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भारत
राजनीति
कश्मीरी जनता नहीं, कश्मीर चाहिए!
नागरिकों की हिफ़ाज़त करना सरकार की प्राथमिक ड्यूटी है। उसे यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की क्या ज़रूरत है?
अजय सिंह
26 Feb 2019
dehradun

पुलवामा (जम्मू-कश्मीर) में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के काफ़िले पर घातक हमले के नौ दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कश्मीरी जनता के लिए पहली बार ‘कुछ’ बोलते हुए सुनायी-दिखायी दिये हैं। टोंक (राजस्थान) में 23 फ़रवरी 2019 को एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हमारी लड़ाई कश्मीर के लिए है, कश्मीर के ख़िलाफ़ नहीं है, कश्मीरियों के ख़िलाफ़ नहीं है’। लेकिन तब तक जो सुनियोजित चोट पहुंचानी थी, वह पहुंचायी जा चुकी थी। दूर-दूर तक यह संदेश फैलाया जा चुका था कि भारत को कश्मीर तो चाहिए लेकिन भारत के अन्य राज्यों में रह रहे कश्मीरी लोग पूरी तरह अवांछित हैं, और उन्हें खदेड़ दिया जाना चाहिए।

पुलवामा की घटना (14 फ़रवरी 2019) के बाद पूरे देश में—खासकर हिंदी-उर्दू पट्टी के राज्यों में—कश्मीरी छात्र-छात्राओं, अध्यापकों, व्यापारियों, दुकानदारों व मज़दूरों पर—जो सब-के-सब मुसलमान हैं—जिस तरह हिंदुत्व फ़ासीवादियों की तरफ़ से हिंसक हमले हुए, वह स्तब्धकारी और शर्मनाक है। यह इसलिए भी शर्मनाक और चिंताजनक है कि इस हमले को राजनीतिक सत्ता संरचना और सरकार का समर्थन मिला हुआ है।

गहरी विडंबना यह है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ-भाजपा द्वारा संचालित और सत्ता-समर्थित इस कश्मीरी जनता-विरोधी हिंसक मुहिम को विपक्ष का भी मौन समर्थन मिला हुआ है। इस मसले पर राहुल गांधी ख़ामोश हैं, सीताराम येचुरी और डी राजा ख़ामोश हैं, कमलनाथ व अशोक गहलोत ख़ामोश हैं, अरविंद केजरीवाल ख़ामोश हैं, मायावती व अखिलेश यादव ख़ामोश हैं, तेजस्वी यादव व ममता बनर्जी ख़ामोश हैं।

जिस तरह से उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा व अन्य राज्यों से कश्मीरियों को खदेड़ा गया, उस पर तो विपक्ष को नरेंद्र मोदी सरकार और राज्यों की भाजपा सरकारों को घेर लेना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और इससे हिंदुत्व फ़ासीवादी लंपट गिरोहों का हौसला और बढ़ा। इन लंपट गिरोहों को न तो रोका गया है,न उनके खिलाफ़ कारगर कार्रवाई की गयी है। राज्यों में रह रहे कश्मीरियों को किसी तरह की सुरक्षा नहीं दी गयी। बात-बात पर बात करने वाले नरेंद्र मोदी पूरे नौ दिन इस मसले पर जानबूझकर ख़ामोश रहे, और राष्ट्रपति को तो जुंबिश तक नहीं हुई।

नागरिकों की हिफ़ाज़त करना सरकार की प्राथमिक ड्यूटी है। उसे यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की क्या ज़रूरत है? लेकिन यहां भी सुप्रीम कोर्ट को, एक याचिका पर सुनवाई के दौरान, दिल्ली-समेत 11 राज्यों की सरकारों से कहना पड़ा कि वे कश्मीरियों व अन्य अल्पसंख्यकों के जान-माल की हिफ़ाज़त की गारंटी करें। उसने यह भी कहा कि कश्मीरियों का सामाजिक बहिष्कार करने की जो अपीलें जारी की जा रही हैं,उनके ख़िलाफ़ राज्य सरकारों को तुरंत कारगर क़दम उठाना चाहिए।

लेकिन जब एक राज्य (मेघालय) का राज्यपाल (तथागत राय) खुलेआम कश्मीरियों का और कश्मीरी सामान व व्यापार का देशव्यापी बहिष्कार करने की अपील जारी करे, तब क्या किया जाये! उसे कौन रोकेगा या दंडित करेगा? न नरेंद्र मोदी ने इस राज्यपाल की भर्त्सना की, न राष्ट्रपति ने उसे बर्ख़ास्त किया। याद कीजिये,दूसरे विश्व युद्ध के कुछ पहले यूरोप में नाज़ियों और फ़ासिस्टों ने यहूदियों का बहिष्कार करने की इसी तरह की अपीलें जारी की थीं। तथागत राय जो बोल रहे हैं,उसे सत्ता के सबसे ऊंचे पायदान की मंजूरी मिली हुई है। दूसरी ओर, कश्मीर और कश्मीरी जनता के मुद्दे पर विपक्ष की ख़ामोशी भारत से कश्मीरी जनता के अलगाव को और बढ़ा रही है। यह भारत के लिए ख़तरे की घंटी है।

(लेखक वरिष्ठ कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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