NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
कश्मीर : भूमि सुधार, गांव की कमतर ग़रीबी और अनुच्छेद 370 की भूमिका
इससे पहले कि अमित शाह जम्मू-कश्मीर के "विकास" में कश्मीर को दिए गए ख़ास दर्जे को रोड़ा बताएं, उन्हें गुजरात के गाँवों में मौजूद ग़रीबी के उच्च स्तर के आंकड़ों पर ग़ौर करना चाहिए, क्योंकि ग़रीबी के ये भयावह तथ्य उनके और पीएम के गृह राज्य से संबंधित हैं।
प्रभात पटनायक
17 Aug 2019
Translated by महेश कुमार
कश्मीर
सांकेतिक तस्वीर सौजन्य: Tribune India

भूमि सुधारों की शुरुआत करने वाला जम्मू-कश्मीर देश का पहला राज्य था। जम्मू-कश्मीर में हुए भूमि सुधार के दो घटक थे। पहला, ऐसे ज़मींदार जो अनुपस्थित थे, और जो ज़मींदारी महाराजा के समय से चल रही थी, इसे पूरी तरह से ख़त्म कर दिया गया था। अनुपस्थित ज़मींदारों की भूमि को बिना किसी मुआवजे अधिग्रहण कर लिया गया और उन जोतदारों में बांट दिया गया जो भूमि किराए पर लेकर खेती करते थे; इसलिए जो भी जोतदार अनुपस्थित ज़मींदारों की भूमि पर किरायेदार के रूप में खेती कर रहा था, उसे उस भूमि का मालिक बनने के लिए किसी भी राशि का भुगतान नहीं करना पड़ा था। दूसरा, 22 ¾  एकड़ (182 कनाल) की भूमि की ऊपरी सीमा तय कर दी गई थी। एक घर जिसमें एक वयस्क पुरुष हो वह इससे ज़्यादा भूमि नहीं रख सकता था। इस सीमा से उपर की अतिरिक्त भूमि को मुआवज़े दिए बिना ले लिया गया और ग़रीब जोतदारों (किरायेदारों) और भूमिहीनों के बीच बिना किसी भुगतान के वितरित कर दिया गया था।

इन भूमि सुधारों की ख़ुद की सीमाएँ थीं। क़ानून की प्रकृति के हिसाब से, भूमि सुधारों ने छोटे जोतदारों (किराए की ज़मीन पर खेती करने वालों) को कम लाभ मिला। चूंकि वे अनुपस्थित ज़मींदारों की छोटी सी भूमि पर ही खेती करते थे, इसलिए उन्हें संबंधित संपत्ति से कम मात्रा में भूमि पर मालिकाना हक़ मिला। और भूमिहीनों को भी इन सुधारों से बहुत ज्यादा लाभ नहीं मिला। जो भी भूमि उन्हें मिली वह सिलिंग क़ानून से उपजी अतिरिक्त भूमि थी, जो आमतौर पर ख़राब गुणवत्ता की होती थी; और क़ीमत में भी कम थी, क्योंकि इस तरह के मामले में सीलिंग क़ानूनों को अक्सर दरकिनार कर दिया जाता था, ऐसा इसलिए था क्योंकि भूमि सुधारों को लागू करने की ज़िम्मेदारी किसान समितियों की न होकर, जैसा कि क्रांतिकारी चीन में था, बल्कि राज्य की नौकरशाही को सौंपी गई थी। फिर भी भूमि सुधारों से हासिल हुए लाभ किसानों के लिए असमान थे, लेकिन भूमि सुधारों ने जम्मू-कश्मीर में सामंती ज़मींदारी को तोड़ने में सफलता हासिल की थी। और यह 1950 के दशक की शुरुआत में हुआ था, जब द बिग लैंडेड एस्टेट्स एबोलिशन एक्ट को 1950 में लागू किया गया था।

उस समय तक भारत में केवल जम्मु कश्मीर में ही अन्य राज्यों की तुलना में अधिक गहन तरीक़े से भूमि सुधारों को आगे बढ़ाया जा सकता था, जब तक कि (केरल मे 1957 में कम्युनिस्ट सरकार के सत्ता में आने के बाद भूमि सुधारों को अधिनियमित किया गया) संविधान की धारा 370 आस्तित्व मे थी, यह विडंबना है कि जिसके बारे में ग्रहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा कि यह राज्य के 'विकास' में बाधा है!

भारतीय संविधान ने, जम्मू-कश्मीर के संविधान के विपरीत, संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया था, और जब उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु में भूमि सुधार क़ानून पेश किए गए थे, तो उन तीन राज्यों में उच्च न्यायालयों के सामने इसे चुनौती दी गई थी कि वे संवैधानिक-गारंटी के तहत मौलिक अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं। उच्च न्यायालय के निर्णयों ने ज़मींदारों का साथ दिया और मामला सर्वोच्च न्यायालय में चला गया।

इस मौक़े पर, एक पूर्व-निर्धारित उपाय के रूप में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपना फ़ैसला देने से पहले, जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने संविधान में पहला संशोधन पेश किया, जिसने न केवल न्यायिक समीक्षा से उन तीन विशेष राज्यों में क़ानून को छूट दी, बल्कि, इसके अलावा, संविधान की नौवीं अनुसूची पेश की। नौवीं अनुसूची में डाले गए सभी विधानों को न्यायिक जांच या समीक्षा से दुर कर दिया गया था।

हालांकि, यहां भी मामले का अंत नहीं हुआ। इससे पहले एक बहुत ही असंबंधित मामले में फ़ैसला आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 1954 में कहा कि राज्य द्वारा अधिग्रहीत की जा रही निजी संपत्ति के सभी मामलों में, "बाज़ार मूल्य" पर मुआवज़ा देना होगा, जिसका मतलब था कि जो भी ज़मीन भूमि सुधार क़ानून के तहत ज़मींदारों से ली गई थी उसका मुआवज़ा राज्य को "बाज़ार मूल्य" पर मुआवज़ा देना पड़ा। चूंकि इससे सरकारी खज़ाने पर भारी बोझ पड़ा, नेहरू सरकार संविधान में चौथा संशोधन लायी, जिसमें राज्य को उन मामलों में बाज़ार मूल्य पर पूर्ण मुआवज़ा देने से छूट दी गई थी, जिनसे ज़मीन ली गई थी। और इस संशोधन को भी संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया, जिससे इसके ख़िलाफ़ न्यायिक समीक्षा की अपील ना की जा सके।

इस लंबे चले क़ानूनी झगड़े का एक परिणाम यह था कि ज़मींदारों से ज़मीन का अधिग्रहण जम्मू-कश्मीर में भी निःशुल्क नहीं हो सकता था; मुआवज़े की कुछ राशि भूमि मालिकों को भुगतान करनी पड़ी थी, भले ही बाज़ार मूल्य पर क्यों न हो। इसके विपरीत, जम्मू-कश्मीर में यह भी एक कारण था कि जोतदारों/किरायेदारों को ज़मीन का वितरण पूरी तरह से नहीं हो सका। शेष भारत के जोतदारों/ किरायेदारों को उस भूमि को ख़रीदने का वैकल्पिक अधिकार था जिस पर वे पहले से किरायेदारों के रूप में खेती कर रहे थे; अन्यथा वे किरायेदारों के रूप में पहले की तरह खेती करना जारी रख सकते थे, लेकिन अब वे राज्य की ज़मीन पर जोतदार थे क्योंकि उनके पूर्ववर्ती ज़मींदारों से भूमि पर सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था।

जम्मू और कश्मीर दोनों भूमि को नि:शुल्क क़ब्ज़ा कर सकते थे और इसे मुफ़्त में वितरित कर सकते थे, क्योंकि इसका अपना संविधान था जिसकी स्वायत्तता की गारंटी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 द्वारा दी गई थी, और जिसने संपत्ति के पुर्व निर्धारित अधिकार को गारंटी नहीं किया था। इसलिए, जम्मू और कश्मीर के भूमि सुधार उपाय, शेष भारत की तुलना में कहीं अधिक संपूर्ण और व्यापक हो सकते थे, कम से कम तत्कालीन सामंती ज़मींदारों को दूर करने के अर्थ में तो ऐसा हो ही सकता था। और जम्मू-कश्मीर लंबे समय तक भारतीय राज्यों के बीच भूमि सुधारों का एकमात्र चमकदार उदाहरण बना रहा जब तक कि कुछ राज्यों में वामपंथी सरकारें नही आ गईं और भूमि सुधारों के अधूरे एजेंडे को उठाया और अपने राज्यों उसे बदस्तूर पुरा किया।

जम्मू-कश्मीर में भूमि सुधार, सामाजिक संरचना और भूमि वितरण पर उनके प्रभाव के अलावा, राज्य में आय असमानताओं को कम करने में बहुत योगदान दिया गया है। इसके अलावा, इन उपायों से वहां की ग्रामीण ग़रीबी को कम करने में भी मदद मिली। योजना आयोग द्वारा लगाए गए आधिकारिक ग़रीबी के अनुमानों के अनुसार, सभी भारतीय राज्यों में, जम्मू-कश्मीर में 2009-10 में ग़रीबी रेखा के नीचे ग्रामीण आबादी का सबसे कम अनुपात था। इसका ग्रामीण ग़रीबी अनुपात 8.1 प्रतिशत था; जो दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश के अनुपात 7.7 प्रतिशत से कुछ ही ऊपर था, जबकि जम्मू-कश्मीर सहित पूरे देश का ग्रामीण ग़रीबी अनुपात 33.8 प्रतिशत है। लेकिन चूंकि दिल्ली एक विशाल महानगर है, इसलिए इसके ग्रामीण क्षेत्रों को भारत के ग्रामीण इलाक़ों से विशिष्ट माना जा सकता है, और इसलिए इसकी तुलना किसी भी राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों से नहीं की जा सकती है; इसलिए जम्मू-कश्मीर ने सबसे कम ग्रामीण ग़रीबी का रिकॉर्ड अपने नाम किया है।

दिलचस्प बात यह है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री शाह, दोनों के गृह राज्य गुजरात में ग्रामीण ग़रीबी अनुपात, आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2009-10 में 26.7 प्रतिशत था, यही वजह है कि शाह को जम्मू-कश्मीर पर बयानबाज़ी करने से पहले और उसके "विकास" मे विशेष दर्जे को रोड़ा मानने से पहले, उन्हें इन आंकड़ों पर विचार करना चाहिए, जो सभी आधिकारिक आंकड़े हैं।

आधिकारिक ग़रीबी के आंकड़े वास्तविक ग़रीबी अनुपात को काफ़ी कमतर करते हैं; लेकिन फिर भी अगर कोई ग्रामीण आबादी के अनुपात का प्रत्यक्ष अनुमान लगाना चहता है तो प्रति दिन 2,200 कैलोरी प्रति व्यक्ति मिलनी चाहिए, जो ग्रामीण ग़रीबी के लिए मानदंड है, इससे राज्यों की सापेक्ष स्थिति में शायद ही कोई बदलाव होता है। जम्मू-कश्मीर देश के सबसे कम ग्रामीण-ग़रीबी-अनुपात वाले राज्यों में से एक है।

ग़रीबी के अनुमान का सच क्या है, यह भी माना जाता है कि अगर हम अन्य सामाजिक संकेतकों की एक पूरी श्रृंखला लेते हैं: तो जम्मू-कश्मीर का रिकॉर्ड सभी भारतीय राज्यों में सबसे अच्छा है, और यह तथ्य उस राज्य में किए गए भूमि सुधारों की वजह से है, जो कि अनुच्छेद 370 के तहत भारतीय संविधान के बाहर होने से संभव हो पाया था।

ऐसा नहीं है कि ये माना जाता है कि जम्मू-कश्मीर हमेशा से ऐसा राज्य था, जो अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में ग़रीबी से कम पीड़ित था, और उपरोक्त संबंधित आंकड़े केवल एक पूर्व-निर्धारित ऐतिहासिक वास्तविकता को दर्शाते हैं, जिसका भूमि सुधारों के कार्यान्वयन या अनुच्छेद 370 के साथ कोई लेना-देना नहीं है, मुझे इस बात पर भी ज़ोर देना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में एक अत्यंत दमनकारी सामंती शासन था, जिसने अन्य सामंती शासन की तरह, (मुख्य रूप से मुस्लिम) किसानों को ग़रीबी और अज्ञानता की एक अपमानजनक स्थिति में रखा हुआ था। स्थानीय कथा यह है कि महाराजा के कर वसूलने वाले इतने निर्मम थे कि जब किसानों ने राज्य के कर भुगतान के लिए साधनों की कमी की शिकायत की, तो वे किसानों से अपना मुंह खोलने के लिए कहते कि शायद कोई अनाज का दाना उनके मुहँ मे तो नहीं रह गया है? चावल खाने से चावल के दाने उनके दांतों से चिपक जाते थे: और तर्क यह चालाया जाता था कि यदि किसान चावल खाने का जोखिम उठा सकता है तो वह कर का भुगतान भी कर सकते हैं।

ऐसी सामंती अर्थव्यवस्था में परिवर्तन जो आज देश में सबसे कम ग़रीबी के अनुपात वाली अर्थव्यवस्था है, एक उपलब्धि है जो शायद अमित शाह को प्रभावित ना कर पाए, लेकिन इसकी तुलना किसी भी मानदंड के साथ की जा सकती है; और इसलिए इसे संभव बनाने में अनुच्छेद 370 की बड़ी भूमिका है।

Article 370
Jammu and Kashmir
Land Reforms
Low Rural Poverty
Abrogation of Article 370
Amit Shah
Narendra Modi Government

Related Stories

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

कश्मीर में हिंसा का नया दौर, शासकीय नीति की विफलता

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

कश्मीरी पंडितों के लिए पीएम जॉब पैकेज में कोई सुरक्षित आवास, पदोन्नति नहीं 

यासीन मलिक को उम्रक़ैद : कश्मीरियों का अलगाव और बढ़ेगा

आतंकवाद के वित्तपोषण मामले में कश्मीर के अलगाववादी नेता यासीन मलिक को उम्रक़ैद

क्यों अराजकता की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है कश्मीर?


बाकी खबरें

  • जितेन्द्र कुमार
    मुद्दा: बिखरती हुई सामाजिक न्याय की राजनीति
    11 Apr 2022
    कई टिप्पणीकारों के अनुसार राजनीति का यह ऐसा दौर है जिसमें राष्ट्रवाद, आर्थिकी और देश-समाज की बदहाली पर राज करेगा। लेकिन विभिन्न तरह की टिप्पणियों के बीच इतना तो तय है कि वर्तमान दौर की राजनीति ने…
  • एम.ओबैद
    नक्शे का पेचः भागलपुर कैंसर अस्पताल का सपना अब भी अधूरा, दूर जाने को मजबूर 13 ज़िलों के लोग
    11 Apr 2022
    बिहार के भागलपुर समेत पूर्वी बिहार और कोसी-सीमांचल के 13 ज़िलों के लोग आज भी कैंसर के इलाज के लिए मुज़फ़्फ़रपुर और प्रदेश की राजधानी पटना या देश की राजधानी दिल्ली समेत अन्य बड़े शहरों का चक्कर काट…
  • रवि शंकर दुबे
    दुर्भाग्य! रामनवमी और रमज़ान भी सियासत की ज़द में आ गए
    11 Apr 2022
    रामनवमी और रमज़ान जैसे पर्व को बदनाम करने के लिए अराजक तत्व अपनी पूरी ताक़त झोंक रहे हैं, सियासत के शह में पल रहे कुछ लोग गंगा-जमुनी तहज़ीब को पूरी तरह से ध्वस्त करने में लगे हैं।
  • सुबोध वर्मा
    अमृत काल: बेरोज़गारी और कम भत्ते से परेशान जनता
    11 Apr 2022
    सीएमआईए के मुताबिक़, श्रम भागीदारी में तेज़ गिरावट आई है, बेरोज़गारी दर भी 7 फ़ीसदी या इससे ज़्यादा ही बनी हुई है। साथ ही 2020-21 में औसत वार्षिक आय भी एक लाख सत्तर हजार रुपये के बेहद निचले स्तर पर…
  • JNU
    न्यूज़क्लिक टीम
    JNU: मांस परोसने को लेकर बवाल, ABVP कठघरे में !
    11 Apr 2022
    जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दो साल बाद फिर हिंसा देखने को मिली जब कथित तौर पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से संबद्ध छात्रों ने राम नवमी के अवसर कैम्पस में मांसाहार परोसे जाने का विरोध किया. जब…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License