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भारत
राजनीति
क्या हर साल आने वाली बाढ़ बिहार का प्रमुख चुनावी मुद्दा नहीं होना चाहिए?
नई सरकार बनने को अब सिर्फ दो महीने बाकी हैं और बिहार के लोगों के पास भी बाढ़ की आपदा से जूझने के लिए सिर्फ दो ही महीने बचे हैं।
देवपालिक कुमार गुप्ता
31 Mar 2019
सांकेतिक तस्वीर
फाइल फोटो : साभार

बिहार लगभग हर साल बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं से जूझता है। गंगा , गंडक , कोसी नदी की बाढ़ से लोग हर साल तबाह रहते हैं। जानकारों की माने तो बाढ़ का मुख्य कारण नदी में जमा गद (बालू) है। गाद की वजह से वर्षा का पानी नदियों में उफान लाता है जिसके कारण से आस-पास का इलाका   तबाह हो जाता है। गाद के समस्या से स्थायी समाधान के बजाय गाद को नदी से निकालकर फिर नदी में ही डाल दिया जाता है। 

बिहार में लोकसभा की कुल वस्तुएं हैं। जो केंद्र की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं, लेकिन बिहार की बाढ़ की समस्या कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती। देश में पहले दौर के मुकाबले नज़दीक है और नई सरकार बनने को अब सिर्फ कुछ महीने बाकी हैं। बिहार के लोगों के पास भी इस आपदा से जूझने के लिए सिर्फ कुछ ही महीने हैं।

मौजूदा सरकार में किसान , छात्र और शिक्षक कई बार सड़क पर उतरे। इससे साफ जाहिर है कि सरकार खेती-किसानी , शिक्षा , बेरोजगारी और बुनियादी सुविधा दे पाने में विफल रही है। जैसा कि 2014 में वादे किए गए थे। जब सफलता हाथ नहीं लगती है तो दूसरे की असफलताओं को आगे लाया जाता है। इस चुनाव में भी यही हो रहा है। पुरानी सरकारों के विफलताओं को गिनाया जा रहा है। बिहार के लिए पार्टियाँ अपने-अपने घोषणा पत्र में इन आपदाओं के लिए कोई जगह देंगी ?

चुनाव में नेता इस प्रकार की बात क्यों नहीं करते ? देश में मंदिर-मस्जिद सब पर बात होती है, लेकिन बुनियादी मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है ? 

जाहिर है बिहार में भी लोगों को उनके मूल मुद्दों से भटकाने की कोशिश की जाएगी।

आज की राजनीति का हाल यह है कि बिना पैसे के चुनाव लड़ पाना असंभव सा है। बाढ़ से प्रभावित लोग कौन हैं ? जिनके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे कहीं और बस जाएं। कहीं नहीं और ज़मीन नहीं है। ये सभी लोग संसाधनविहीन लोग हैं। चुनाव लड़ने जैसी बात तो इनसे कोसों दूर है। जो भी राज्य और केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व चुनकर आता है उनके बीच का नहीं होता है। शायद यही कारण है कि जिस तरह की सवेंदशीलता दिखना चाहिए, अधिकारियों में उस तरह की नहीं दिखती। 

बिहार के लोगों को अपनी समस्याओं के प्रति सजग होते हुए अन्य सभी मुद्दों को भूल जाना चाहिए। सरकार बदलने की बारी तो पांच साल बाद आएगी। 

वैसे तो बिहार में कई समस्याएं हैं लेकिन सबसे बड़ी समस्या बाढ़ और सूखा है। एक ओर राज्य की 50 फ़ीसदी आबादी हर साल बाढ़ के ख़तरे में रहती है तो दूसरी ओर सूखे की समस्या से जूझती है। यहां गरमियां शुरू होते ही सूखे की समस्या शुरू हो जाती है और बरसात आते ही बाढ़ का सामना करना पड़ता है। सालों से चली आ रही इन समस्याओं पर सरकार के तमाम दावों के बावजूद हालात जस के तस हैं। 2017 में बाढ़ के कारण बिहार में 400 से भी अधिक लोगों की मौत हुई थी। उधर, कम बारिश के कारण बिहार के 23 जिले तथा 203 ब्लाक के किसान सबसे अधिक प्रभावित हुए थे, जिनकी अनुमानित संख्या 10 लाख थी। साल 2016 में 250 लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा साल दर साल जस का तस है।

बिहार आपदा प्रबंधन विभाग के आकड़ों के मुताबिक बिहार राज्य के 15 जिले अति बाढ़ प्रवण जिलों की सूची में हैं जबकि 28 जिलें बाढ़ प्रवण से प्रभावित हैं। अमूमन हर साल बिहार बाढ़ जैसी भयंकर आपदा से जूझता है। 

बाढ़ की वजह से दो से तीन महीना आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।खासकर उत्तर बिहार के लोगों का। लोग आम दिनों में तीन समय भोजन करते हैं। बाढ़ में सिर्फ एक समय भोजन के नाम पर चूड़ा और गुड़ (मीठा) मिल पाता है। कई लोग ऐसे हैं जो पानी में चावल डाल मठ्ठा बनाकर पेट पालने को मजबूर होते हैं। बाढ़ की वजह से लोगों को शौच करने तक की जगह नहीं मिल पाती। पानी में खड़े-खड़े शौच करना पड़ता है। करोड़ों की फ़सल बर्बाद हो जाती है। 2008 में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, बाढ़ की वजह से 34 करोड़ की फसलें तबाह हुईं थी। बाढ़ के पानी से रखा अनाज सड़ जाता है। बच्चों के स्कूल बंद हो जातें हैं। महीनों तक उनकी पढ़ाई बाधित हो जाती है। बाढ़ के समय बीमारियाँ बहुत तेजी से फैलती हैं जैसे- सर्दी, खांसी, जुकाम, बुखार, उल्टी-दस्त, मलेरिया, डायरिया। पीने का शुद्ध पानी नसीब नहीं होता। 

स्वास्थ्य व्यवस्था ठप हो जाती है। दवाई तक नहीं मिल पाती। कोई अकस्मात बीमार पड़ जाए तो अस्पताल जाने के लिए कोई साधन नहीं मिल पाता। सड़के नदी में तब्दील हो जाती हैं। नाव और खाट पर सुलाकर लोग अस्पताल ले जाते हैं। देरी की वजह से कई बार मरीज़ रास्ते मे ही दम तोड़ देता हैं। पानी में मवेशी बह जाते हैं। चारे के आभाव में मवेशी दम तोड़ देते हैं। बाढ़ खत्महो जाने के बाद भी लोगों की परेशानियां कम नहीं होती। चारो तरफ कीचड़ ही कीचड़। गन्दगी में जन्में कीड़े-मकोड़े लोगो के लिए अनेको बीमारियाँ लेकर आते हैं। पानी का लेबल इतना ऊपर आ जाता है कि नलों से गंदा पानी आने लगता हैं। कई बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में पुल न होने से लोगों को दूसरी तरफ जाने में नाव का सहारा लेना पड़ता है। नाव पलटने से कई लोगो की जान तक चली जाती हैं। उलटे सरकार के उदासीन रवैये से ज्यादातर लोगों को निराशा ही हाथ लगती है।

सरकार बाढ़ आने पर आनन-फानन में अस्थायी समाधान तो कर देती है लेकिन कभी ठोस कदम नहीं उठाया गया है। हर साल बाढ़ से लाखों का जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित होता है। सरकार जागती तभी है जब काफी क्षति पहुंच चुकी होती है। सवाल पूछने पर कभी नेपाल को दोष देते हैं तो कभी चूहे को देते हैं कि चूहे ने बांध काट दिया। वही हाल कमोबेश दूसरे प्राकृतिक आपदा सूखा के साथ है। सरकार मुआवजा देना ही अपना काम समझती है।

पर्यावरण के जानकार और “आज भी खरे हैं तालाब” किताब लिखने वाले अनुपम मिश्र कहते हैं,“बाढ़ अतिथि नहीं है। यह अचानक नहीं आती। इसके आने की तिथियाँ बिल्कुल पक्की हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते है कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करना चाहिए, वे बिल्कुल नहीं कर पाते” 

बिहार की मौजूदा सरकार और केंद्र के मोदी सरकार में गठबंधन है इसलिए बिहार को चाहिए कि वे सिर्फ उन्ही मुद्दों को तवज्जो दे जिससे वे वर्षों से जूझ रहे हैं।

ऐसे समय में जब चुनाव नजदीक है तो बिहार के लोगों के पास अच्छा मौका है जब वे अपना वोट बाढ़ , सूखा जैसे बुनियादी समस्याओं के समाधान के लिए अनुमति दें। 

बिहार के लोगों के लिए नदियों के बाँधों की बेहतर मरम्मत की ज़रूरत हैं न कि मंदिर और मस्जिद की। जब मनुष्य ही नहीं रहेगा तो मंदिर का घंटा कौन बजाएगा और मस्जिद में इबादत कौन करेगा ? बिहार के लोगों को वोट देने से पहले अपने जीवन के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए। अपने बच्चों के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए जो बाढ़ और सूखे में भूखों मरते हैं। मंदिर और मस्जिद के बारे में सोचने का अभी बहुत वक़्त है। 

(लेखक पत्रकारिता के छात्र हैं।)

 

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