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भारत
राजनीति
क्यों कमज़ोर पड़ी पत्रकार संगठनों की आवाज़?
मौजूदा दौर में ज़मीन पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की समस्याएं बढ़ी हैं। उनके ऊपर मुकदमें दर्ज किए जा रहे हैं। सत्ता में बैठे लोग मीडिया को सिर्फ़ अपने प्रचार-प्रसार का माध्यम समझ रहे हैं। इस कठोर समय में पत्रकार संगठनों की आवाज़ भी कमज़ोर पड़ रही है।
असद रिज़वी
18 Sep 2019
UP Press club

उत्तर प्रदेश में अघोषित आपातकाल जैसे हालात हैं। नागरिकों के हित में और सरकारी गड़बड़ी के ख़िलाफ़ ख़बरें लिखने और दिखाने पर मीडियाकर्मियों पर क़ानूनी कार्रवाई की जा रही है। सत्ता में बैठे लोग मीडिया को सिर्फ़ अपने प्रचार-प्रसार का माध्यम समझ रहे हैं। इस कठोर समय में पत्रकार संगठनों की आवाज़ भी कमज़ोर पड़ रही है। ऐसे में सत्ता से सवाल करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता जा रहा है।

ज़िले में काम कर रहे संवाददाताओं पर स्थानीय प्रशासन दबाव बनाकर ख़बरें रुकवाने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में कई प्रश्न उठ रहे हैं? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था बिना सशक्त मीडिया के सम्भव है? प्रदेश के विभिन हिस्सों से पत्रकारों के  ख़िलाफ़ कार्रवाई की ख़बरें आ रही हैं,लेकिन दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? ऐसे हालात में क्या भविष्य में स्वतंत्र पत्रकारिता संभव है?

इधर उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के विरुद्ध कार्रवाई का सिलसिला ज़्यादा तेज़ हो गया है, बीते तीन सप्ताह में ही क़रीब पांच ज़िलों में पत्रकारों पर कार्रवाई हुई है। मेरठ, अलीगढ़, बिजनौर, मिर्ज़ापुर, और आजमगढ़ से पत्रकारों के विरुद्ध कार्रवाई के समाचार प्राप्त हुए हैं।

मिर्ज़ापुर-बिजनौर

मिर्ज़ापुर की घटना पर मीडिया में भी काफ़ी चर्चा हुई,लेकिन दोषी अधिकारियों के बदले पत्रकार पर ही मुक़दमा लगा दिया गया। मिर्ज़ापुर में मिड डे मील में कथित धांधली की ख़बर दिखाने वाले पत्रकार पवन जयसवाल के विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई का मामला ख़त्म भी नहीं हुआ था की, बिजनौर ज़िले में फ़र्ज़ी ख़बर दिखाने का आरोप लगाकर पांच पत्रकारों के विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज करने का समाचार आ गया।

बिजनौर में पत्रकारों पर मुक़दमा इस लिए दर्ज किया गया क्यूँकि पत्रकार ने एक ख़बर की थी, जिसमें एक गांव में वाल्मीकि समाज के लोगों को सार्वजनिक नल से पानी भरने के लिए रोका जा रहा था।

नोएडा

देश की राजधानी दिल्ली के पड़ोसी शहर नोएडा में भी कुछ पत्रकारों को गिरफ़्तार करके उनके ख़िलाफ़ गैंगस्टर ऐक्ट लगाने का मामला हाल में ही सामने आया था।

आज़मगढ़

इसके अलावा आज़मगढ़ ज़िले में एक पत्रकार की ख़बरों से नाराज़ ज़िला प्रशासन ने उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर मुक़दमा दर्ज कर लिया और बाद में पत्रकार को गिरफ़्तार कर लिया गया।

कमज़ोर पड़ते पत्रकार संगठन

कई दशकों से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार भी मानते हैं की उत्तर प्रदेश में पत्रकार संगठनों की आवाज़ कमज़ोर पड़ती जा रही है। 

बीबीसी हिंदी के पूर्व ब्यूरो चीफ रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं योगी आदित्यनाथ सरकार को आलोचना पसंद नहीं है। इसीलिए पुलिस का दुरुपयोग कर पत्रकारों को फ़र्ज़ी मुक़दमे में फँसाया जा रहा है। त्रिपाठी कहते हैं कि लोकतंत्र में पत्रकार की स्वतंत्रता वास्तव में नागरिकों की आज़ादी होती है। 

कई वर्षों तक पत्रकार संगठनों में सक्रिय रह चुके त्रिपाठी कहते हैं की पत्रकार संगठनों के कमज़ोर होने का सीधा लाभ सरकार को मिल रहा है। संगठन कमज़ोर हो गए इसी लिए शासन-प्रशासन पत्रकारों की स्वतंत्र आवाज़ को दबाने की हर संभव कोशिश कर रहा है।

इसके अलावा स्वतंत्र पत्रकारिता को रोकने के लिए मीडिया घरानों और समाचार संपादकों पर दबाव बनाकर कर भी मीडिया पर नियंत्रण करने की निरंतर कोशिश की जा रही है।

ज़मीन पर काम करने वाले पत्रकारों की समस्या बढ़ी है

वरिष्ठ पत्रकार मानते हैं कि मौजूदा दौर में ज़मीन पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की समस्याएँ बढ़ी हैं। उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के पूर्व महामंत्री सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि बुनियादी मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की परेशनियाँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि ज़मीन से ख़बर करने वाले पत्रकारों के विरुद्ध ही कार्रवाई हो रही है। कलहंस कहते हैं कि जो सरकार के विरुद्ध लिख रहा है, उस पर मुक़दमे किए जा रहे हैं।

कलहंस कहते हैं अब केवल ज्ञापन देने और सोशल मीडिया पर ट्वीट करने से समस्या हल नहीं होगी। पत्रकार संगठनों को मज़बूती से पत्रकारों के विरुद्ध हो रही कार्रवाईयों का विरोध करना होगा, वरना आने वाला समय और भी ख़राब होगा।

मेरठ में काफ़ी समय से पत्रकारिता कर रहे जैग़ाम मुर्तज़ा कहते हैं कि अब हर रोज़ नई चुनौती रहती है। सरकारी अधिकारी मीडिया को सिर्फ़ अपने प्रचार प्रसार का माध्यम समझने लगे हैं। ऐसा लगता है कि विधायका अब मीडिया को अपने नियंत्रण में करना चाहती है। जैग़ाम कहते हैं अब तो सूचना के अधिकार से भी पत्रकारों को सही जानकारी नहीं मिल रही है। अधिकारी पत्रकारों को मिलने का समय भी नहीं देते हैं और अप्रिय ख़बरों पर दबाव बनाने की कोशिश भी करते हैं।

सही मंच पर शिकायत हो, कार्रवाई नहीं

कई पत्रकार मानते हैं की अगर ख़बर पर कोई आपत्ति है तो उसकी सही मंच पर शिकायत करना चाहिए है, क़ानूनी कार्रवाई करना ग़लत है। 

उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के पूर्व अध्यक्ष प्रांशु मिश्रा कहते हैं कि अगर किसी ख़बर पर आपत्ति है तो उसकी शिकायत प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया में या एडिटर गिल्ड में होनी चाहिए है। सही मंच पर शिकायत न करके पत्रकार के विरुद्ध कार्रवाई करना मीडिया की स्वतंत्रता पर खुला हमला है। 

प्रांशु कहते हैं कि सबसे ज़्यादा ज़िला संवाददाताओं को निशाना बनाया जा रहा है, क्यूँकि वह समाचारपत्रों और टीवी चैनल के लिए ख़बर का एक महत्वपूर्ण ज़रिया होते हैं। कई दशक से मीडिया में काम कर रहे प्रांशु कहते है की अगर पत्रकारों पर कार्रवाई का सिलसिला नहीं रुका तो लोकतंत्र को बड़ा नुक़सान होगा।

पत्रकार संगठनों की ख़ामोशी घातक

कुछ पत्रकार मानते हैं कि अगर पत्रकार संगठन ख़ामोश रहे तो भविष्य में स्वतंत्र पत्रकारिता करने में और कठिनाई होगी। उत्तर प्रदेश में चार दशकों से पत्रकारिता करने वाले हुसैन अफ़सर कहते हैं कि पत्रकार संगठन पत्रकारों के सभी प्रश्नों रोज़गार से लेकर सुरक्षा तक पर ख़ामोश हैं।

उन्होंने कहा कि सरकार और अधिकारी केवल उन पत्रकारों को पसंद करते हैं, जो उनके कामों की सराहना करते हैं। जो पत्रकार स्वतंत्रता से काम करते हैं और सरकार की आलोचना करते हैं उनको मुक़दमों में फंसाया जा रहा है। अगर पत्रकार संगठन इसके विरुद्ध नहीं खड़े हुए तो यह पत्रकारिता और लोकतंत्र दोनो के लिए घातक होगा।

पत्रकार संगठन भी मानते हैं कमज़ोर पड़ी है आवाज़

पत्रकार संगठन भी इस बात से इंकार नहीं करते हैं कि उनकी आवाज़ कमज़ोर पड़ी है। उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के हेमंत तिवारी कहते हैं कि कई बार पत्रकारों के उत्पीड़न के लिए आवाज़ उठी लेकिन हर बार सरकार की तरफ़ से सिर्फ़ आश्वासन मिला है। उन्होंने कहा की मिर्ज़ापुर में पत्रकार के साथ ग़लत हुआ है, और यह सारी दुनिया को दिख रहा है, लेकिन मुख्यमंत्री आदित्यनाथ इसको स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट के उपाध्यक्ष तिवारी कहते हैं की शासन और प्रशासन ने कई बार आश्वासन दिया लेकिन किसी पत्रकार पर से अभी तक मुक़दमा नहीं हटा है। उन्होंने कहा लगता है सरकार ख़ुद दोषी अधिकारियों को बचाना और पत्रकारों को फंसाना चाहती है। तिवारी इस बात को स्वीकार लेते हैं कि पत्रकार संगठनों की आवाज़ में असर कम हुआ है। उनका कहना है की पत्रकारों को एकजुटता से मौजूदा माहौल को बदलना होगा।

आख़िर कमज़ोर क्यूँ पड़े पत्रकार संगठन?

पत्रकार संगठन के स्वर कमज़ोर पड़ने का ख़ामियाज़ा सभी श्रमजीवी पत्रकारों को उठना पड़ रहा है। लेकिन यह भी एक बड़ा प्रश्न है की उत्तर प्रदेश में कमज़ोर क्यूँ पड़ते जा रहे हैं? काफ़ी समय से पत्रकार आंदोलनो में सक्रिय रहे मुदित माथुर कहते है की यह साफ़ नज़र आता है की पत्रकारों में बड़ी संख्या उन लोगों की हो गई है जिनका पत्रकारिता से (लिखने-बोलने) से कोई सरोकार नहीं है।यह लोग सत्ता की मदद से पत्रकारिता में आ गए हैं और मान्यता आदि के सहारे सरकारी दफ़्तरों में निजी कामों के लिए चक्कर लगाते हैं। इस वजह से भी वास्तविक पत्रकारों को काम करने में संकट का सामना करना पड़ रहा है।

मुदित माथुर कहते हैं कई ऐसे बड़े पत्रकार संगठन हैं जिनका वर्षों से चुनाव नहीं हुआ है। कुछ लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए संगठनों के पदों को छोड़ना नहीं चाहते है। यह लोग धीरे धीरे सत्ता के क़रीब हो गये हैं और अब पत्रकार हितों की रक्षा की बात करने के बजाय, सत्ता के स्वर से स्वर मिलाने लगे हैं।यहीं लोग अपने स्वार्थ के लिए संगठनों के महत्त्व को कम और पत्रकार आंदोलन को कमज़ोर कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के सदस्य रह चुके मुदित माथुर कहते हैं की इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है की पत्रकारो में बड़ी संख्या में वह लोग हैं जो मीडिया का दुरुपयोग कर रहे हैं। जिसका सीधा असर पत्रकार आंदोलनो पड़ रहा है। इसकी ग़लतियों का असर श्रमजीवी पत्रकारों पर भी पड़ रहा है।

ख़त्म होती खोजी पत्रकारिता

ज़्यादातर मीडिया घरानों में सरकार की भाषा बोली जा रही है।टीवी पर होने वाली बहसों में वास्तविक मुद्दों पर बहस नहीं होती है। अख़बार और टीवी को देखकर लगता है की सब कुछ एक ख़ास एजेंडे के तहत लिखा और दिखाया जा रहा है। इन सब के बीच कभी-कभी तो लगता है की खोजी पत्रकारिता ख़त्म हो गई है। शायद ही अब कहीं खोजी ख़बरें देखने और पढ़ने को मिलती है।

ऐसे में जो थोड़े बहुत पत्रकार खोजी ख़बरें कर रहे हैं उनके ऊपर दबाव बनाया जा रहा है।मिर्ज़ापुर के पत्रकार पर मुक़दमा लिखा जाना इस बात का ताज़ा उदाहरण है। जिस पत्रकार ने नागरिकों के हित में और सरकारी गड़बड़ी के ख़िलाफ़ ख़बर दिखाई,उसके ऊपर ही सरकार और अधिकारियों की गाज गिर गई है। अगर ऐसा ही होता रहा तो भविष्य में शायद खोजी पत्रकारिता ही ख़त्म हो जाएगी। नागरिकों को अगर कुछ पढ़ने और देखने को मिलेगा तो वह सरकारी कार्यालय से भेजे गए प्रेस नोट, जिसमें सिर्फ़ सरकार के क़सीदे होंगे।

अब देखना यह है की पत्रकार कितनी एकजुटता से हालात का सामना करते हैं। वरना रोज़ एक पत्रकार को निशाना बनाया जायेगा। अभी तक उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के विरुद्ध लिखा गया एक भी मुक़दमा ख़त्म नहीं हुआ है। अगर ऐसा ही माहौल रहा तो शायद स्वतंत्र पत्रकारिता का धीरे धीरे गला घोंट दिया जाएगा और नागरिकों के मुद्दे उठाने वाले ख़त्म हो जाएँगे।

(लेखक लखनऊ से हैं और एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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