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भारत
राजनीति
क्या गोडसे को लेकर प्रज्ञा का बयान बीजेपी की 'चेक एंड बैलेंस' नीति का हिस्सा है?
2014 में बीजेपी की सरकार आने के बाद से ही यह सिलसिला रहा है कि पहले पार्टी अपने छुटभैया और बड़बोले नेताओं से बेतुके बयान दिलवाकर जनता का रिएक्शन चेक करती है। अगर जनता का रिएक्शन ठीक रहा तो यह न्यू नॉर्मल, नहीं तो पार्टी निजी राय बता देती है या फिर माफी मांग लेती है।
अमित सिंह
17 May 2019
फाइल फोटो

नाथूराम गोडसे को लेकर देश की जनता में किसी तरह का कोई कनफ्यूजन नहीं है। देश की आजादी के कुछ ही सालों बाद ही गोडसे का मामला खत्म हो चुका है। गोडसे एक हत्यारा था और उसे फांसी हुई थी। 

पिछले सात दशकों में गोडसे पर तमाम किताबें, नाटक, लेख लिखे गए। लेकिन उसमें से किसी में भी उसके कृत्य को जायज नहीं ठहराया गया है। इन सबके बावजूद देश के कुछ कथित राष्ट्रवादी लगातार गोडसे को महिमामंडित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। हालांकि उन्हें हर बार मात खानी पड़ती है लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आते हैं। 

ताजा मामला भोपाल से बीजेपी उम्मीदवार और 2008 के मालेगांव आतंकवादी बम विस्फोटों की एक आरोपी प्रज्ञा ठाकुर का है। प्रज्ञा का यह बयान उस समय आया जब उनसे अभिनेता से नेता बने कमल हासन के गोडसे को पहला हिंदू आतंकी बताने पर प्रतिक्रिया मांगी गई। 

प्रज्ञा ने कहा, 'नाथूराम गोडसे देशभक्त थे, देशभक्त हैं और देशभक्त रहेंगे। उन्हें हिंदू आतंकवादी बताने वाले अपने गिरेबान में झांककर देखें। अबकी बार चुनाव में ऐसे लोगों को जवाब दे दिया जाएगा।'

इस बयान के बाद बीजेपी की काफी किरकिरी होनी शुरू हो गई। पार्टी के शीर्ष नेता तुरंत हरकत में आए और नफा-नुकासन का अंदाज़ा लगाकर उन्होंने प्रज्ञा ठाकुर के बयान से खुद को अलग कर लिया। बीजेपी के जीवीएल नरसिम्हा राव ने कहा कि पार्टी साध्वी प्रज्ञा के बयान से सहमत नहीं है। हम इस बयान की निंदा करते हैं। राव ने कहा कि पार्टी उनसे इस मामले में सफाई देने को कहेगी।

इसके बाद प्रज्ञा ने माफी मांगते हुए कहा था, 'मैं नाथूराम गोडसे के बारे में दिए गए मेरे बयान के लिए देश की जनता से माफी मांगती हूं। मेरा बयान बिलकुल गलत था। मैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का बहुत सम्मान करती हूं।'

इस बीच एक घटना और हो गई। नाथूराम गोडसे पर प्रज्ञा सिंह के बयान का बचाव करते हुए केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने पहले विवादित बयान दिया। फिर सफाई में अनंत कुमार ने कहा कि उनका ट्विटर अकाउंट हैक हो गया था।

अनंत कुमार हेगड़े ने पहले ट्वीट किया था कि गोडसे के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत है और माफी मांगने की जरूरत नहीं है।

अनंत कुमार हेगड़े का कहना है कि उनका ट्विटर अकाउंट हैक हो गया था। अनंत कुमार हेगड़े ने गोडसे पर किए गए ट्वीट भी डिलीट कर दिए। अनंत कुमार हेगड़े ने सफाई में कहा कि गांधी के हत्यारे के लिए कोई सहानुभूति नहीं हो सकती है।

सिलसिला यही नहीं थमा। कर्नाटक बीजेपी के सांसद नलिन कुमार कतील तो और भी कई कदम आगे निकले। उन्होंने गोडसे की तुलना राजीव गांधी से कर दी। नलिन ने गुरुवार को कहा, 'गोडसे ने एक को मारा, कसाब ने 72 को मारा, राजीव गांधी ने 17 हजार को मारा। अब आप खुद तय कर लो कि कौन ज्यादा क्रूर है।'

इसके बाद बीजेपी की तरफ से मोर्चा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने संभाला। शाह ने अपने ट्वीट में कहा कि विगत दो दिनों में अनंतकुमार हेगड़े, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और नलिन कतील के जो बयान आये हैं वो उनके निजी बयान हैं, उन बयानों से भारतीय जनता पार्टी का कोई संबंध नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘इन लोगों ने अपने बयान वापस लिए हैं और माफी भी मांगी है। फिर भी सार्वजनिक जीवन तथा बीजेपी की गरिमा और विचारधारा के विपरीत इन बयानों को पार्टी ने गंभीरता से लेकर तीनों बयानों को अनुशासन समिति को भेजने का निर्णय किया है।’

हालांकि अगर अनंत कुमार हेगड़े कह रहे हैं कि उनका ट्विटर अकाउंट हैक हो गया था तो हम मान लेते हैं लेकिन उस ट्रेंड को भी समझने की कोशिश करते हैं कि जो 2014 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद इसके छोटे—बड़े नेता करते रहे हैं। 

ये वही अनंत कुमार हेगड़े हैं जिन्होंने कर्नाटक विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले बयान दिया था कि हम संविधान में बदलाव करने के लिए सत्ता में आए हैं। जब इस बयान पर विवाद बढ़ा तो उन्होंने माफी मांग ली। 

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वैसे यह इकलौता मामला नहीं है। देश के कई विवादित और गैर विवादित मुद्दों पर बीजेपी यही रणनीति अपनाती दिखाई पड़ती है। संविधान, धारा 370, आरक्षण, कश्मीर, समान नागरिक संहिता, राम मंदिर, नेहरू, गांधी, पटेल जैसे तमाम मुद्दों पर बीजेपी के नेता पहले कुछ भी उल्टा सीधा बयान देते हैं। 

फिर बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व इन बयानों पर जनता का रिएक्शन देखता है। अगर रिएक्शन उनकी उम्मीदों के अनुरूप रहा तो यह देश में न्यू नॉर्मल हो जाता है और अगर यह रिएक्शन विपरीत रहा तो पार्टी खुद को उस बयान से अलग कर लेती है और कहती है कि नेता अपने इस बयान के लिए माफी मांगे। 

गोडसे, बीजेपी और संघ परिवार 

हम फिर से वापस गोडसे पर आते हैं। गोडसे को लेकर बीजेपी और संघ परिवार में भी कोई कनफ्यूजन नहीं है। उन्हें गोडसे से कोई प्रेम नहीं है (हालांकि गांधी जी से काफी दिक्कत है)। गोडसे और उनके परिजन भले ही लाख बार यह दावा करें कि उनकी जड़ें संघ परिवार से जुड़ी हुई हैं लेकिन संघ परिवार उनसे अपना पल्ला झाड़ चुका है। 

दरअसल महात्मा गांधी 30 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिड़ला भवन में शाम की प्रार्थना में शामिल होने जा रहे थे। इसी दौरान नाथूराम विनायक गोडसे ने गांधी को गोली मार दी थी।

केंद्र सरकार के आदेश पर गांधी की हत्या से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए लाल किले के भीतर एक विशेष अदलत का गठन किया गया था।

यहीं हुई अदालती सुनवाई में आठ लोगों को दोषी ठहराया गया। गोडसे और हत्या की साज़िश रचने वाले नारायण आप्टे को हत्या के अपराध के लिए 15 नवंबर, 1949 को फांसी दी गई।

नाथूराम गोडसे किसी ज़माने में आरएसएस का सदस्य रहा था, लेकिन बाद में वो हिंदू महासभा में आ गया, हालांकि 2016 में आठ सितंबर को इकनॉमिक टाइम्स को दिए इंटरव्यू में गोडसे के परिवार वालों ने कहा था कि 'गोडसे ने न तो कभी आरएसएस छोड़ा था, और न ही उन्हें निकाला गया था।'

नाथूराम गोडसे और विनायक दामोदर सावरकर के वंशज सत्याकी गोडसे ने 'इकनॉमिक टाइम्स' को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'नाथूराम जब सांगली में थे तब उन्होंने 1932 में आरएसएस ज्वाइन किया था। वो जब तक जिंदा रहे तब तक संघ के बौद्धिक कार्यवाह रहे। उन्होंने न तो कभी संगठन छोड़ा था और न ही उन्हें निकाला गया था।'

गांधी की हत्या में सह-अभियुक्त और आजीवन कारावास की सजा पाए उनके भाई गोपाल गोडसे ने दावा किया था कि वे आरएसएस का हिस्सा रहे हैं। फ्रंटलाइन को दिए एक साक्षात्कार में गोपाल गोडसे ने कहा,' हम सारे भाई आरएसएस से जुड़े थे। नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद।'

उन्होंने कहा, 'आप कह सकते हैं कि हम अपने घर के बजाय आरएसएस में बड़े हुए। आरएसएस हमारे लिए परिवार जैसा था। नाथूराम आरएसएस में बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे। अपने बयान में नाथूराम ने कहा कि उन्होंने आरएसएस छोड़ दिया है। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आरएसएस मुसीबत में फंस गए थे। लेकिन उन्होंने कभी आरएसएस नहीं छोड़ा था।'

गोडसे की सदस्यता का पता लगाने की समस्या जटिल इसलिए है कि 1940 के दशक में आरएसएस में गोपनीयता का परदा था।

इसके बारे में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के 12 दिसंबर 1948 को सरदार पटेल को लिखी चिट्ठी से साफ पता चलता है। (Dr Rajendra Prasad, Correspondence and Select Documents, Volume 10, page 182-183, Allied Publishers)

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति बने। पटेल को लिखे पत्र में प्रसाद कहते हैं कि सरकार को जनता के सामने यह जरूर स्पष्ट करना चाहिए कि आरएसएस पर यह कार्रवाई क्यों की गई है। गौरतलब है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

यानी यह बिल्कुल साफ है कि गोडसे के जिंदा रहते समय ही आरएसएस ने उनसे इतनी दूरी बना ली थी कि उस पर कोई आंच न आए। 

फिर अभी गोडसे क्यों?

सवाल यही है कि जब बीजेपी और संघ परिवार समेत अतिवादी हिंदू संगठनों ने गोडसे से पर्याप्त दूरी बना ली है तो फिर अभी उनकी चर्चा करने से क्या फायदा है?

दरअसल भारतीय जनमानस में स्वीकार्यता बनाने के लिए इन संगठनों को गांधी के नाम का सहारा लेना पड़ा। बीजेपी के अभी के नेता गांधी के नाम पर सफाई अभियान चला रहे हैं तो संघ परिवार ने 80 के दशक में ही खुद को गांधी से जोड़ लिया था। 

जब इन्हें गांधी के नाम पर स्वीकार्यता मिल गई तो अब उन्हें लगता है कि गोडसे का राजनीतिक इस्तेमाल किया जाए। दरअसल एक झूठ कुछ अतिवादी हिंदू संगठनों ने पिछले करीब 70 सालों में ये फैलाया है कि गांधी मुस्लिमों के हितैषी थे, इसलिए गोडसे ने उनकी हत्या की थी। और उसने हिंदू हितों के लिए बलिदान दिया था। 

अभी जब चुनाव में बीजेपी को लग रहा है कि उसे पराजय का सामना करना पड़ सकता है तो वह जीत के लिए हर दांव चल रही है। इसी के तहत ऐसी बयानबाजी की गई है। इस चुनाव में गोडसे का जिक्र करने का फायदा सिर्फ इतना है कि एक सांप्रदायिक और हिंदू राष्ट्रवाद की डिबेट चल पड़ेगी जिसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है। 

लेकिन जब बीजेपी इस नैरेटिव का इस्तेमाल कर रही है तो यह भूल जा रही है कि इस देश की बहुसंख्यक जनता ने हमेशा गोडसे के हिंदुत्व को नकार दिया है और गांधी के हिंदू दर्शन में अपनी आस्था व्यक्त की है। 

फिलहाल बीजेपी को अपने इस अभियान में मुंह की खानी पड़ सकती है क्योंकि देश की बहुसंख्यक जनता के लिए गोडसे सिर्फ एक हत्यारा है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।  

 

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