NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
लोकतांत्रिक मीडिया के ख़िलाफ़ लड़ाई में वर्चस्ववादी मीडिया को भाजपा का साथ
आख़िर आम दर्शक इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ इंडस्ट्री में अर्नब गोस्वामी की भूमिका को किस तरह से देखता है? दरअसल, अर्नब की छवि सत्ता से सवाल पूछने की बजाय सत्ता पक्ष की ओर से खेलने वाले एक खिलाड़ी की है।
शिरीष खरे
08 Nov 2020
अर्नब गोस्वामी

लोकतंत्र का सौंदर्य यह है कि लोकतंत्र के विरोधियों को भी जब खुद बचना होता है तो उन्हें लोकतंत्र की याद आती है। सत्ता में आते ही लोकतांत्रिक ढांचे और उसकी संस्थाओं को पूरी तरह से मिटाने की कवायद करने वाली ठोकतांत्रिक शक्तियां जब जरा आफत में होती हैं तो लोकतंत्र की ही दुहाई देने में सबसे आगे होती हैं।

न्यूज टीवी एंकर अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद ठोकतंत्र में भरोसा रखने वाले राजनेताओं के बयानों से भी यह बात साफ होती है। लेकिन, यदि अर्नब गोस्वामी के प्रकरण पर केंद्र की सत्तारूढ़ भाजपा सहित जिन दलों के नेताओं को वाकई लोकतंत्र की चिंता सता रही है तो वे इस विमर्श में शामिल हों कि किसी पत्रकार को पुलिस हिरासत में लेने से पहले उसके साथ पर्याप्त संवाद किया जाना चाहिए। ऐसा व्यवहार एंकर अर्नब के अलावा देश भर के सभी पत्रकारों पर लागू किया जाना चाहिए। ताकि, इससे यूपी पुलिस द्वारा हाथरस प्रकरण के दौरान केरल से आए एक पत्रकार को अचानक गिरफ्तार करने जैसी प्रवृतियों को रोकने में मदद मिले सके।

लेकिन, हकीकत तो यह है कि इनके राज्य में लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर अनियमतताओं को उजागर करके सत्ता की व्यवस्था से सवाल पूछने वाले मैदानी पत्रकार त्रस्त हैं। आखिर इसके पीछे क्या वजह हो सकती है कि मिड-डे मील में हो रही धांधली जैसे मुद्दे पर रिपोर्ट लिखने के लिए यूपी के एक जमीनी पत्रकार की गिरफ्तारी मोदी सरकार के मंत्रियों को आपातकाल की याद नहीं दिलाती है। इसी तरह, यूपी से लेकर त्रिपुरा और जम्मू-कश्मीर जैसे छोटे राज्यों में पत्रकारों पर हो रहे हमलों को लेकर भी भाजपा लगातार चुप्पी साधे रखती हैं। लेकिन, बात जब मुंबई में एक आपराधिक प्रकरण के कारण अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की आती है तो पार्टी का पूरा कैडर सक्रिय हो जाता है और प्रचारित करता है कि महज इस न्यूज एंकर पर हुई कार्रवाई के कारण पूरा लोकतंत्र खतरे में पड़ गया है।

इसे पढ़ें:  अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी: बीजेपी को इमरजेंसी जैसे हालात अब क्यों आए याद?

आखिर, आम दर्शक इलेक्ट्रॉनिक न्यूज इंडस्ट्री में अर्नब गोस्वामी की भूमिका को किस तरह से देखता है? दरअसल, अर्नब की छवि सत्ता से सवाल पूछने की बजाय सत्ता पक्ष की ओर से खेलने वाले एक खिलाड़ी की है। इसलिए, हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इस प्रकरण में सत्ता ही सबसे ज्यादा दुखी है। जबकि, पत्रकार और जनता को सबसे ज्यादा दुखी होना था। लेकिन, वह दुखी नहीं होती है और मामला इससे ठीक उलट है तो इसके खास मायने हैं।

आखिरी में यहां यह भी देखना है कि अर्नब गोस्वामी का प्रकरण देश के अन्य पत्रकारों पर हो रहे हमलों से पूरी तरह अलग है। क्योंकि, यह किसी पत्रकार पर उसके द्वारा की जा रही पत्रकारिता से जुड़ा मुद्दा नहीं है। असल में यह पत्रकारिता के प्रभाव में एक एंकर द्वारा व्यवसायिक हितों को साधने के लिए की गई करतूतों को लेकर पुलिसिया कार्रवाई है।

दूसरी तरफ, अर्नब गोस्वामी फेक न्यूज और दूसरों का तमाशा दिखाने के मामले में भी बदनाम रहे हैं। हालांकि, एक न्यूज टीवी एंकर की गिरफ्तारी खुद तमाशा बन गया। इसके बावजूद बाकी तमाशबीन चैनलों द्वारा इस मामले को तमाशा नहीं बनाना एक अलग कहानी है। जैसा कि जाहिर है कि अर्नब गोस्वामी को साल 2018 में हुईं आत्महत्याओं के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, फिर भी केंद्र में सत्तासीन भाजपा नेतृत्व द्वारा मुंबई पुलिस के साथ अर्नब गोस्वामी की आपसी लड़ाई को प्रेस की स्वतंत्रता से जोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण और असल में भारतीय पत्रकारिता का अपमान है। गए दिनों की ही बात करें तो खुद एनबीए सुशांत सिंह आत्महत्या प्रकरण में पत्रकारिता के निर्धारित मानकों के विरुद्ध खबरें चलाने के लिए कुछ बड़े चैनलों को दर्शकों से माफी मांगने के लिए कह चुका है। जाहिर है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान टीवी जर्नालिज्म के एक तबके में अराजकता अपनी चरम पर पहुंच गई है। अर्नब गोस्वामी और उन्हीं की तरह कुछ एंकरों पर यह आरोप लगते रहे हैं कि उनकी प्रतिबद्धता पत्रकारिता की बजाय सत्ता के शीर्ष नेताओं से बंधी है। लेकिन, सुशांत प्रकरण में ये अपनी मर्यादाएं भूल गए थे और एक फिल्म स्टार की आत्महत्या के बहाने उसकी पॉपुलैरिटी को भुनाने के लिए पर्दे के पीछे से जो सियासी खेल खेल रहे थे, उसमें बुरी तरह एक्सपोज हो गए। इसके बावजूद आलम यह है कि केंद्रीय सत्ता के संरक्षण में मीडिया का यह गिरोह खुलेआम किसी भी अफसर, अभिनेता और यहां तक मुख्यमंत्री के साथ गाली-गलौच करता देखा जा सकता है। एक प्रश्न यह भी है कि निकट भविष्य में यदि महाराष्ट्र के सियासी समीकरण बदलते हैं और भाजपा विचारधारा के मामले में सहज शिवसेना के नजदीक जाती है तो इस प्रकरण में पार्टी का क्या यही पक्ष होगा? या फिर वह कथित प्रेस की स्वतंत्रता को भूल जाएगी?

यह पत्रकारों पर हो रहे हमलों से इतर और जटिल मामला इसलिए भी है कि यहां एक न्यूज चैनल का मालिक न सिर्फ टीआरपी मैनेजमेंट का खेल खेल रहा है, बल्कि केंद्रीय सत्ता के विरोधी सीएम से लेकर कई भारतीय राजनीतिक पार्टियों के अध्यक्षों तक को धमकियां देता है और लगातार उनकी मानहानि करता रहता है। सत्ता और कथित पत्रकारिता का यह गठजोड़ चिंताजनक है, जहां एंकर पर लगातार यह आरोप लगता है कि वह पीड़ितों की आवाज को दबा रहा है। इसलिए, यहां यह बात भी खुलकर आ चुकी है कि यदि आप सत्ता के संरक्षण में हैं तो सत्ता आपका पक्ष लेगी ही। लेकिन, यहां यह कहना भी जरूरी है कि समय के साथ दर्शक भी मीडिया की कार्य-प्रणाली को लेकर जागरूक हो रहे हैं और यह भी एक कारण है कि तमाम कवायदों के बावजूद दर्शक अर्नब के समर्थन में नहीं जुट रहे हैं।

एक प्रश्न यह है कि यदि राज्य में भाजपा की सरकार होती और इस स्थिति में सरकार से तीखे सवाल पूछने वाला कोई एंकर पत्रकार इसी तरह के प्रकरण में आरोपी होता तब भी क्या भाजपा उसे माफ कर देती या न्याय की दलील देकर अपनी जवाबदेही प्रदर्शित करती।

अंत में यह पूरा मसला वर्चस्ववादी बनाम लोकतांत्रिक मीडिया का है और इसमें केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा वर्चस्ववादी मीडिया के पक्ष में खड़ी है।

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगता हैं।)

इसे भी पढ़ें :  बेशक अर्नब जहरीले पत्रकार हैं लेकिन आत्महत्या के मामले में उनकी गिरफ्तारी राज्य की क्रूरता भी दर्शाती है!

arnab goswami
BJP
journalist
freedom of speech
Maharastra
BJP politics
democracy
Electronic media

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • अजय कुमार
    वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं
    17 May 2022
    निर्मला सीतारमण ने कहा कि महंगाई की मार उच्च आय वर्ग पर ज्यादा पड़ रही है और निम्न आय वर्ग पर कम। यानी महंगाई की मार अमीरों पर ज्यादा पड़ रही है और गरीबों पर कम। यह ऐसी बात है, जिसे सामान्य समझ से भी…
  • अब्दुल रहमान
    न नकबा कभी ख़त्म हुआ, न फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध
    17 May 2022
    फिलिस्तीनियों ने इजरायल द्वारा अपने ही देश से विस्थापित किए जाने, बेदखल किए जाने और भगा दिए जाने की उसकी लगातार कोशिशों का विरोध जारी रखा है।
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: चीन हां जी….चीन ना जी
    17 May 2022
    पूछने वाले पूछ रहे हैं कि जब मोदी जी ने अपने गृह राज्य गुजरात में ही देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की सबसे बड़ी मूर्ति चीन की मदद से स्थापित कराई है। देश की शान मेट्रो…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    राजद्रोह मामला : शरजील इमाम की अंतरिम ज़मानत पर 26 मई को होगी सुनवाई
    17 May 2022
    शरजील ने सुप्रीम कोर्ट के राजद्रोह क़ानून पर आदेश के आधार पर ज़मानत याचिका दायर की थी जिसे दिल्ली हाई कोर्ट ने 17 मई को 26 मई तक के लिए टाल दिया है।
  • राजेंद्र शर्मा
    ताजमहल किसे चाहिए— ऐ नफ़रत तू ज़िंदाबाद!
    17 May 2022
    सत्तर साल हुआ सो हुआ, कम से कम आजादी के अमृतकाल में इसे मछली मिलने की उम्मीद में कांटा डालकर बैठने का मामला नहीं माना जाना चाहिए।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License