दिल्ली की सीमा पर इकट्ठे हुए किसानों ने ठीक ढंग से अपना ध्यान उन असली मुद्दों पर केंद्रित कर रखा है, जो बतौर किसान उनके अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे हैं। अब तक हमारे देश में एक ऐसा तंत्र मौजूद है, जिसने किसानों को जिंदा रखा है। हालांकि यह तंत्र भी नवउदारवाद के प्रभाव के चलते बिखर रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार जिन तीन कृषि क़ानूनों को लेकर आई है, उनके ज़रिए इस जीवनरेखा को ख़त्म किया जा रहा है। इस तरह यह तीनों क़ानून नव उदारवादी एजेंडे को अपने भीतर समेटे हुए हैं। इसी के चलते इन क़ानूनों पर विरोध कर रहे किसानों और सरकार के बीच समझौते की साझा ज़मीन नहीं बन पा रही है। सीधे तौर पर कहें, तो इन क़ानूनों को वापस लेना ही होगा।
स्वतंत्रता के बाद पहली बार, कृषि क्षेत्र में निरंकुश पूंजीवाद की घुसपैठ इन क़ानूनों के ज़रिए हो रही है। इस निरंकुश पूंजीवाद में अंबानी और अडानी जैसे बड़े खिलाड़ियों के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय कृषि व्यापार कंपनियां शामिल हैं। इन्हीं लोगों को इस घुसपैठ का सबसे बड़ा फायदा होने वाला है। इस चीज को समझने के लिए पहले एक अंतर को रेखांकित करना होगा।
सत्तर के दशक में भारतीय कृषि क्षेत्र में पूंजीवाद के विकास की बात उठी थी। अब सवाल उठता है कि किसी को भी पूंजीवाद के इस अतिक्रमण से दिक्कत क्यों होनी चाहिए, जबकि करीब़ आधी सदी पहले ही पूंजीवादी विकास की तरफ जाने की प्रवृत्ति का निर्धारण हो गया था। अगर इतने पहले भी पूंजीवाद के आने से किसानों का अस्तित्व बना रहा, तो आज उनके अस्तित्व पर चिंतित होने की जरूरत क्यों है?
हालांकि पूंजीवादी विकास कृषि अर्थव्यवस्था में आंतरिक तौर पर निहित रहा है। इसमें किसानों और ज़मींदार पूंजीवादियों का मिश्रण शामिल है। यह मिश्रण एक ऐसी व्यवस्था में विकसित हो रहा था, जो व्यवस्था कृषि क्षेत्र में बाहर से पूंजीवाद के अतिक्रमण का सक्रिय तरीके से विरोध कर रही थी। इस व्यवस्था में न्यूनत समर्थन मूल्य (MSP) पर उपार्जन कार्यक्रम, सब्सिडी युक्त कीमतों पर सार्वजनिक वितरण और ऐसी ही चीजें शामिल थीं।
संक्षिप्त में कहें तो सरकार ने खुद को एक ऐसी व्यवस्था के बीच रखा था, जहां एक तरफ किसान उत्पादक हैं, तो दूसरी तरफ बाहरी पूंजीवादी क्षेत्र और वैश्विक पूंजीवादी बाज़ार है। कृषि में पूंजीवाद का विकास तब एक ऐसी दुनिया में हुआ, जहां बीच में सरकार मौजूद थी, जो कृषि क्षेत्र का बाहरी पूंजीवादी क्षेत्र से बचाव करती थी।
इस तरह के बाहरी अतिक्रमण को अंजाम देने के लिए तब किसानों की खेती को वस्तु उत्पादन व्यवस्था के दायरे में लाने की व्यवस्था की गई। रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने बताया है कि कैसे पूंजीवाद किसान अर्थव्यस्था को ख़त्म कर रहा है, उन्होंने जोर देकर कहा है कि वस्तु उत्पादन (कमोडिटी प्रोडक्शन) इस बर्बादी का एक औज़ार है।
लेकिन यहां यह साफ करना जरूरी है कि वस्तु उत्पादन (कमोडिटी प्रोडक्शन) आखिर क्या होता है? इसका मतलब बाज़ार के लिए उत्पादन नहीं होता, ना ही यह वह उत्पादन होता है, जिसे C-M-C (कोई वस्तु जो पैसे में बदल जाती है, फिर वही पैसा दोबारा किसी और वस्तु में बदल दिया जाता है) श्रंखला में बदला जाता है। वस्तु उत्पादन असल मायनों में तभी पूरा होता है, जब किसी खरीददार के लिए किसी उत्पाद का “विनिमय (एक्सचेंज वेल्यू)” और “उपयोग मूल्य (यूज वेल्यू)” होता है, लेकिन इसमें विक्रेता को सिर्फ इतना ही पैसा बचता है कि उसके लिए उत्पादन में सिर्फ़ “विनिमय मूल्य” ही रह जाता है।
वस्तु उत्पादन की एक अहम विशेषता है कि इसमें बड़े उत्पादक छोटे उत्पादकों को निगल लेते हैं। मौजूदा स्थिति में इसका मतलब होगा कि कॉरपोरेट, किसानों को निगल जाएंगे। यह तभी अपने चरम पर होगा जब वस्तु उत्पादन व्यवस्था किसानों और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को जोड़ देगी। MSP व्यवस्था में बाज़ार की तात्कालिक क्षणिक कार्यक्रमों पर हमेशा प्रतिबंध मौजूद रहते हैं। बल्कि MSP खुद अपने आप में एक प्रतिबंध है, जो बड़े उत्पादकों द्वारा छोटे उत्पादकों को निगलने पर रोक लगाता है।
नव उदारवादी व्यवस्था को दोबारा लाने का उद्देश्य बाज़ार की इस तरह की क्षणिकता को दोबारा बनाना था। इसके लिए पहले उन प्रबंधनों को ख़त्म किया जाना जरूरी था, जो कॉरपोरेट पूंजी को किसानों को निगलने से रोक रहे हैं। पहले भी इस व्यवस्था के बहुत सारे हिस्सों को कमजोर कर दिया गया, जिससे खेती काफ़ी नुकसानदेह हो गई, इससे किसानों की आत्महत्या दर में इज़ाफा हुआ। लेकिन इसके बावजूद व्यवस्था के मुख्य केंद्रीय हिस्से- MSP, उपार्जन कार्यक्रम और सार्वजनिक वितरण बने रहने में कामयाब रहे।
लंबे वक़्त से MSP को जितना होना चाहिए, उससे काफ़ी कम रखा जा रहा है। लेकिन इसे पूरी तरह से हटाया नहीं गया है। अभी तक कोई भी सरकार किसानों के प्रति खुल्लेआम ढंग से इतनी असंवेदनशील नहीं रही कि उसने पूरी व्यवस्था को ही तार-तार कर दिया हो। लेकिन मोदी सरकार ने असंवेदनशीलता के पैमाने में पिछली सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया। इस सरकार ने उस व्यवस्था को ख़त्म करने का फ़ैसला लिया, जो किसानों द्वारा की जाने वाली खेती को कॉरपोरेट द्वारा हड़पे जाने से रोक रही थी। यह कॉरपोरेट की ऐसी व्यवस्था होगी, जहां किसानों की हैसियत सिर्फ़ मज़दूरों की ही रह जाएगी और वे अपनी ही ज़मीन पर समझौता कर किरायेदार बन जाएंगे।
कृषि को पूरी तरह वस्तु उत्पादन के भरोसे छोड़ना, जहां सरकार का कृषि बाज़ार में कोई दखल नहीं होगा, उससे तीन बुनियादी बदलाव आएंगे।
इससे देश के भू संसाधन वैश्विक बाज़ार के निर्देशों के लिए खुल जाएंगे, मतलब, प्रभावी तौर पर यह साम्राज्यवाद के निर्देश होंगे, क्योंकि यहां विकसित देशों के मजबूत क्रयशक्ति वाले लोग ज़मीन के उपयोग का तरीका तय कर रहे होंगे।
दूसरा, चूंकि मौजूदा स्थिति में विकसित देशों की मांग खाद्यान्न अनाज की ज़गर शीतोष्ण फ़सलों की है, तो वस्तु उत्पादन व्यवस्था लागू होने की स्थिति में ज़मीन का उपयोग खाद्यान्न अनाज़ों के लिए कम होगा, मतलब दूसरी फ़सलों के लिए खाद्यान्न अनाज़ उत्पादित करने वाली ज़मीन का इस्तेमाल होगा। इसका प्रभाव यह होगा कि जब घरेलू मांग, घरेलू उत्पादन से ज़्यादा हो जाएगी, तो भारत खाद्यान्न आयाातित देश बनकर दूसरे देशों पर निर्भर हो जाएगा।
तीसरा, जैसा पहले जिक्र किया, इसका मतलब होगा कि किसानों को उद्योगपतियों के रहम पर छोड़ दिया जाएगा और इससे किसानों की आर्थिक दशा भी कमजोर होगी। ऐसे कई तरीके हैं, जिससे ऐसा होगा। एक उदाहरण के ज़रिए हम इसे समझ सकते हैं: वैश्विक मांग की पूर्ति करने के लिए कॉरपोरेट की मांग पर किसान नकदी फ़सल का उत्पादन कर रहे हैं, अगर किसी साल कीमतें अचानक धड़ाम से गिर जाती हैं या ख़राब फ़सल होती है, तो उस स्थिति में किसानों का कर्ज़ में फंसना तय होगा। एक बार अगर किसान कर्ज में फंस गए, तो उनकी ज़मीन भी जाएगी और वे मज़दूर बनकर रह जाएँगे।
यह सब गुलामी के उन दिनों की याद दिलाता है जब किसानों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता था, जहां MSP या उपार्जन कीमतों के रूप में कोई सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता था। इससे किसानों की जो खस्ता हालत हुई, उसको तीस और चालीस के दशक में लिखे गए हर देशी साहित्य में दर्ज किया गया है।
फिर भी बहुत सारे बुद्धिजीवी किसानों की खेती को अनियंत्रित बाज़ार के भरोसे छोड़ने से पैदा होने वाली स्थितियों से अनभिज्ञ हैं। ऐसा लगता है कि वे अपने ही देश का इतिहास नहीं जानते। मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार को इतिहास का ज्ञान ना होना समझा जा सकता है, लेकिन कई ऐसे बुद्धिजीवी जिनका बीजेपी से लेना-देना नहीं है, वे भी सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त वस्तु उत्पादन व्यवस्था को लेकर उत्साहित हैं।
पूर्ण वस्तु उत्पादन व्यवस्था में निश्चित तौर पर किसानों की माली हालत खराब होगी, चूंकि किसानों की भौतिक स्थिति बदतर होने से पूरे कामगार वर्ग के लोगों पर समानांतर असर पड़ता है, तो पूरे देश में निश्चित तौर पर कामगार वर्ग में गरीबी बढ़ेगी।
इसे समझने के लिए मान लीजिए कि खाद्यान्न फ़सलों से नकद फ़सलों में बदलाव के क्रम में प्रति एकड़ रोज़गार संख्या में बदलाव नहीं आया। (अगर इसमें बदलाव होता है और प्रति एकड़ रोज़गार कम हो जाता है, तो स्वाभाविक तौर पर ग़रीबी बढ़ेगी)। अब हम यह भी मान लेते हैं कि इस भूमि उपयोग के बदलाव क्रम में किसानों और कृषि मज़दूरों की प्रति व्यक्ति आय में भी कोई बदलाव नहीं होता। इसके बावजूद भी, अगर एक भी साल नकद फ़सलों की कीमतों में कमी आई, तो किसान और मज़दूरों की आय में कमी आएगी और वे कर्ज़ लेने के लिए मज़बूर होंगे।
और अगर एक बार उन्होंने कर्ज ले लिया, तो उन्हें कंगाली में घिरने से कोई नहीं बचा सकता। इसकी वज़ह वस्तु उत्पादन व्यवस्था से जुड़ी एक चीज है। इस व्यवस्था में कीमतों में गिरावट का भार कॉरपोरेट द्वारा पूरी तरह किसान उत्पादकों पर डाला जा रहा है, लेकिन कीमतों में उछाल का पूरा असर किसानों के पक्ष में नहीं होगा, क्योंकि यहां कॉरपोरेट बीच में दलाली कर रहे होंगे। इसलिए जब वैश्विक बाज़ार में कीमतें कम होने की दशा में कर्ज़ बढ़ेगा, तो कीमतों में उछाल से उसकी भरपाई की व्यवस्था यहां मौजूद ही नहीं है। इसलिए कर्ज़ हमेशा किसान की गर्दन के आसपास अपनी पकड़ बनाए रखेगा, जिससे गरीबी में इज़ाफा होगा। इस स्थिति में कई किसान बड़े शहरों में नौकरियों की तलाश में जाएंगे, जिससे वहां पहले से मौजूद नौकरी की चाहत रखने वालों की संख्या में इज़ाफा होगा और गरीबी कामगार वर्ग में छा जाएगी। इससे संगठित कामगार भी प्रभावित होंगे।
इसलिए किसान आंदोलन में जो मुद्दे उठ रहे हैं, उनकी पहुंच इन तीन कृषि क़ानूनों से कहीं आगे तक है। यह मुद्दे किसानों के अस्तित्व से जुड़े हुए हैं।
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