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भारत
राजनीति
क्या भारत में 'गुणवत्ता' की तुलना में 'हेल्थकेयर तक पहुंच' बड़ी समस्या है
यहां तक बिल तथा मिलिंदा गेट्स फउंडेशन द्वारा वित्त पोषित अध्ययन स्वास्थ्य बीमा मॉडल को लागू करना चाहता है, वहीं विशेषज्ञों ने 'गुणवत्ता' के पक्ष को संदिग्ध बताया है।
न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
13 Sep 2018
nhs

मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि ज़्यादातर भारतीय हेल्थकेयर तक पहुंच अर्थात स्वास्थ्य सेवा का लाभ लाने की तुलना में हेल्थकेयर की ख़राब गुणवत्ता के चलते मर जाते हैं।

अध्ययन में 2016 के ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज स्टडी से आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। इस अध्ययन में "उत्तरदायी मौत"- का विश्लेषण किया गया है - ऐसी मौत जिसे एक अवस्था के बाद हेल्थकेयर से रोका जा सकता था। इसका विश्लेषण 137 निम्न आय तथा मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी)में किया गया।

इसका अनुमान है कि हेल्थकेयर द्वारा लगाए जा सकने वाले शर्तों के कारण साल 2016 में भारत में 2.4 मिलियन से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। अध्ययन किए गए देशों में सबसे ज्यादा "उत्तरदायी मौत" की संख्या है।

अध्ययन में कहा गया है कि इनमें से 1.6 मिलियन यानी 66% लोगों की मौत स्वास्थ्य सेवाओं की खराब गुणवत्ता के कारण हुई, जबकि 8,38,000 लोगों की मौत हेल्थकेयर सेवाओं की सुविधा न मिलने के कारण हुई।

जननी सुरक्षा योजना के उदाहरण का हवाला देते हुए अध्ययन में कहा गया है: "निम्न आय वाले देशों में सबूत उभर रहे हैं कि हेल्थकेयर कवरेज का विस्तार करने पर भी बेहतर परिणाम नहीं होते हैं, यहां तक कि चिकित्सा देखभाल के लिए अत्यधिक उत्तरदायी परिस्थितियों के बाद भी। भारत में 13 साल पहले लागू किए गए जननी सुरक्षा योजना नामक एक बड़े कार्यक्रम ने महिलाओं को अस्पतालों में बच्चों को जन्म देने के लिए नक़द प्रोत्साहन दिए गए हैं और 50 मिलियन से अधिक महिलाओं के लिए प्रसव सुविधा के कवरेज में वृद्धि की है, लेकिन इन प्रोत्साहनों ने मातृत्व या नवजात शिशुओं की ज़िंदगी को बेहतर नहीं किया है।"

 

 

उपर दिए गए उदाहरण से पता चलता है कि ये अध्ययन "कवरेज" के साथ "पहुंच" को मिश्रित कर रहा है।

 

 

वैश्विक स्तर पर एलएमआईसी में लगभग 8.6 मिलियन मौतों को उत्तरदायी के रूप में गिना जाता है - जिनमें से 5 मिलियन खराब गुणवत्ता के कारण थे,जबकि शेष पहुंच की कमी के कारण थे। ये अध्ययन पहली बार इंडियास्पेंड द्वारा रिपोर्ट किया गया था।

 

लेकिन ये अध्ययन- बिल एंड मेलिंदा गेट्स फाउंडेशन द्वारा दिया गया फंड - और इसका नियमन जिसकी पहुंच ज़्यादा प्रमुख समस्या नहीं है जो संपूर्ण भारत के सर्वे और रिपोर्ट की अधिकता का विरोध करता है जो यह स्पष्ट करता है कि स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बिल्कुल ही ख़राब है।

 

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह शोध यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज (यूएचसी) के संदर्भ में किया गया। यूएचसी स्वास्थ्य बीमा है जिसे विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसियों द्वारा विकासशील देशों में तेज़ी से आगे बढ़ाया जा रहा है।

यूएचसी के पीछे का विचार इन देशों में स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने के लिए लोगों पर वित्तीय बोझ को कम करना है जहां सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवा सेवाओं को ख़त्म (इसी तरह के अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा यूएचसी को आगे बढ़ाया जा रहा है) किया जा रहा है और जहां चिकित्सा और हेल्थकेयर पारिस्थितिक तंत्र का स्थान निजीकरण और निगमीकरण तेज़ी से ले रहा है।

 

ज़ाहिर है सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का मतलब है कि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने के लिए लागत बढ़ा है या बढ़ रहा है - चूंकि निजी कंपनियां अधिकतम लाभ के उद्देश्य से काम करती हैं, और विकासशील देशों में स्वास्थ्य बड़ा व्यवसाय है जिसने आबादी के चलते बड़े पैमाने पर संभावित बाजार का बड़ा आकार दिया है।

 

उदाहरण स्वरूप साल 2016 में भारतीय हेल्थकेयर बाज़ार क़रीब 100 बिलियन डॉलर का था और साल 2020 तक इसके 280 बिलियन डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है।

लेकिन अगर उपभोक्ताओं या संभावित उपभोक्ताओं- दूसरे शब्दों में इन देशों के नागरिक - की बड़ी आबादी आरंभ में स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च करने में असमर्थ हैं तो बाज़ार विफल हो जाएगा।

 

इसलिए ज़ाहिर है, उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय बीमा योजनाओं (बेशक निश्चित रूप से निजी बीमा कंपनियों द्वारा दिया जाना चाहिए) की आवश्यकता है कि सबसे ग़रीब लोग भी इन महंगी सेवाओं का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किए जाते हैं।

 

इस अध्ययन से पता चलता है कि यूएचसी बेहतर कवरेज को बेहतर करने और वित्तीय जोखिम को कम करने के बावजूद मृत्यु दर और बीमारी को कम नहीं करता है क्योंकि बीमा द्वारा स्वास्थ्य सेवा सेवाओं का कवरेज सेवाओं की गुणवत्ता की गारंटी नहीं देता है।

रिपोर्ट में कहा गया है, "यूएचसी पर वैश्विक चर्चा में गुणवत्ता की केंद्रीय भूमिका को अभी तक पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं मिली है और कई देशों में इसका मूल्यांकन किया जा रही है।"

इसलिए, लाभ लेना अब प्राथमिक चिंता नहीं है, बल्कि यदि यूएचसी सफल होना है तो केंद्र बिंदु को "स्वास्थ्य प्रणाली की गुणवत्ता में सुधार" में बदलाव करना चाहिए।

यह भारत के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है कि नरेंद्र मोदी सरकार अपने महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य बीमा योजना- आयु्ष्मान भारत-राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना की घोषणा की है जो इस महीने के अंत तक आरंभ होने की संभावना है।

लेकिन हेल्थकेयर का लाभ लेने का क्या मतलब है?

सेवा का लाभ लेने में सामर्थ्यता, उपलब्धता के साथ-साथ गुणवत्ता भी शामिल है। इसका मतलब है कि लोग- किसी देश में उनकी आर्थिक स्थिति या भौगोलिक स्थिति के निरपेक्ष – हेल्थकेयर सेवाओं का लाभ आसानी से उठा सकें जो बेहतर है। उदाहरण के लिए यूनाइटेड किंगडम की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा(एनएचएस)।

 

 

यदि स्वास्थ्य सेवा का लाभ लेना अब प्राथमिक मुद्दा नहीं था तो 2004 और 2014 के बीच हेल्थ केयर पर क्षमता से अधिक खर्च के कारण भारत में50.6 मिलियन लोगों को ग़रीबी रेखा से नीचे नहीं धकेला जाता।

 

 

बेशक, गुणवत्ता महत्वपूर्ण है लेकिन गुणवत्ता वित्त पोषण और संसाधनों का एक कार्य है। आप अपने हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार करने, हेल्थकेयर सेवा देने वालों को प्रशिक्षण देने, नवीनतम तकनीक प्राप्त करने और अस्पतालों और दवाखानों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के नेटवर्क का विस्तार करने के लिए जितना अधिक खर्च करेंगे उतना ही बेहतर आप हेल्थकेयर सेवाओं की गुणवत्ता प्राप्त करेंगे।

 

लेकिन भारत स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से एक है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारा खर्च हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 1.3% है जो वैश्विक औसत 6% काफी कम है। यहां तक कि डब्ल्यूएचओ जीडीपी के कम से कम 5% को सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च की सिफारिश करता है।

 

 

इस तरह ज़ाहिर है भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था गड़बड़ है। और निजी सेवाएं- जो पहुंच से बाहर है- लोगों को ग़ैर ज़रूरी प्रक्रियाओं में उलझा कर लाभ कमाने में जुटी है जिससे लोगों की जान को ख़तरा होता है।

 

लेकिन यह कहना ग़लत है कि लाभ लेना अब मुख्य मुद्दा नहीं है, क्योंकि विशेषज्ञों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यूएचसी लाभ लेने का ख्याल रखता है और अब बड़ा सवाल गुणवत्ता को लेकर है, क्योंकि यह अध्ययन कहता है।

उदाहरण के लिए, नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017 के आंकड़ों से पता चलता है - प्रत्येक 10,189 लोगों के लिए केवल एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर है, 2,046 लोगों के लिए एक सरकारी अस्पताल बेड और 90,343 लोगों के लिए एक सरकारी अस्पताल है। वास्तव में, इस अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 1.3 बिलियन लोगों के लिए 1 मिलियन से थोड़ा अधिक एलोपैथिक डॉक्टर हैं जिनमें से सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में लगभग 10% काम करते हैं।

 

न्यूजक्लिक से बात करते हुए जन स्वास्थ्य अभियान (पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट) के डॉ अमित सेनगुप्ता ने कहा, "ग्राउंड से पर्याप्त रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नहीं है। सिर्फ नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) के आंकड़े या नेशलन सेंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों पर ही नज़र डालें।"

 

उन्होंने कहा, "जहां तक निजी सेवाओं की बात है तो निजी सेवा उन स्थानों पर मौजूद नहीं है जहां वैसे लोग मौजूद नहीं हैं। निजी कंपनियां वहां तभी जाती हैं जहां वे पैसे कमा सकती हैं। इस तरह दूरस्थ, पिछड़े और / या सेवा विहीन क्षेत्रों में निजी कंपनियों को संचालित करने के लिए कोई प्रलोभन नहीं है। बड़ी संख्या में ऐसे क्षेत्र हैं जहां सार्वजनिक और निजी दोनों सुविधाएं मौजूद नहीं हैं, इसलिए किसी सेवाओं का लाभ नहीं मिलता है।”

 

"एक तरफ तो पर्याप्त सरकारी अस्पताल नहीं हैं और अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा सरकार द्वारा निवेश की कमी के कारण ठीक से काम नहीं करती है। लेकिन निजी प्रणाली में लोगों को भुगतान करना पड़ता है और इस तरह लाभ लेने में असमर्थ हैं। और गुणवत्ता बेहद संदिग्ध है।"

 

उन्होंने कहा, "इस अध्ययन में कहा गया है कि इस बिंदु पर केवल अफ्रीकी देशों में स्वास्थ्य सेवा का लाभ लेना सबसे बड़ी समस्या है, जबकि भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में यह मुद्दा सेवाओं की गुणवत्ता का है, जो सच नहीं है।"

आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना के संबंध में, विशेष रूप से - और सामान्य रूप से सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवाओं के स्थान पर सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य बीमा योजनाएं- न्यूजक्लिक ने कई बार इसे प्रकाशित किया है कि यह भारत के हेल्थकेयर की आवश्यकताओं का जवाब किस तरह नहीं है।

कई दस्तावेज़ और रिपोर्टें बताती हैं कि अतीत में मौजूदा सरकार-संचालित बीमा योजनाओं ने न केवल लोगों की बढती क्षमता से अधिक व्यय को समाप्त कर दिया है बल्कि वास्तव में इस बीमा योजना के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा पैसे हासिल करने के लिए अनावश्यक प्रक्रियाएं करने और अधिक जांच करने के लिए निजी अस्पतालों का नेतृ्त्व किया है।

 

यहां तक कि स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण पर संसदीय स्थायी समिति की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि आयुष्मान भारत - जिसका लक्ष्य सेकेंडरी तथा टर्शियरी हॉस्पिटल में भर्ती के लिए दस करोड़ परिवारों के लिए प्रत्येक वर्ष प्रति परिवार 5 लाख रुपए (लगभग 50 करोड़ लाभार्थी) देने का लक्ष्य है - मौजूदा बीमा योजनाओं से ज़्यादा "लाभ" देने वाला नहीं है।

 

 

तब बेशक मूल समस्या है कि सामान्य रूप से बीमा योजनाएं, और विशेष रूप से आयुष्मान भारत, केवल सेकेंडरी तथा टर्शियरी हॉस्पिटल में भर्ती (इनपेशेंट केयर) को कवर करता है, भले ही अधिकांश स्वास्थ्य खर्च प्राइमरी या प्रिवेंटिव केयर पर होता है।

 

जैसा कि स्वास्थ्य अर्थशास्त्री इंद्रनील मुखर्जी ने न्यूज़क्लिक को पहले बताया था, "हेल्थकेयर सेवाओं पर लोगों से 100 रुपए खर्च का मतलब है, 60प्रतिशत बाह्य रोगी और प्रिवेंटिव केयर पर, जबकि केवल 40 प्रतिशत ही रोगी की देख रेख या अस्पताल में भर्ती पर खर्च होता है।"इसके अलावा, यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि सशक्त प्राइमरी केयर एक मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की नींव है।

 

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