NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
संस्कृति
पुस्तकें
कला
भारत
कृष्णा सोबती : मध्यवर्गीय नैतिकता की धज्जियां उड़ाने वाली कथाकार
स्मृति शेष : उनका जीवन और उनका लेखन शानदार विद्रोह, सृजन और स्वतंत्रता की भावना की मिसाल था।
वैभव सिंह
26 Jan 2019
Krishna Sobti
Image Courtesy : flickr/Mukul Dube

कृष्णा सोबती के निधन ने हमें बहुत आहत भले न किया हो, पर अजीब ढंग से उदास जरूर कर दिया है। यह एक कोमल इरादों वाली मजबूत आवाज का खामोश हो जाना है। वे उम्र के उस पड़ाव पर थीं जहां वे अपनी समूची संकल्पशक्ति के सहारे दैहिक रूप से जीवित थीं और बहुत बहादुरी से जीवन को धीरे-धीरे समाप्त होते देख रही थीं। देह खत्म हो रही थी, पर दिलदिमाग की दृढ़ता कायम थी। उनका जीवन और उनका लेखन शानदार विद्रोह, सृजन और स्वतंत्रता की भावना की मिसाल था। 90 साल से अधिक की उम्र में उन्होंने समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता व असहिष्णुता के खिलाफ लड़ने का फैसला किया और 2015 में अपना साहित्य अकादमी सम्मान लौटाकर लेखकों की सामाजिक भूमिका को दृढ़ता से रेखांकित किया।

कृष्णा जी का लेखन पंजाबी संस्कृति-समाज में स्त्री की स्थिति तथा उसके संघर्ष से आम हिंदी पाठक को परिचित कराने वाला लेखन रहा है। मर्जी से लिखना और तरह-तरह की घरेलू-पारिवारिक सत्ताओं पर सवाल खड़े करना उनके लेखन की शानदार उपलब्धि रही है। घरेलू-पारिवारिक सत्ता से लड़ने वाले उनके हौसले ने ही आगे चलकर उन्हें फासीवाद व सांप्रदायिकता से भी लड़ने के लिए तैयार किया। शायद किसी भी जेन्युइन लेखक की तरह किसी भी संरक्षण या लालच को नकार कर आगे बढ़ना ही उनकी बुनियादी प्रवृत्ति थी। लेखक की कलम को पकड़ लेना और उसे अपने हिसाब से लिखवाने के वे सख्त खिलाफ थीं। कुछ साल पहले ‘सोबती-वैद संवाद’ नामक आई किताब में उन्होंने थोड़ा गुस्से और क्षोभ से कृष्ण बलदेव वैद से कहा था- ‘के.बी एक बात बहुत दिलचस्प है कि हमारे समाज में लेखक का रुतबा इतना बडा नहीं फिर भी उसे ‘पैटरनाइज’ करने का सुख शायद अद्भुत ही होता होगा। इस पर राजनीति का दबदबा। दलगत अदा ऐसी कि जो मेरे संस्कारों और विचारों के अनुरूप लिखे वह तो लेखन है बाकी तो सब प्रकाशित सामग्री का ढेर है, मलबा है।’

कृष्णा सोबती ने शुचिता के बहुत सारे सिद्धांतो को लेखन के जरिये चुनौती देने का काम किया और उन्हीं में एक था स्त्री की दैहिक शुचिता को पवित्र संस्कृति का पर्याय बताने की सोच को चुनौती देने का। उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ की नायिका तो जैसे सत्तर के दशक में ही स्त्री स्वप्न-आकांक्षा की प्रतीक बन गई थी। जब पूरा पंजाबी संयुक्त परिवार मित्रो को ‘जबान को काबू में रखने’ की सीख देता था, तब मित्रो अपनी यौनेच्छाओं और व्यक्तित्व को पूरी ताकत से दूसरों के सामने रखने का काम कर रही थी। वह संभोग की इच्छा को पाप मानने के स्थान पर उसे पूरा करने के अवसर भी ढूंढती दिखती है। पर उपन्यास में मित्रो को अतृप्त कामवासना वाले चरित्र के रूप में दिखाते हुए भी जिस प्रकार उसकी आदर्शवादी तरीके से घरवापसी कराई गई, वह लेखिका के गैरजरूरी आदर्शवाद को भी दिखाता है। मित्रो की कामवासना को एक सामान्य स्त्री से जुड़ा दिखाने के बजाय उसकी वेश्या मां से मिले संस्कारों का परिणाम दिखाना भी अजीब लगता है। इस रूप मे मित्रो सामान्य स्त्री की प्रतीक बनने के बजाय असामान्य संस्कारों वाली स्त्री की प्रतीक बना दी गई। लेकिन ‘मित्रो मरजानी’ की कहानी की इन सीमाओं के बावजूद कुल मिलाकर उपन्यास स्त्री की दैहिक जरूरतों, विद्रोह और मानसिकता को दिखाने में कामयाब हुआ। ‘मित्रो मरजानी’ की तुलना में उनके उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ उपन्यास में ज्यादा साफगोई और संवेदनशीलता से रतिका का चरित्र उभरा है जो बचपन में बलात्कार की शिकार हुई थी और आगे चलकर स्वेच्छा से पुरुषों के साथ अपने संबंधों को तय भी करती है।

कृष्णा सोबती की भाषा में पंजाबी शब्दों की अक्सर भरमार रहती थी और कई बार तो पूरे-पूरे वाक्य पंजाबी में रचे होते थे। संवाद और चरित्रों के बीच कहानी के सूत्र पकड़ने में मुश्किल आती है। कहानी गुम हो जाती है या बुरी तरह से शिथिल पड़ जाती है। पाठकों को रचना का केंद्र समझने में बाधा भी आती थी पर इन सीमाओं के बावजूद कृष्णा जी की गजब लोकप्रियता का राज यह था कि उन्होंने एक तरह से स्त्रियों के जीवन व मुसीबतों को पूरी ईमानदारी से पेश करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। ‘जिंदगीनामा’ तथा ‘दिलोदानिश’ जैसे उपन्यासों में उन्होंने बड़े संयुक्त परिवारों में मिलने वाले विभिन्न प्रकार के स्त्री चरित्रों को जिस प्रकार से रचा है, वह भारतीय उपन्यास की समृद्धि का सूचक है। नवविवाहिताएं, विधवाएं, नौकरानियां, देवरानियां, जिठानियां, रखैले, हत्यारिनें कई प्रकार के स्त्रियों के कोलाज का रूप ग्रहण कर लेते हैं। संयुक्त परिवारों में बनने वाले अवैध रिश्तों को वे बखूबी उठाती रही हैं और इस रूप में उन्होंने मध्यवर्गीय परिवार की नैतिकता की भी धज्जियां उड़ाई हैं। ऊपर से बहुत पवित्रतावादी बातें करने वाले परिवार में गुपचुप कई तरह के अवैध यौन संबध बनते हैं और बगैर हो-हल्ले के बरसों तक वैध संबंधों की तुलना में ज्यादा संजीदगी से निभाए जाते हैं। संयुक्त परिवारों के मानवीय संबंध, रस्में, त्योहार, चिंताएं, पाखंड आदि का अध्ययन करने के लिए उनके उपन्यास मददगार साबित हो सकते हैं। उपन्यासों में स्त्रियों को ज्यादा दुनियादार, ऊंच-नीच को समझने वाला तथा लचीली सोच का दिखाया जाता है, जबकि पुरुषों को या तो दकियानूस, ढोंगी अथवा डरपोक। उनके उपन्यास में वृद्धों के जीवन तथा उनके मृत्युबोध को बहुत संवेदनशीलता से प्रकट किया गया है और ‘ऐ लड़की’ जैसा लघु उपन्यास इस मामले में बेमिसाल है जिसमें एक वृद्ध स्त्री एक लड़की व नर्स को संबोधित करने के माध्यम से अपने अतीत को खंगालती है।

कृष्णा जी के लेखन को केवल स्त्रियों के लेखन के रूप में नहीं परिभाषित करना चाहिए। उनकी बहुत सी रचनाएं हैं जिनमें उन्होंने दूसरे विषयों को भी वैसी ही गहराई से छुआ है। उनकी कहानी ‘सिक्का बदल गया’ तो आज भी भारत-पाक विभाजन पर लिखी चंद सबसे महत्वपूर्ण कहानियों के रूप में पढ़ी जाती है। उनका उपन्यास ‘यारो के यार’ आजाद भारत में पनपे भ्रष्टाचार, नौकरशाही तथा अवसारवाद पर लिखा गया महत्वपूर्ण उपन्यास है। यानी भले ही उनकी कथाओं के केंद्र में स्त्रियां हों लेकिन मर्दों के दिमाग को पढ़ने और उसके बारे में लिखने में उन्होंने कमाल की समझदारी हासिल की थी। ‘जिंदगीनामा’ में उन्होंने एक विशाल परिवार के मालिक शाहजी की कहानी लिखते हुए जैसे पुरुष मनोविज्ञान को समझने की सारी क्षमताओं को सामने रख दिया है। वे किस प्रकार औरतों को फुसलाते हैं, उन्हें अपने अधीन करते हैं और दुनिया के मजे लूटते हैं, इसकी बेबाक कथाओं से उनकी रचनाएं भरी पड़ी हैं। उनके सारी गुप्त रहस्यों को वे बहुत मजे से खोलती थीं और किसी गुस्सैल अंदाज में उन्हें कठघरे में खड़ा करने के बजाय उनकी सचाइयों को प्रकट करती थीं। उनके उपन्यासों के पुरुष चरित्र बहुत नकली या बनावटी नहीं लगते बल्कि वे भी असलियत से निकले हुए लगते हैं। अपने उपन्यासों व कहानियों में उन्होंने बहुत से विषयों को छुआ, उनके आधार पर कथानक गढ़ा पर जैसे हर कथानक में यही मुख्य बात थी कि इस समाज की मान्यताएं हर इंसान के लिए कैदखाने में बदल चुकी है। स्त्रियों के लिए अधिक पर पुरुषों के लिए भी सामाजिक विश्वास-मान्यताएं किसी कैदखाने से कम नहीं हैं।

पंजाब से आई लेखिकाओं में कृष्णा सोबती के साथ ही उनके जैसे जीवट लड़ाकूपन को जीने वालों में अमृता प्रीतम का भी नाम याद आता है, हालांकि ‘जिंदगीनामा’ किताब के शीर्षक को लेकर दोनों लेखिकाओं में लंबा कानूनी विवाद चला था। अमृता प्रीतम ने भी ‘हरदत्त का जिंदगीनामा’ किताब की रचना की थी और कृष्णा सोबती ने उनपर किताब का शीर्षक चुराने का आरोप लगाकार अदालत में मुकदमा दायर कर दिया था। यह मुकदमा सालों खिंचा और कहा जाता है दोनों लेखिकाएं भयानक तनाव में रहीं। अमृता प्रीतम कई बाबाओं के पास गईं, अंधविश्वासों का सहारा लेने लगीं। अमृता प्रीतम को खुशवंत सिंह जैसे बड़े लेखक का साथ मिला जिन्होंने तर्क रखा कि फारसी-पंजाबी पुस्तकों में जिंदगीनामा शब्द का बहुतायत से प्रयोग होता रहा है और स्वयं उन्होंने सिख गुरुओं के इतिहास को लिखते समय जिंदगीनामा शब्द का प्रयोग किया है। यानी कोई शब्द पूरे समाज की संपत्ति होता है और शब्द पर किसी का कापीराइट नहीं हो सकता है। अंततः 2011 में यह मुकदमा अमृता प्रीतम की मृत्यु के 6 साल बाद उनके पक्ष में गया और अदालत ने फैसला दिया कि शीर्षक में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। कृष्णा सोबती ने इस न्यायिक फैसले के बाद कहा था कि मैं सुप्रीम कोर्ट तक जाती अगर अमृता प्रीतम जीवित होती। ‘सोबती-वैद संवाद’ में कृष्णा सोबती कहती हैं- ‘मैं अपनी आत्मकथा पर रसीदी टिकट का शीर्षक क्यों चस्पां करूं। क्या मेरी लेखकीय क्षमताएं इतनी गई गुजरी हैं कि मैं अपने लिए कोई शीर्षक न ढूंढ सकूं।’ कृष्णा सोबती उस पीढ़ी की लेखिका थीं जब लेखक के पास दूसरों से भिन्न तरीके से जीने, भिन्न तरीके से लिखने तथा भिन्न तरीके से चीजों को देखने-परखने के लिए वर्तमान से अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। लेखकों की मौलिकता इसलिए अधिक दिखती थी क्योंकि अधिकांश लेखक भिन्न पृष्ठभूमि व परिवेश से आते थे और साथ में अपने विशिष्ट अनुभवों का खजाना भी लाते थे। भिन्नता के इस तर्क को कृष्णा सोबती बहुत अहमियत प्रदान करती थीं और उन्होंने‘सोबती-वैद संवाद’ में कहा भी था- ‘समकालीन लेखक परस्पर भिन्न हो सकते हैं और उन्हें एक दूसरे की भिन्नता की हिफाजत भी करनी चाहिए। भिन्नता की हिफाजत करते हुए हम एक-दूसरे के काम की सराहना भी कर सकते हैं, एक-दूसरे से कुछ ले भी सकते हैं। अपने काम से भिन्न काम को नकारना कुछ लेखकों को बहुत अच्छा लगता होगा, मुझे तो वह बहुत ही बुरा लगता है। ऐसी संकीर्णता लेखक या कलाकार को सीमित और कुंठित कर देती है, उसकी रुचि को एक निहायत तंग दायरे में कैद कर देती है।’ संकीर्णता के स्थान पर भिन्नता को महत्त्व देना साहित्य के लिए जरूरी है और कृष्णा सोबती जैसे लेखकों से अगर हम यह सीख सके तभी साहित्य की दुनिया भी ज्यादा बड़ी, उदार तथा गहरी बनेगी।

(लेखक हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

Krishna Sobti
hindi literature
Hindi fiction writer
साहित्य
हिन्दी लेखक
हिन्दी कहानी-उपन्यास

Related Stories

समीक्षा: तीन किताबों पर संक्षेप में

इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में 9 से 11 जनवरी तक अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन

नामवर सिंह : एक युग का अवसान

"खाऊंगा, और खूब खाऊंगा" और डकार भी नहीं लूंगा !

गोरख पाण्डेय : रौशनी के औजारों के जीवंत शिल्पी

"हमारी मनुष्यता को समृद्ध कर चली गईं कृष्णा सोबती"

आज़ादी हमारा पैदाइशी हक़ है : कृष्णा सोबती

तिरछी नज़र : कराची हलवा और जिह्वा का राष्ट्रवाद

हिन्दी कभी भी शोषकों की भाषा नहीं रही

भोपाल में विश्व हिन्दी पंचायत [सम्मेलन]


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License