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स्वास्थ्य
विज्ञान
क्या आप यह नहीं जानने चाहेंगे कि कोरोना के इलाज में दुनिया कहाँ तक पहुंची है?
मानव इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि वैक्सीन बनाने के लिए परम्परागत और आधुनिक दोनों तरीकों को इस्तेमाल किया जा रहा है।
अजय कुमार
27 May 2020
corona

कोरोना को लेकर चाहे दुनिया के कामकाज में जितनी अधिक अधिक उथल-पुथल मची हो लेकिन लोगों की सबसे अधिक दिलचस्पी इस बात में है कि कोरोना का इलाज कब तक आ जाएगा? यानी कोरोना का वैक्सीन कब तक तैयार हो जाएगा। ग्लोबल वायरॉलजी एंड वैक्सीन पॉलिसी के प्रोफेसर जॉन एंड्रस ने वायर्ड से कहा- ज़्यादातर वैक्सीन बाज़ार में आने के लिए पांच से 15 साल का वक्त लेती हैं। लेकिन कोरोना के वैक्सीन पर बहुत जोर शोर से काम चल रहा है। इसलिए मार्च से ही वैज्ञानिकों ने उम्मीद करना शुरू कर दिया कि तकरीबन डेढ़-दो साल में कोरोना का वैक्सीन बाज़ार में होगा।  

मानव इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि वैक्सीन बनाने के लिए परम्परागत और आधुनिक दोनों तरीकों को इस्तेमाल किया जा रहा है। अब आप सोचेंगे कि हम तो यही समझते आ रहे थे कि वैक्सीन बनाने का केवल एक तरीका होता है और वह कि मरा हुआ वायरस शरीर के अंदर इंजेक्ट कर दिया जाता है ताकि शरीर के अंदर ज़रूरी इम्यून पैदा हो जाए। वायरस शरीर पर हमला करे तो शरीर उससे लड़ सके। आपका यह सोचना बिलकुल सही है। वैक्सीन इसी तरीके से बनता है। दुनिया के हर कोने में कोरोना का वैक्सीन बनाने का इस तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है। चीन की सायानो वेक बायोटेक नाम की कंपनी इस तरीके से वैक्सीन बनाने में सबसे आगे चल रही है। लेकिन कोरोना को लेकर वैक्सीन बनाने के आधुनिक तरीकों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है।

आधुनिक तरीकों में दो तरीकों पर खूब चर्चा की जा रही है। पहला है अमेरिका की मॉडेर्ना इंक द्वारा अपनाया जा रहा तरीका और दूसरा है ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा अपनाया जा रहा तरीका। मॉडेर्ना इंक द्वारा शरीर में कोरोना के कवर का MRNA भेजा जा रहा है ताकि शरीर की कोशिका कोरोना के कवर को समझ सके और शरीर में कोरोना के लिए एंटीबॉडी बना सके। इस वैक्सीन का काम भी अपने शुरुआती दौर में है। इसका मतलब यह नहीं है कि इस तरीके से केवल मॉडेर्ना इंक नामक कंपनी ही वैक्सीन बनाने का काम कर रही है। इस तरीके से वैक्सीन बनाने में दुनिया की तमाम कम्पनिया लगी हुई है। मॉडेर्ना अभी सबसे आगे चल रही है तो इसके नाम का इस्तेमाल किया जा रहा है।  

ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा अपनाया जा रहा तरीका 21 वीं सदी का तरीका है। इसमें यह कोशिश की जाती है कि शरीर को केवल वह जेनटिक इन्फॉर्मेशन मुहैया कर दी जाए, जो वायरस के लिए एंटीबीडी बनाने के लिए ज़रूरी है। अब सवाल उठता है कि जेनेटिक इन्फोर्मशन को शरीर में कैसे पहुंचाया जाएगा? वायरस के जेनेटिक इन्फॉमेशन को किसी ऐसे वायरस में डाला जाता है, जो कोरोना और मानव शरीर के लिए सेफ हो। इसके बाद इस वायरस को भी दूसरे वैक्सीन की तरह शरीर में इंजेक्ट किया जा सकेगा। अभी तक इस तरीके में केवल लैब्रोटरी में महारत हासिल की जा सकी है लेकिन इस तरीके से क्लिनिकल परिक्षण नहीं हुआ है। इसलिए इस तरीके के जरिये कोई भी सरकारी मान्यता हासिल यानी लाइसेंसी वैक्सीन नहीं बना है। इबोला, सार्स और मार्स के वायरस के वैक्सीन के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया गया था। इसी तकनीक को ऑक्सफ़ोर्ड वैक्सीन तकनीक कहकर पुकारा जा रहा है। और इस तकनीक पर भी काम दुनिया की तमाम कंपनियां कर रही हैं।

अभी तक की जानकारी के तहत जिन बंदरों पर ऑक्सफ़ोर्ड वैक्सीन का इस्तेमाल किया गया, क्लिनिकल लिहाज से वह पूरी तरह ठीक रहे। यानी उनमें कोरोना की बीमारी नहीं हुई। लेकिन वायरोलॉजिकल प्रोटेक्शन के लिहाज से इसमें कुछ कमियां हैं। फेफड़े से नीचे के भाग पर वायरस का असर नहीं हुआ लेकिन श्वशन तंत्र से जुड़े हिस्से पर वायरस का प्रभाव बना रहा। इसका मतलब यह भी नहीं कि ऑक्सफ़ोर्ड तरीके से बनाया जा रहा वैक्सीन असफल हो गया है। अभी भी इसमें सही होने की सम्भावना है और वैज्ञानिकों का आकलन है कि इस तरीके से बना वैक्सीन भी सफल होगा। इस तरीके से पहली बार वैक्सीन बनाया जा रहा है। इस लिहाज से यह बहुत बड़ी कामयाबी है।

जहां तक मॉडेर्ना और सायनोवेक बायोटेक की बात है तो इन तरीकों से अभी बहुत अधिक बंदरों पर परीक्षण नहीं किया गया है। इसलिए अभी इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन जितने बंदरों पर टेस्ट किया गया है, उससे पॉजिटिव परिणाम आये हैं। और प्री क्लिनिकल स्टेज से आगे के स्टेज पर काम चल रहे हैं।  

अब हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि कोरोना का वैक्सीन कब तक बन जाएगा और हम कहाँ तक पहुचें हैं। तो जैसा कि खबरें आ रही हैं कि हम कोरोना वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल तक पहुंच चुके हैं। क्लिनिकल ट्रायल के पहले प्री क्लिनिकल ट्रायल आता है। यानी सबसे पहले वैक्सीन को जानवरों पर इस्तेमाल किया जाता है और देखा जाता है कि क्या उनके अंदर वायरस से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बना या नहीं। इसके बारे में हमने समझ ही लिया कि बंदरों पर टेस्ट किया गया और कुछ मुश्किलों के बावजूद भी उम्मीद है कि इस फेज़ को मॉडर्न और ऑक्सफ़ोर्ड तरीकों ने सही तरीके से पार कर लिया है।  

जानवरों पर परीक्षण होने बाद इंसानों पर परीक्षण होने की बारी आती है। इंसानों पर होने वाले परीक्षण को ही क्लिनिकल ट्रॉयल कहा जाता है। इसके तीन फेज़ होते हैं। पहले फेज में 30 से कम लोगों पर परीक्षण किया जाता है। इस परीक्षण का मतलब केवल इतना होता है कि यह देखा जाए कि क्या वायरस शरीर के अंदर सेफ है या नहीं। अभी मौजूदा समय में दुनिया के हर कोने में कोरोना के वैक्सीन परीक्षण में जो सबसे आगे हैं वे इसी फेज में हैं। यानी इसी ट्रायल के दौरान यह खबरें आ रही है कि कोरोना का वैक्सीन बन चुका है। जबकि असलियत यह है कि अभी दो स्टेज को और पार करना है।

दूसरे स्टेज में जाँच के लिए सैकड़ों लोगों को लिया जाता है। इस स्टेज में यह समझा जाता है कि क्या वैक्सीन शरीर के अंदर सेफ रहते हुए एंटीबॉडी बना पा रहा है या नहीं।  इसके साथ यह भी देखा जाता है कि जो एंटीबाडी बन रहा है या जो इम्यून तैयार हो रहा है, वह शरीर के साथ सही तालमेल बिठा पा रहा है या नहीं।

इसके बाद तीसरा फेज़ आता है, जहां पर उन लोगों पर परिक्षण किया जाएगा, जो कोरोना से सच में संक्रमित हैं। चूँकि कोरोना से अब तक दुनिया में 50 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं इसलिए तीसरे फेज के ट्रायल को सही तरह से जांचने के लिए बहुत अधिक लोगों की जरूरत पड़ेगी, जो कि अब तक बनाये गए  किसी भी वैक्सीन के तीसरे फेज में जाँच के लिए इस्तेमाल के लिए लोगों से अधिक होगी । और यह बहुत लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है। इन दोनों फेज़ में वैक्सीन परीक्षण के हर स्तर पर कामयाबी मिलेगी तब भी अभी कोरोना का वैक्सीन बनने में छह महीने से अधिक का समय लगेगा।

अब वैक्सीन बनने के एक और पहलू को संक्षिप्त में समझते हैं। वायरस से लड़ने के लिए वैक्सीन बनाने के लिए तो पैसा मिल जाता है। सरकारें फंड करती हैं, टैक्सपेयर का पैसा इस्तेमाल होता है। इस वजह से दुनिया की लैब्रोटरी में सही तरीके से काम हो पाता है। लेकिन असली परेशानी वैक्सीन को हर जगह तक पहुँचाने की होती है। एड्स का वैक्सीन लैब में बनने के 10 से 15 साल बाद बाजार में पंहुचा। कौन सी कंपनी कितना वैक्सीन बनाएगी, किस दाम में बेचेगी? किसी देश को बेचेगी? कितने की जरूरत है? कौन सा देश पैसा नहीं दे सकता है? कहाँ मुनाफे की सम्भावना है और कहाँ नहीं है? ऐसे बहुत सारे सवालों का सही से जवाब नहीं मिलता है और न ही इनका सही हल निकल पाता है। इसलिए वैक्सीन बन जाने के बाद सबसे अधिक परेशानी वैक्सीन को आम लोगों तक पहुंचाने से जुड़ी होती है। पैसे, मुनाफे और आम लोगों के बीच यह खेल शुरू भी हो चुका है। मॉर्डना कम्पनी के शेयर की कीमत फरवरी के बाद से तीन गुना से अधिक हो गई है और शुक्रवार को बंद हुए स्तर के मुकाबले 240 फीसदी बढ़ी है। प्रीमार्केट ट्रेडिंग में, मॉडर्ना का शेयर शुक्रवार के 66.69 डॉलर के बंद भाव के मुकाबले 86.14 डॉलर पर खुला। कहने का मतलब है पैसे और मुनाफे का खेल नासूर न बने उससे पहले ही इस पर भी बातचीत करने की जरूरत है।  

( इस लेख से जुड़ी सारी जानकारी न्यूज़क्लिक के एडिटर इन चीफ़ प्रबीर पुरकायस्थ और इम्म्युनोलॉजी के विशेषज्ञ प्रोफेसर सत्यजीत रथ के बीच हुई बातचीत पर आधारित है। कई सारी वैज्ञानिक शब्दावलियों को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए सरल करने की कोशिश की गयी है। इसलिए तकनीकी क्षेत्र से जुड़े लोगों को कुछ कमियां दिख सकती हैं।) 

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