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क्या बेरोज़गारी की महा आपदा से ऐसे ही निपटा जाएगा ?
केंद्र सरकार के जॉब पोर्टल पिछले 40 दिनों में 69 लाख बेरोजगारों ने रजिस्टर किया जिसमें काम मिला 7700 को अर्थात 0.1% लोगों को यानी 1000 में 1 आदमी को।
 
लाल बहादुर सिंह
24 Aug 2020
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आज इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर के अनुसार, केंद्र सरकार के जॉब पोर्टल ASEEM ( Atmnirbhar Skilled Employee Employer Mapping) पर पिछले 40 दिनों में 69 लाख बेरोजगारों ने रजिस्टर किया जिसमें काम मिला 7700 को अर्थात 0.1% लोगों को यानी 1000 में 1 आदमी को।

केवल 14 से 21 अगस्त के बीच 1 सप्ताह में 7 लाख लोगों ने रजिस्टर किया जिसमें मात्र 691 लोगों को काम मिला, जो 0.1% यानी 1000 में 1 से भी कम है। अपनी अति महत्वाकांक्षी आत्मनिर्भर योजना के तहत प्रधानमंत्री ने 11 जुलाई को यह पोर्टल लांच किया था।

ये आंकड़े देश में आज बेरोजगारी की भयावह तस्वीर पेश करते हैं। जाहिर है आंकड़ों को दबाने -छुपाने और जुमलेबाजी से रोजगार नहीं पैदा होगा बल्कि सही नीतियों व कदमों के माध्यम से ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने से ही इसका समाधान होगा।

हाल ही में CMIE की ताजा रिपोर्ट में बताया गया कि मार्च से जुलाई के बीच देश में 1.9 करोड़ वेतनभोगियों की नौकरी चली गयी है और बेरोजगारी दर 9.1% पहुँच गयी है। यह अभूतपूर्व है। आज़ाद भारत में इतनी ऊँची बेरोजगारी दर कभी नहीं रही। दरअसल दुनिया के सबसे क्रूर और बिना सोचे-विचारे,  बिना योजना के लागू किये गए लॉकडाउन के फलस्वरूप एक समय तो यह बेरोजगारी दर 26%  के अकल्पनीय स्तर पर पंहुँच गयी थी, 14करोड़ लोग सड़क पर आ गए थे।

 

बहरहाल, लॉकडाउन खुलने के बाद असंगठित क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरों, स्वरोजगार आदि क्षेत्र में एक हद तक रोजगार के अवसरों की वापसी हुई लेकिन वेतनभोगी नौकरियां जो गयीं, सो गयीं। फिर उनका मिलना असम्भव हो गया। इसीलिए, इस मोर्चे पर स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है, अर्थशास्त्रियों का कहना है कि हालात अभी और बुरे होंगे।

दरअसल, CMIE के अनुसार वेतन भोगी जॉब लंबे समय से बढ़ नहीं रहे थे। पिछले 3 साल से वह 8 से 9 करोड़ के बीच गतिरुद्ध था। 2019-20 में यह 8.6 करोड़ था जो लॉकडाउन के बाद 21% गिरकर अप्रैल में 6.8 करोड़ पर आ गया और अब जुलाई के अंत तक और गिरकर 6.72 करोड़ तक आ गया है। इस तरह पिछले 4 महीने में 1 करोड़ 89 लाख नौकरियाँ चली गईं। दिहाड़ी मजदूरी के 68 लाख काम वापस नहीं आ पाए और बिजनेस में 1 लाख।

जाहिर है बेरोजगारी एक विराट आपदा बन कर आज देश के सामने खड़ी है।

इसे हल करने में नाकाम और अपनी नीतियों से इस संकट को और गहरा कर रही मोदी सरकार पूरी तरह denail mode में हैं, सच्चाई को छिपाने और तरह तरह के हथकंडों से युवाओं का और पूरे देश का ध्यान भटकाने की कोशिश कर रही है।

इसका पूरा एक पैटर्न है ज़िसे बड़ी कुशलता से क्राफ्ट किया गया है, गढ़ा गया है।

पहले तो इसने बेरोजगारी से सम्बंधित आंकड़े सार्वजनिक करना ही बंद कर दिया, इसी सवाल पर राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों पी सी मोहनन और जे वी मीनाक्षी ने आयोग से इस्तीफा दे दिया। ठीक इसी तरह NSSO ने जब मंदी की व्यापकता से सम्बन्धित आंकड़े सार्वजनिक किए जो अर्थव्यवस्था की खस्ताहाल सच्चाई बयान कर रहे थे,  जो जाहिर है सरकार के मनमाफिक नहीं थे तो NSSO को ही खत्म कर दिया गया और उसे सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स आफिस (CSO ) में मर्ज करके नया नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (NSO ) बना दिया गया जिसके प्रमुख Ministry of Skill and Programme Implementation विभाग के सचिव होंगे और यह संसद नहीं सरकार के प्रति जवाबदेह होगा !

फिर, प्रधानमंत्री और तमाम मंत्री अपने भाषणों, बयानों में अर्थव्यवस्था और रोजगार की मनगढ़ंत गुलाबी पिक्चर पेश करते हैं, बीच बीच में कपोल कल्पित करोड़ों नौकरियां देने की घोषणाएं की जाती हैं, उन्हें बाकायदा मीडिया में प्लांट किया जाता है, कुछ कुछ नौकरियों के विज्ञापन निकाले जाते हैं, बेरोजगारों से फार्म भरने के नाम करोड़ों वसूल किया जाता है, फिर लंबे समय तक चुप्पी रहती है, हो-हल्ला होने पर अनेक स्तरीय परीक्षाओं में से कुछ कुछ होती हैं, फिर रिजल्ट सालों लटका रहता है, रिजल्ट किसी तरह निकला भी तो कोई न कोई मुकदमा हो जाता है और फिर लंबे समय के लिए छुट्टी !

यह बेरोजगारी से नहीं, बेरोजगारों से निपटने की मोदी सरकार की रणनीति है जिसे उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में perfection के स्तर पर पहुंचा दिया गया है। आये दिन मुख्यमंत्री करोड़ों रोजगार देने की बात करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि प्रदेश में तमाम विभागों में लाखों पद खाली पड़े हैं उन्हें भरा नहीं जा रहा है। उनके साढ़े 3 साल के कार्यकाल में दर्जनों नौकरियों के लिए फार्म भरने के बाद अपवादस्वरूप ही कहीं कहीं भर्ती प्रक्रिया अंजाम तक पहुंच पाई है।

ध्यान भटकाने की एक नायाब कोशिश का नमूना देखिए। ठीक उस समय जब लगभग 2 करोड़ वेतन वाली नौकरियों (Salaried Jobs )के जाने की बात आम बहस में आई, मोदी सरकार ने राष्ट्रीय भर्ती प्राधिकरण (NRA ) की घोषणा कर दिया और भोंपू मीडिया ने उसे ऐसा लपका जैसे  नौकरियां जाने की समस्या का हल मिल गया और अब यह एजेंसी बनते ही नौकरियों की बारिश होने लगेगी! जबकि मामला महज इतना है कि अब सभी विभागों की बहुस्तरीय परीक्षाओं के लिए एक संयुक्त स्क्रीनिंग टेस्ट NRA के माध्यम से करवा लिया जाएगा।

इन्हीं सब diversionary कोशिशों के बीच सरकारें एक बेहद खतरनाक टैक्टिक्स अख्तियार करने की ओर बढ़ रही हैं।

हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एलान किया कि अब मध्य प्रदेश में सरकारी नौकरी केवल मध्य प्रदेश के लोगों को ही मिलेगी। एक पार्टी जो केवल और केवल अपने को प्रखर राष्ट्रवादी मानती है और बाकी सबको देशद्रोही, उसका एक प्रमुख राज्य का मुख्यमंत्री एलान कर रहा है कि भारत के ही दूसरे राज्यों के लोग वहां सरकारी नौकरी नहीं पा सकते! फिर राष्ट्रीय एकता का क्या होगा? एक राष्ट्र, एक कानून का क्या होगा? कल तक जो लोग पूरे देश को ललकार रहे थे कि कश्मीर में हम जमीन क्यों नहीं खरीद सकते, आज वे कानून बना रहे हैं कि उनके राज्य में कोई दूसरा नौकरी नहीं पा सकता। राष्ट्रीय विखंडन और पाखंड का इससे बड़ा दूसरा नमूना नहीं हो सकता। कल तक इसी तरह की बात तो मुंबई में शिवसेना वाले कहते थे और यूपी, बिहार, दक्षिण वालों को खदेड़ते थे? फिर अमेरिका जब अपने देश से वीसा कानूनों को सख्त बनाकर भारतीयों को नौकरियों से वंचित कर रहा है, तो आप कैसे उसका विरोध करेंगे ?

क्या यही राष्ट्रवाद है?

दरअसल, मेक इन इंडिया, 5 ट्रिलियन इकोनॉमी,  और अब आत्मनिर्भर भारत की जुमलेबाजी/लफ्फाजी के बावजूद नव-उदारवाद के संकटग्रस्त रास्ते पर बढ़ती अर्थव्यवस्था एक अंधी गली में फंस गयी है, इसमें कोढ़ में खाज का काम किया सनकभरी नोटबन्दी और गलत ढंग से लागू की गई जीएसटी ने। पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा कर बैठ गयी थी,  रही सही कसर कोरोना महामारी के दौर में मूर्खतापूर्ण ढंग से लागू किये गए लॉकडाउन ने पूरी कर दी। आज अर्थव्यवस्था की विकासदर शून्य से नीचे चली गयी है अर्थात अर्थव्यवस्था में नेट उत्पादन में वृद्धि की बजाय सिकुड़न (Net Contraction ) हो रही है।

ऐसी स्थिति में जब मैन्युफैक्चरिंग बैठ गयी है,  रोजगार कैसे बढ़ेगा? एक दौर में सर्विस सेक्टर में बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन हुआ था, परन्तु उत्पादक अर्थव्यवस्था जब पूरी तरह न सिर्फ गतिरुद्ध हो बल्कि तेजी से गिर रही हो, तब  सर्विस सेक्टर भी एक सीमा के बाद sustain नहीं कर सकता और रोजगार नहीं पैदा कर सकता।

हाल फिलहाल  पब्लिक सेक्टर को तोड़ा जा रहा है और उसे कारपोरेट को सौंपा जा रहा है, जाहिर है वहां भी रोजगार के अवसर तेजी से खत्म  होंगे।

आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स की नई टेक्नॉलजी की मदद से कारपोरेट का प्रॉफिट maximisation का अभियान रोजगार के अवसरों की युद्धस्तर पर हत्या करेगा।

शहरी नौकरियों, औद्योगिक व सेवाक्षेत्र के रोजगार के गंभीर संकट के इन हालात में आखिर कृषि क्षेत्र कितना बोझ उठाएगा?

CMIE के आंकड़ों में केवल कृषि क्षेत्र ऐसा है जहां लॉकडाउन पीरियड में 1 करोड़ 49 लाख रोजगार बढ़ा दिख रहा है। यह लॉकडाउन में शहर से बेरोजगार होकर गांव पहुंचे मजदूरों के कारण है, लेकिन यह वास्तव में disguished unemployment है। सच्चाई यह है कि देश के  कुल किसानों का 86.2% अर्थात 41.29 करोड़ किसान लघु सीमांत किसान हैं जिनके पास प्रति परिवार 5 एकड़ से भी कम जमीन है। जाहिर है किसी तरह कृषि से जुड़कर अपनी आजीविका कमाते इन किसानों का अच्छा खासा हिस्सा दरअसल surplus है, वह एक तरह से अर्ध बेरोजगार है, कृषि में समुचित रोजगार के अभाव में ही वह पलायन कर शहर जाता है और शहरी मजदूरों की आबादी में शामिल हो जाता है। मोदी सरकार कृषि क्षेत्र में हाल फिलहाल जो नीतिगत बदलाव कर रही है, उससे इन किसानों के दरिद्रीकरण और किसान से मजदूर में तब्दील होने की प्रक्रिया और तेज होती जाएगी।

बेरोजगारी की चरम हताशा में नौजवान अवसादग्रस्त हो रहे हैं और बड़े पैमाने पर खुदकशी की घटनाएं सामने आ रही हैं। पिछले दिनों अलवर में 4 युवा दोस्तों ने यह कहते हुए कि नौकरी तो मिलनी नहीं है, ट्रेन के आगे छलांग लगा लिया। यही बेरोजगार नौजवान फासीवादी विचारों के शिकार बनकर उनके हथियारबंद दस्तों का भी काम करते हैं।

आज पूरी युवा पीढ़ी को बेरोजगारी की महा आपदा से बचाने के लिए, अवसाद और फासीवाद का शिकार होने से बचाने के लिए बड़ी पहल की जरूरत है।

आज यही उचित समय है जब सब के लिए रोजगार की मांग पूरी शिद्दत के साथ उठनी चाहिए और रोजगार के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकार के बतौर स्वीकृति दिलाने के लिए बड़ा जन आंदोलन खड़ा होना चाहिए।

हमारे संविधान में गांधी जी के विशेष आग्रह पर रोजगार का अधिकार शामिल जरूर किया गया, लेकिन नीतिनिर्देशक सिद्धान्तों में, उसे मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं मिल सका।

संविधान जीवन का अधिकार तो देता है, पर जो जीवन की बुनियादी जरूरत है, रोजगार का अधिकार उसकी गारंटी नहीं करता। अब समय आ गया है कि इस दिशा में निर्णायक कदम उठाए जाए।

 

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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