को सखू बाई जैसी हज़ारों महिला किसानों ने राम लीला मैदान से संसद तक मार्च किया। खेत में काम करने की वजह से इनमें से कई महिलाओं के पैर में फफोले पड़े थे। खेत में उनके साथ हुई बेरहमी के चलते कुछ किसानों के शरीर पर ज़ख्म थे। लेकिन वास्तविकता के आधार पर वे अपनी दास्तां सुनाने को प्रतिबद्ध थीं क्योंकि उनकी परेशानियों को उनके पुरुष के सम्मान के साथ मिला दिया जाता है।

मधुबनी ज़िला से संबंध रखने वाली महिला किसान पार्वती कुमारी देवी कहती हैं, "मैं हर रोज़ सुबह उठती हूं और बिना आराम किए हुए घर के काम की तरह खेत में भी काम करती हूं।" जब उनसे भूमि पर उनके स्वामित्व के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, "मैंने जो साड़ी पहन रखी है उसे मेरे परिवार ने मुझे दिया है। पुरुष तय करते हैं कि मैं कौन से कपड़े पहनू, क्या आपको लगता है कि मैं अपने नाम पर कुछ भी हासिल करने के योग्य हूं?"

यद्यपि बड़ी संख्या में ग्रामीण महिलाएं कृषि संबंधी कार्यों में लगी हुई हैं लेकिन इनमें ज़्यादातर महिलाएं कृषि के कामों में मज़दूरी करती है और सीमांत श्रमिक हैं। इन महिला किसानों में लगभग 87 प्रतिशत महिलाओं के पास अपनी ज़मीन नहीं है जिस पर वे काम करती है। ये आंकड़ा वर्ष 2013 में जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट में सामने आया है। मुख्य रूप से समाज में प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण महिलाओं के पास भूमि का स्वामित्व नहीं है। पीढ़ियों से उन्हें भूमि के स्वामित्व से वंचित रखा गया है।

ग्रामीण इलाक़ों में महिलाओं के प्रति भेदभाव का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण मज़दूरी में व्यापक अंतर है। हाल ही में प्रकाशित वेतन को लेकर आईएलओ की रिपोर्ट के मुताबिक़ पूरे विश्व में भारत में महिलाओं तथा पुरुषों के बीच वेतन में बहुत ज़्यादा अंतर है। यहां लगभग 34 प्रतिशत का अंतर है। समान काम के लिए समान वेतन के संबंध में क़ानून होने के बावजूद महिलाओं तथा पुरूषों के वेतन में व्यापक अंतर होना एक ज़मीनी सच्चाई है।

इस तरह कृषि क्षेत्र में विद्यमान गहरे लिंग भेदभाव से महिलाओं को उनके द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर अधिकार का दावा करने में मदद नहीं मिलता है। यह विवाद भूमि के मुख्य हितधारकों के रूप में पहचाने जाने वाले उनके पति की मृत्यु के बाद अधिक महत्व रखता है।

उत्तराधिकार क़ानूनों में बदलाव के बावजूद स्वतंत्र मूल्यांकनों से बार-बार सामने आया है कि सांस्कृतिक बाधाओं ने महिलाओं को पैतृक संपत्ति से वंचित कर दिया है। ये स्थिति ग्रामीण ग़रीबी, भूमि पर एक विधवा होने का कलंक जहां विवाह पवित्र है और बुनियादी शिक्षा की कमी के कारण कृषि क्षेत्र में भयानक दिखाई पड़ता है।

उत्तर प्रदेश के भदोही ज़िले से दिल्ली पहुंची उषा देवी अपना ज़ख्म दिखाते हुए कहती हैं, "मैं अब यहां आयी हूं। मेरे पति अब नहीं हैं, मुझे किसी और की ज़मीन पर मज़दूरी करने के लिए मजबूर किया जा रहा है जहां मुझे अक्सर पीटा जाता है और दुर्व्यवहार किया जाता है।"

एक किसान का नाम महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह तय करेगा कि किसान के परिवार को मुआवज़े मिलेंगे हैं या नहीं। इस परिभाषा में खेत में सिंचाई सुविधाओं से लेकर फसलों की उत्पादकता, बच्चों और बुजुर्गों की आवश्यकताओं का किस्मत शामिल है।

महिलाओं को किसानों के रूप में कभी पहचाना नहीं जाता है बल्कि उन्हें केवल कृषि संबंधी कार्य करने वाले के रूप में पहचाना जाता है क्योंकि वे अपने पति के साथ खेती करती हैं। हालांकि, वे अपने पति की मौत के बाद भी ऐसा ही करना जारी रखती हैं। मौजूदा नीतियां इन महिलाओं को केवल खेतिहर मज़दूरों के रूप में मानती हैं जिससे महिलाओं को उनके पति की मौत के बाद 'किसान' के टाइटल का लाभ उठाना बेहद मुश्किल हो जाता है। नतीजतन कृषि क्षेत्र में ज़्यादातर महिलाएं किसानों के रूप में सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाती हैं। वे कृषि के लिए संस्थागत क्रेडिट का लाभ नहीं उठा सकती हैं या सब्सिडी प्राप्त नहीं कर सकती हैं। किसी भी सुरक्षा के बिना और सरकारी योजनाओं तक सीमित पहुंच के चलते महिलाएं क़र्ज़ और ग़रीबी के चक्र में बुरी तरह फंस जाती हैं।

29 और 30 नवंबर को देश की राजधानी दिल्ली में 'किसान लॉन्ग मार्च' में लाखों किसान शामिल हुए। उन्होंने कृषि संकट पर चर्चा करने के लिए संसद के 21 दिन का विशेष सत्र बुलाने की मांग की है। विमन फार्मर्स एंटाइटेलमेंट बिल, 2011 नामक एक विधेयक को मई 2012 में संसद में पेश किया गया था। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण ये प्राइवेट बिल कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन द्वारा पेश किया गया जो संसद में समाप्त हो गया लेकिन किसानों ने अब मांग की है कि संसद में इस विधेयक का फिर से पेश किया जाए।

इस विधेयक के महत्व को समझाते हुए वरिष्ठ पत्रकार पी साईंनाथ ने न्यूज़क्लिक को बताया, "महिला किसानों को संपत्ति के अधिकारों से नकार दिया जाता है, उन्हें भूमि का स्वामित्व नहीं दिया जाता है। देश में लगभग आठ प्रतिशत महिलाएं ही अपने स्वामित्व में ज़मीन रखती हैं। यदि आप महिला किसानों के अधिकारों और उनके स्वामित्व को शामिल नहीं करते हैं तो आप कृषि संकट को हल नहीं कर सकते हैं। इस देश में महिला किसान तथा महिला खेतिहर मज़दूर कृषि क्षेत्र में काफी ज़्यादा काम करती हैं। आप उस वर्ग के मुद्दों से बच नहीं सकते जो कि कृषि क्षेत्र में सबसे ज़्यादा काम कर रहा है और संकट को हल करने की आशा करता है। 

kisan mukti yatra
women farmers
agrarian crises
AIKSCC
DILLI

Related Stories

पंजाब की सियासत में महिलाएं आहिस्ता-आहिस्ता अपनी जगह बना रही हैं 

ऐतिहासिक किसान विरोध में महिला किसानों की भागीदारी और भारत में महिलाओं का सवाल

पंजाब: अपने लिए राजनीतिक ज़मीन का दावा करतीं महिला किसान

लखीमपुर खीरी कांड के बाद हरियाणा में प्रदर्शनकारी महिला किसानों को ट्रक ने कुचला, तीन की मौत

मध्यप्रदेश :19 राजनीतिक दलों का 27 के भारत बंद को समर्थन, 11 सूत्रीय मांगों को लेकर चलाएंगे अभियान

किसान संसद: अब देश चलाना चाहती हैं महिला किसान

किसान आंदोलन: ट्रेड यूनियनों ने किया 26 जून के ‘कृषि बचाओ-लोकतंत्र बचाओ’ आह्वान का समर्थन

सरकार की यह कैसी एमएसपी? केवल धान में ही किसान को प्रति क्विंटल 651 रुपये का नुक़सान!

असम, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में किस तरह काम करता है निवारक निरोध कानून 

कृषि क़ानून और खाद्य सुरक्षा 


बाकी खबरें

  • hisab kitab
    न्यूज़क्लिक टीम
    लोगों की बदहाली को दबाने का हथियार मंदिर-मस्जिद मुद्दा
    20 May 2022
    एक तरफ भारत की बहुसंख्यक आबादी बेरोजगारी, महंगाई , पढाई, दवाई और जीवन के बुनियादी जरूरतों से हर रोज जूझ रही है और तभी अचनाक मंदिर मस्जिद का मसला सामने आकर खड़ा हो जाता है। जैसे कि ज्ञानवापी मस्जिद से…
  • अजय सिंह
    ‘धार्मिक भावनाएं’: असहमति की आवाज़ को दबाने का औज़ार
    20 May 2022
    मौजूदा निज़ामशाही में असहमति और विरोध के लिए जगह लगातार कम, और कम, होती जा रही है। ‘धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाना’—यह ऐसा हथियार बन गया है, जिससे कभी भी किसी पर भी वार किया जा सकता है।
  • India ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    ज्ञानवापी विवाद, मोदी सरकार के 8 साल और कांग्रेस का दामन छोड़ते नेता
    20 May 2022
    India Ki Baat के दूसरे एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, भाषा सिंह और अभिसार शर्मा चर्चा कर रहे हैं ज्ञानवापी विवाद, मोदी सरकार के 8 साल और कांग्रेस का दामन छोड़ते नेताओं की। एक तरफ ज्ञानवापी के नाम…
  • gyanvapi
    न्यूज़क्लिक टीम
    पूजा स्थल कानून होने के बावजूद भी ज्ञानवापी विवाद कैसे?
    20 May 2022
    अचानक मंदिर - मस्जिद विवाद कैसे पैदा हो जाता है? ज्ञानवापी विवाद क्या है?पक्षकारों की मांग क्या है? कानून से लेकर अदालत का इस पर रुख क्या है? पूजा स्थल कानून क्या है? इस कानून के अपवाद क्या है?…
  • भाषा
    उच्चतम न्यायालय ने ज्ञानवापी दिवानी वाद वाराणसी जिला न्यायालय को स्थानांतरित किया
    20 May 2022
    सर्वोच्च न्यायालय ने जिला न्यायाधीश को सीपीसी के आदेश 7 के नियम 11 के तहत, मस्जिद समिति द्वारा दायर आवेदन पर पहले फैसला करने का निर्देश दिया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License