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भारत
राजनीति
नागरिकों की हत्याएं: कश्मीर में नब्बे के दशक की वापसी? 
वर्तमान स्थिति को 'नब्बे के दशक में वापसी' कहना अभी जल्दबाजी होगी, फिर भी उसके रुझान खतरनाक दिखते हैं। राज्य को इस रूढ़ि का विरोध करना चाहिए तथा जम्मू-कश्मीर में संवाद और राजनीतिक प्रक्रियायों को शुरू करना चाहिए। 
अशोक कुमार पाण्डेय
11 Oct 2021
sikh jammu
प्रिंसिपल सुपिन्दर कौर के पार्थिव शरीर को अंतिम यात्रा के लिए ले जाते शोकाकुल सिख समुदाय के लोग, जिनकी नौ अक्टूबर को उनके स्कूल में ही हत्या कर दी गई थी। 'फोटो कमरान यूसुफ'

कश्मीर में नागरिकों की हालिया जारी हत्याओं ने भारतीय राजनीतिक और नागरिक हलकों में कोहराम मचा दिया है। हत्या की ये घटनाएं घाटी में आतंकवादी गतिविधियों के एक नए और खतरनाक पैटर्न का संकेत देती हैं। वे अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त करने के दौरान और उनके बाद की सामान्य स्थिति के बारे में केंद्र के आधिकारिक दावों पर एक गंभीर प्रश्न चिह्न भी लगाती हैं।  लेकिन मुख्यधारा का मीडिया हत्याओं को एक सांप्रदायिक रंग में दिखाने में व्यस्त है, जबकि वे घटनाएं जटिल कारकों की पैदावार हैं। इनका सामान्यीकरण किए जाने से गलत निष्कर्ष, यहां तक कि विनाशकारी नतीजे भी, निकल सकते हैं। 

घटनाएं: 

कश्मीर में हत्या की वारदातों का ताजा सिलसिला छह महीने से अधिक समय से चल रहा है, जिनमें से अक्टूबर अभी तक सबसे अधिक रक्तरंजित रहा है। आतंकवादियों ने दो अलग-अलग घटनाओं में बिजली विकास विभाग के दो कर्मचारियों अब्दुल मजीद गोजरी और मुहम्मद शफी डार को मार गिराने के लिए गांधी जयंती का चुनाव किया, जो अब अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाई जाती है। 

इन हत्याओं को मुख्य धारा के मीडिया में कोई कवरेज नहीं मिला। राष्ट्रीय मीडिया इसके तीन दिन बाद तब हरकत में आया, जब आतंकवादियों ने इकबाल पार्क क्षेत्र के एक उच्च सुरक्षा क्षेत्र में जाने-माने दवा-व्यापारी माकन लाल बिंदरू की दुकान पर उनकी हत्या कर दी। इसके बाद, श्रीनगर के लालबाजार में एक गैर-स्थानीय व्यक्ति भेलपुरी विक्रेता वीरेंद्र पासवान की सड़क किनारे हत्या कर दी गई। तीसरे हमले में, आतंकवादियों ने उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा जिले में मोहम्मद शफी लोन नाम के एक नागरिक की गोली मारकर हत्या कर दी। 

एक प्रमुख और गैर-राजनीतिक कश्मीरी पंडित व्यवसायी एमएल बिंदरू की हत्या ने उन लोगों को भी झकझोर दिया, जिन्होंने पिछले छह महीनों में नागरिक हत्याओं के ग्राफ में बढ़ोतरी पर गौर करते हुए अपनी चिंताएं जताते रहे हैं। कश्मीरी पंडित राकेश पंडिता की भी जून में हत्या कर दी गई थी, लेकिन कई लोगों ने इसे राजनीतिक हत्या बताया, क्योंकि वे भाजपा कार्यकर्ता थे और निर्वाचित पंच थे। जबकि, बिंदरू का कोई राजनीतिक जुड़ाव नहीं था और वे उन 800 परिवारों में से थे, जिन्होंने 1990 के दशक में परिवार सहित कश्मीर में ही रहने का फैसला किया था। पिछले डेढ़ दशक में इस अति-अल्पसंख्यक पंडित समुदाय के किसी भी सदस्य को कोई खरोंच भी नहीं आई थी, इसलिए इस घटना से पूरे समुदाय में सदमे की लहरें फैल गई। 

कश्मीर पंडितों के हितों को लेकर आवाज उठाने वाली एक संस्था कश्मीर पंडित संघर्ष समिति (KPSS) के संयोजक संजय टिक्कू ने इस वारदात को कश्मीरी पंडितों के लिए 1990 के रक्तरंजित काल की वापसी बताया। 

इससे भी अधिक सदमाकारी बात यह थी कि बिंदरू की हत्या के अगले ही दिन अल्पसंख्यक समुदाय के दो अन्य सदस्यों की भी हत्या कर दी गई थी। गुरुवार की सुबह बंदूकधारियों ने डोगरा समुदाय के जम्मू के एक स्कूल प्रिंसिपल दीपक चंद और एक सिख महिला शिक्षिका सुपिंदर कौर की श्रीनगर के सफा कदल इलाके में गोली मारकर हत्या कर दी थी। गौरतलब है कि घाटी में लगभग 30,000 सिख रहते हैं। 

कश्मीर के आइजीपी विजय कुमार ने एएनआइ को दिए एक बयान में कहा कि “आतंकवादियों ने चालू वर्ष में 28 नागरिकों को अब तक मार डाला है। इनमें पांच लोग स्थानीय हिंदू/सिख समुदाय एवं दो बाहर के हिंदू मजदूर थे।” पुलिस ने अपने ब्योरे में आतंकवादियों के हाथों मारे गए कश्मीरी मुसलमानों का उल्लेख नहीं किया, लेकिन यह स्पष्ट है कि शेष 23 नागरिक बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय के थे। इनमें से ज्यादातर मामलों में किसी भी नामी आतंकी संगठन ने जिम्मेदारी नहीं ली है। इसके बजाय, लश्कर-ए-तैयबा की एक शाखा कहे जाने वाले पीपुल्स एंटी-फ़ासिस्ट फ्रंट और द रेसिस्टेंस फ्रंट जैसे अज्ञात संगठनों ने कुछ हत्याओं की जवाबदेही ली है। 

पिछले कुछ महीनों में कई पुलिस अधिकारियों पर भी हमले किए गए हैं और उनकी हत्या कर दी गई है। सितंबर में, दो पुलिसकर्मी-हंदवाड़ा के बंटू शर्मा और खानयार के अर्शीद अहमद मीर- दो अलग-अलग घटनाओं में मारे गए थे। इसके पहले, 17 जून को श्रीनगर के सैदपोरा इलाके में एक पुलिसकर्मी जावेद अहमद काम्बे की उनके घर के बाहर ही हत्या कर दी गई थी। 22 जून को एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी परवेज अहमद डार की हत्या कर दी गई, जब वे कनिपोरा इलाके की एक मस्जिद से लौट रहे थे। इसके तीन दिन बाद, आतंकवादियों ने सुनियोजित तरीके से एसपीओ फैयाज अहमद भट के घर में घुस कर और उनकी, उनकी पत्नी और बेटी की हत्या कर दी थी। 

पिछले छह महीनों में ऐसी अन्य घटनाओं के साथ-साथ कश्मीर में राजनीतिक हत्याएं भी हुई हैं। 8 जुलाई 2018 को बांदीपुर में भाजपा के पूर्व जिलाध्यक्ष शेख वसीम बारी (28) और उनके पिता और भाई की हत्या कर दी गई थी। उनके परिवार की सुरक्षा के लिए 10 सुरक्षाकर्मी दिए गए थे, जो दुर्भाग्यवश उस समय मौजूद नहीं थे। इनके अलावा, भाजपा के दो और सदस्य, सरपंच शेख सज्जाद अहमद और अब्दुल हामिद नज्जर क्रमशः काजीगुंड के वेसु और बडगाम के ओमपोरा में मारे गए थे। इन घटनाओं के बाद सरकार ने सुरक्षा कड़ी कर दी, लेकिन 23 सितम्बर को एक "अज्ञात बंदूकधारी" ने खाग में सिख ब्लॉक विकास परिषद के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह पर हमला कर उनकी हत्या कर दी थी। 29 अक्टूबर को भाजपा के तीन मुस्लिम कार्यकर्ताओं पर कुलगाम के वाइके पोरा में हमला कर उनकी हत्या कर दी गई थी। "अज्ञात बंदूकधारियों" ने भाजपा नेता गुलाम कादिर पर भी हमले किए थे, पर उन्होंने भी जवाबी कार्रवाई की और बच गए थे। उनके पीएसओ की हत्या कर दी गई थी। एक हमलावर, जिसकी पहचान बाद में त्राल के शब्बीर अहमद शाह के रूप में हुई, उसको भी मार गिराया गया था। इस साल, 2021 के मार्च में एक पार्षद रियाज अहमद पीर और उनके एसपीओ शफकत नजीर की हत्या कर दी गई थी। फायरिंग में उनके ससुर शम्सुद्दीन पीर घायल हो गए थे। 27 जून को, दक्षिण कश्मीर के एक भाजपा पार्षद राकेश पंडिता की हत्या कर दी गई थी। 

दावे, सच्चाई, और हताशा 

गृह मंत्री अमित शाह और उनके समर्थकों ने अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण और जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा वापस लेते हुए यह दावा किया था कि इससे घाटी से आतंकवाद का सफाया हो जाएगा। उन्होंने ऐसे दावे देश पर विमुद्रीकरण थोपने के वक्त भी किए थे। भाजपा ने वर्षों से दावा करती रही है कश्मीर में उग्रवाद पिछली सरकारों की नीतियों का परिणाम है और वे इसका अंत करेंगे और कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी सुनिश्चित करेंगे। ये दावे हर चुनाव अभियान में दोहराए जाते हैं और ये दक्षिणपंथी इंटरनेट योद्धाओं के पसंदीदा शगल हो गए हैं। वे इतने जोश के साथ दोहराए जाते हैं कि घाटी के बाहर के ज्यादातर लोग उन पर विश्वास कर लेते हैं और उनका समर्थन करने लगते हैं। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार गिरने के बाद से भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का घाटी पर पूरा नियंत्रण रहा है। संसद में भी भाजपा का पूर्ण बहुमत है, जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है, उपराज्यपाल के रूप में भी पार्टी के एक व्यक्ति हैं, और एक अनुकूल मीडिया है, जो सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के अलावा शायद ही कभी कुछ प्रकाशित करता है। स्वाभाविक रूप से, हमें केंद्र सरकार से पूछना चाहिए कि ये हत्याएं इन सबके बावजूद क्यों हो रही हैं। निर्दोष नागरिकों को सुरक्षित करने में राज्य और केंद्रीय तंत्र की विफलताओं को सांप्रदायिक प्रचार की आड़ में छिपाने का प्रयास भयावह है। केंद्र के दावे जो भी हों, पर सच्चाई यही है कि घाटी में आम नागरिकों का जीवन खतरे में है, और अल्पसंख्यक तो सर्वाधिक असुरक्षित हैं। 

इन सबसे बड़ा सच वह हताशा-निराशा है, जो घाटी के आम लोगों को अपनी चपेट में लेती है। यहां विकास एक मृगतृष्णा है, जो आधिकारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दायरे से बाहर कहीं दिखाई नहीं देता। करीब ढाई साल से इस केंद्र शासित में कोई प्रतिनिधि सरकार नहीं बनी है। लोगों की सरकार एवं संस्थाओं से अपनी शिकायतों के बारे में आवाज उठाने के लिए कोई स्वतंत्र प्रेस नहीं है, और सशस्त्र बलों की लगातार तैनाती बढ़ती जा रही है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की इस अनुपस्थिति ने एक निरंकुशता जैसा नियम बना दिया है,जिसमें केवल केंद्र के एजेंडे के अनुरूप निर्णय लिए गए हैं। कश्मीर में हमेशा कठोरता के साथ शासन किया गया है, लेकिन स्थानीय नेतृत्व के सुरक्षा वाल्व के बिना स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। 

भूमि विवाद:

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल ने घाटी में अपनी संपत्तियों के संबंध में प्रवासी कश्मीरी पंडितों की शिकायतों के निवारण के लिए 8 सितम्बर को एक पोर्टल लॉन्च किया है। यह पोर्टल संकटकाल में की गई अपनी परिसंपत्तियों की बिक्री, अतिक्रमण या संपत्ति से संबंधित अन्य शिकायतों के बारे में कश्मीरी पंडितों की शिकायतों को दर्ज करता है। (कश्मीरी पंडितों ने बार-बार दावा किया है कि उनके यहां से जाने के बाद, स्थानीय लोगों ने उनकी संपत्तियों पर अतिक्रमण कर लिया है।) जम्मू-कश्मीर सरकार ने प्रवासी पंडितों की अचल संपत्तियों की संकटकालीन बिक्री को संरक्षित, सुरक्षित और नियंत्रित करने के लिए 1997 में जम्मू और कश्मीर प्रवासी अचल संपत्ति (संरक्षण, सुरक्षा और आपदा में परिसंपत्ति की बिक्री पर संयम) अधिनियम 1997 पारित किया था। पिछले साल 2020 के मार्च में, मामले के त्वरित निवारण के लिए, सरकार ने प्रवासी संपत्तियों के सर्वेक्षण या माप के बारे में लिखित शिकायत दर्ज करने की आवश्यकता (धारा 6 की अनुधारा 2 के दूसरे नम्बर के प्रावधान) को समाप्त कर दिया। नए पोर्टल ने त्वरित निबटान की इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। 

निस्संदेह, पंडितों ने घाटी से अपने पलायन के कारण यहां की अपनी कई संपत्तियों से हाथ धो बैठे हैं। घाटी भर में उनकी परिसंपत्तियां हड़प ली गई हैं या हताशा में उन परिसंपत्तियों को औने-पौने दामों में बेचना पड़ा है। इसलिए पंडितों की पहले की हैसियत को बहाल करना, कश्मीर में उनके लौटने की एक पूर्व अपेक्षा है। लेकिन यह तभी सफल होगी, जब राज्य अपने लोगों को विश्वास में लेगा। तीस साल बहुत लंबा समय होता है, और इस काम में जबरदस्ती केवल दो समुदायों के बीच की वैमनस्य को और बढ़ाएगी एवं आपसी विश्वास में और कमी लाएगी। अफसोस की बात है कि जब से सरकार ने यह पोर्टल लॉन्च किया है, तब से कश्मीर में ऐसा ही हुआ है। कई स्थानीय लोगों ने परिसंपत्ति के झूठे दावे किए जाने, कानूनी तरीके से बेची गई संपत्ति को भी संकट में बेची गई संपत्ति करार दिए जाने और इस तरह स्थानीय की संपत्तियों को जबर्दस्ती जब्त किए जाने की शिकायतें की हैं। कश्मीर में मुख्यधारा के मीडिया ने ऐसी घटनाओं पर रिपोर्ट नहीं की है, लेकिन अपेक्षाकृत कम-ज्ञात समाचार की वेबसाइटें नियमित रूप से इसकी रिपोर्ट कर रही हैं। 

सालिया, कुलगाम और श्रीनगर के कुछ स्थानीय लोगों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि कई घरों को बुलडोजर से उड़ा दिया गया है और उनकी संपत्तियों को कुर्क कर लिया गया है; तहसीलों को भी इस मामले में सख्त कार्रवाई के आदेश दिए हैं। कुछ लोगों पर भारी जुर्माने भी लगाए गए हैं। इनके नतीजतन, बहुसंख्यक समुदाय के बीच खलबली मच गई है, जो इस सप्ताह कुछ लक्षित हत्याओं में बढ़ोतरी की एक वजह हो सकती है। हालांकि दोनों के बीच सीधा संबंध स्थापित करना मुश्किल है, लेकिन संजय टिक्कू सहित कई लोग दावा करते हैं कि संपत्ति का मुद्दा एक दबावकारी बिंदु तो है ही। 

आतंकी मारे जा रहे, लेकिन सब कुछ ठीक नहीं: 

निस्संदेह, सेना और अर्धसैनिक बलों ने बड़े आतंकवादी समूहों को काफी प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया है। पिछले साल सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में रियाज अहमद नाइकू के मारे जाने के बाद कभी मुख्य रूप से सक्रिय रहे हिजबुल मुजाहिदीन का कश्मीर से लगभग सफाया हो गया है। इसके अलावा, बड़ी संख्या में आतंकवादी मारे गए हैं, और घुसपैठ को भी कुछ हद तक नियंत्रित किया गया है। 

फिर भी, हाल ही में हुई हत्याएं एक बार फिर साबित करती हैं कि राज्य अकेले ताकत के बल पर ऐसी गतिविधियों को नियंत्रित नहीं कर सकता है। वरिष्ठ पुलिस और सेना के अधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि हाल की घटनाएं घरेलू आतंकवादियों की करतूत हैं: युवा, अपरिष्कृत हथियारों के साथ अप्रशिक्षित लोग, आसानी से स्थानीय आबादी के साथ घुलमिल जाते हैं, फिर अपने नरम लक्ष्यों को चिह्नित करते हैं और एक प्रकार के गुरिल्ला युद्ध में संलिप्त हो जाते हैं। स्थानीय समर्थन, उन्हें कवर प्रदान करता है, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है। फिर, निरंकुश नीतियों और लोकतांत्रिक स्पेस की अस्वीकृति से उत्पन्न स्थानीय हताशा, ऐसा माहौल बनाती है कि विद्रोह केवल अपनी विद्रूपताओं में ही प्रकट हो सकता है। कश्मीर में ऐसी धारणा है कि केंद्र बाहरी लोगों को घाटी में लाने पर आमादा है। यह धारणा राजनीतिक नेताओं के बार-बार के बयानों और उनके समर्थकों के सोशल मीडिया पर डाले गए विचारों से पुष्ट होती है। ऐसे माहौल में, ये हत्याएं चेतावनियां देने एवं निराशा प्रकट करने का एक प्रयास हो सकती हैं। हालांकि, पुलिस अधिकारी और राजनीतिक नेता सरकारी तंत्र का हिस्सा होने के कारण मारे गए हैं, तो कश्मीरी पंडित, या कश्मीर के बाहर के हिंदू, या अन्य लोगों की हत्याएं उनके सत्ता-समर्थक माने जाने की वजह से की गई हैं। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन सब हत्याओं के पीछे सांप्रदायिक नफरत का भी एक तत्व है। 

नब्बे के दशक की वापसी? 

संजय टिक्कू ने कहा है कि अगस्त 2019 से ही जम्मू-कश्मीर में ऐसी घटनाओं की आशंकाएं जताई जा रही थीं। उन्होंने मुझे स्पष्ट रूप से बताया कि अक्टूबर 2019 में, अनुच्छेद 370 का निरसन करने और पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त करने से कश्मीरी पंडितों का जीवन और मुहाल हो जाएगा। उन्होंने मुझसे कहा कि, 'हो सकता है कि आप मुझे अपनी अगली यात्रा पर श्रीनगर में न पाएं।’ इस हफ्ते जब मैंने उन्हें फोन किया तो वे घाटी में कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित थे। उन्होंने कहा कि कुछ पंडित परिवार सुरक्षित स्थानों पर चले गए हैं। हालांकि, अगर स्थिति में सुधार होता है, तो वे वापस आ जाएंगे। 

कश्मीरी पंडित घाटी में एक सूक्ष्म, लगभग अदृश्य, अल्पसंख्यक रह गए हैं। हालांकि, केवल प्रवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए, मीडिया और प्रशासन उनके लिए हास्यास्पद "गैर-प्रवासी पंडित" जैसी पदवी का उपयोग करते हैं। इसलिए कि प्रवासी आबादी मीडिया का ध्यान बरबस खींचती है, जबकि निवासियों की परेशानियों से उसे शायद ही कोई फर्क पड़ता है। यहां तक कि उनके प्रवासी भाइयों ने भी यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान कश्मीरी पंडितों के लिए घोषित प्रधानमंत्री पैकेज से उन्हें बाहर करने के लिए काफी आजमाइश की थी। पिछले साल जब संजय टिक्कू और कश्मीरी पंडितों ने आमरण अनशन किया तो नेशनल कांफ्रेंस के कुछ नेताओं को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल ने उनका समर्थन नहीं किया था। उनके विरोध पर राष्ट्रीय मीडिया ने पूरी तरह चुप्पी साध ली थी।

याद रखें कि पिछले डेढ़ दशक से घाटी में कश्मीरी पंडितों के लिए सुरक्षा कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं था। वे चुपचाप रहते हुए अपने काम-धंधे से मतलब रखते रहे थे, जिनके कारण उन्हें अपने पड़ोसियों से सहानुभूति मिली थी। लेकिन अनुच्छेद 370 के निरसन का दुनिया भर में कश्मीरी पंडितों द्वारा उत्सव मनाने के बाद से स्थिति एकदम पलट गई है। 

जून में, श्रीनगर के बाहरी इलाके में वगूरा नौगाम मुठभेड़ के बाद, गुमनाम फेसबुक पोस्ट और ट्वीट सामने आए थे, जिसमें एक फार्मासिस्ट (अल्पसंख्यक समुदाय से) को शोपियां के एक आतंकवादी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। इस भ्रामक दुष्प्रचार करने वाले को तुरंत पकड़ लिया गया था और सोशल मीडिया के अकाउंट्स भी हटा दिए गए थे, लेकिन यह घटना पंडितों के प्रति कट्टरपंथी कश्मीरी आबादी के एक वर्ग की दुश्मनी को इंगित करती है। इसलिए, जबकि वर्तमान स्थिति को "नब्बे के दशक में वापसी" कहना अभी जल्दबाजी होगी, फिर भी इनके रुझान तो खतरनाक हैं। उदाहरण के लिए, आतंकवादी-उग्रवादियों ने 1990 के दशक में स्कूलों को कभी भी अपना निशाना नहीं बनाया था। 

जैसा कि स्पष्ट है, हाल की हत्याएं कुछ असंगठित कट्टरपंथी युवाओं की करतूत हैं, लेकिन अगर इन्हें नियंत्रित नहीं किया गया, तो यह व्यापक क्षेत्र में फैल सकती हैं। लगातार दबाव में रहने वाले एक सूक्ष्म अल्पसंख्यक के रूप में, नब्बे के दशक की भयानक यादों के साथ, इस तरह की एक भी हत्या पूरे समुदाय में दहशत की लहर पैदा कर सकती है। अभी यह एक ऐसा विकट क्षण है, जब एक मामूली घटना भी स्थिति को बेकाबू बना दे सकती है। ऐसे में इन घटनाओं की पुनरावृत्ति कभी भी हो सकती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

कश्मीरी पंडितों का कोई भी पलायन उनके अस्तित्व और पहचान को नुकसान पहुंचाएगा, और सरकार को इसे रोकना होगा। इसके लिए सरकार के साथ-साथ नागरिक समाज और घाटी के राजनीतिक वर्ग को भी आगे आना होगा। यह खुशी की बात है कि लगभग हर राजनीतिक दल हत्याओं की निंदा करने के लिए आगे आया है, लेकिन इतना ही काफी नहीं है। सरकार को प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आगे आना चाहिए। 

ताकत प्रायः सही की जगह ग़लत अधिक होती है: 

विगत 30 वर्षों में, कश्मीर की घटनाओं ने हिंसक विद्रोहों को नियंत्रित करने के लिए बल अपर्याप्तता को परिलक्षित कराया है। हालांकि राज्य ने आतंकवादी संगठनों को बार-बार कुचला है और उनके समर्थकों को असंख्य बार सलाखों के पीछे डाला है। कर्फ्यू और CASO तो नियमित रूप से लगाए जाते रहे हैं, और चुनी हुई सरकारों को अचानक बर्खास्त कर दिया गया है। पर इनमें से कोई भी उपाय घाटी में स्थायी शांति नहीं ला सका है। विद्रोही फिर संगठित हो गए हैं, जो रक्तबीज के पौराणिक चरित्र की याद दिलाते हैं: हर बार खून बहाया जाता है, यह नए कट्टरपंथियों, आतंकवादी संगठनों और हिंसक आंदोलनों को जन्म देता है। कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के बारे में बात करें तो यह एक भावनात्मक अपील है, जो शेष भारत में चुनाव और राजनीतिक बहस को जीतने में मदद कर सकती है। लेकिन यह एक पुनरुक्ति भी बन गई है-कुछ बात भर करने के लिए, देने के लिए नहीं। आखिरकार, पंडितों की वापसी तभी हो सकती है, जब घाटी में सौहार्द्रपूर्ण स्थिति पैदा हो, जिसके लिए समुदायों के परस्पर विश्वास की कमी को कम करना होगा। जब तक सुरक्षा का आश्वासन नहीं दिया जाता है, तब तक भूमि का कोई टुकड़ा या लाभ प्रवासियों को वापस नहीं लाएगा, और इसे केवल सेना या पुलिस के बल पर हासिल या सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। 

वैसे इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि एक बेहतर समझ बनेगी। अभी एक दिन पहले सुरक्षा बलों ने एक और मासूम नागरिक को मार गिराया था। सुरक्षा बलों का दावा था कि उस व्यक्ति ने एक चेक-पोस्ट पर रुकने से इनकार कर दिया था। हालांकि उपराज्यपाल ने हालिया हत्याओं की निंदा की है, लेकिन साथ ही "आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब" देने की बात भी कही है। परंतु कोई भी मुंहतोड़ जवाब घाटी में हिंसा को खत्म नहीं करेगा। प्रशासन और राज्य को धमकियाँ देने का काम  सेना और पुलिस अधिकारियों पर छोड़ देना चाहिए। बातचीत और राजनीतिक प्रक्रियायों को शुरू करना चाहिए। 

(अशोक कुमार पांडे कश्मीरनामा और कश्मीर और कश्मीरी पंडित किताब के लेखक हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।

 

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