NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
भारत
राजनीति
लोकतंत्र को अब बस जनता का सहारा
तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने यह दिखाया है कि मतदाता को न भरमाया जा सकता है, न बरगलाया जा सकता है, न खरीदा जा सकता है, न डराया जा सकता है- वह इंस्टिंक्टिवली डेमोक्रेटिक है।
डॉ. राजू पाण्डेय
03 Apr 2019
सांकेतिक तस्वीर
फोटो साभार : वेबदुनिया

कांग्रेस इन आम चुनावों में ‘एकला चलो रे’ की नीति पर कदम बढ़ा रही है। अकेले चलने की इस नीति के पीछे के कारणों की पड़ताल हमें आश्चर्यचकित करने वाले नतीजों पर पहुंचा सकती है। कई राज्यों में कांग्रेस नेतृत्व अपनी पार्टी की मजबूत स्थिति को लेकर इतना आश्वस्त है कि वह गठबंधन को तैयार नहीं है और कई राज्यों में उसकी कमजोर स्थिति के कारण कोई क्षेत्रीय या राष्ट्रीय दल कांग्रेस से गठबंधन करना नहीं चाहता। संभवतः कांग्रेस यह भी मानकर चल रही है कि मोदी सरकार के प्रति जो जनअसंतोष है उसका फायदा उसे ही मिलेगा। जनता पिछले चुनावों में अनेक बार राज्य में क्षेत्रीय और केंद्र में राष्ट्रीय दल को चुनती रही है। शायद कांग्रेस यह मानती है कि राष्ट्रीय स्तर भाजपा के विकल्प के तौर पर चूंकि कांग्रेस ही उपलब्ध है इसलिए जनता की स्वाभाविक पसंद भी वही होगी न कि कोई क्षेत्रीय दल। कांग्रेस के साथ गठबंधन में दिक्कत यह है कि कांग्रेस का वोट बैंक शायद उसके गठबंधन के साथियों को स्थानांतरित न हो और भाजपा की ओर चला जाए। गठबंधन के मार्ग में एक स्वाभाविक बाधा यह भी है कि किसी भी दल का कोई भी कार्यकर्ता या नेता स्वयं को किसी व्यापक वैचारिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सत्ता और चुनावी राजनीति से महरूम किए जाने को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता विशेषकर तब, जब संभावना चुनावों में विजय और सत्ता प्राप्ति की हो। 

चाहे कांग्रेस हो, क्षेत्रीय दल हों या वामपंथी दल- सबके द्वारा गठबंधन के संबंध में निर्णय लेते समय स्थानीय इकाइयों की राय तथा प्रादेशिक, जातीय और धार्मिक समीकरणों को ध्यान में रखा जा रहा है। विचारधारा का प्रश्न गौण बना दिया गया है। समस्त विरोधी दलों के शीर्ष नेता और प्रवक्ता अपने भाषणों में इन चुनावों में भाजपा की पराजय को देश बचाने के लिए अनिवार्य जरूर बताते हैं पर व्यवहार में उनका आचरण कहीं से भी यह नहीं दर्शाता कि वह भाजपा की विचारधारा को परास्त के लिए अपने अहंकार, निजी महत्वाकांक्षाओं और संकीर्ण स्वार्थों को त्यागने के लिए तैयार हैं। चाहे वे ममता हों, शरद पवार हों, चन्द्रबाबू नायडू हों, मायावती हों या अखिलेश हों- जब देश के संविधान की रक्षा के अपने अभियान में निकलते हैं तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को गौण नहीं बना पाते। इधर असुरक्षा बोध से ग्रस्त राहुल गांधी इन नेताओं से वार्ता की मेज पर इनके सम्मुख होते हैं। राहुल को अपने व्यक्तित्व और क्षमताओं की सीमा भी पता है और हाल के वर्षों में कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता में आई तेज गिरावट का एहसास भी उन्हें बखूबी है। किंतु वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि इन कमजोरियों की स्वीकृति और क्षेत्रीय दलों का जूनियर पार्टनर बनना भले ही भाजपा के संकीर्ण और उग्र बहुसंख्यकवाद को पराजित करने हेतु नैतिक रूप से उचित लगे किंतु राजनीति की हकीकत के नजरिए से यह आत्मघाती सिद्ध होगा। 

बहुत सारे क्षेत्रीय दलों के करिश्माई नेता राज्य की राजनीति में अपने एकछत्र वर्चस्व और जनता की नायक पूजा से इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि वे स्वयं को राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर देखने का सपना संजो लेते हैं। ऐसे सुपरस्टार क्षेत्रीय नेताओं की उपस्थिति गठबंधन को एक ऐसी मल्टी स्टारर फ़िल्म में बदल देती है जिसमें हर सुपरस्टार अपने लिए स्पेस की मांग करता है और पटकथा के साथ इतनी छेड़छाड़ हो जाती है कि फ़िल्म की कहानी कभी परवान चढ़ नहीं पाती। बहुत से क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व एक परिवार के पास होता है और राजशाही के युग के भांति परिवार में सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। मुलायम-शिवपाल-अखिलेश और तेजस्वी-तेजप्रताप आदि के उदाहरण यह बताते हैं कि परिवार की लड़ाई कई बार दलहित और देशहित पर भारी पड़ जाती है।

कांग्रेस वाम दलों से भी दूरी बना रही है। यद्यपि अनेक राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि कांग्रेस और वामदलों की इस आपसी मुठभेड़ को मैत्री मैच ही कहा जाना चाहिए क्योंकि इनमें जो भी जीते वह भाजपा का समर्थन तो नहीं करेगा, किंतु संभावना इस बात की अधिक लगती है यह आपसी संघर्ष भाजपा और दक्षिणपंथी शक्तियों को जमीनी और वैचारिक दोनों स्तरों पर फायदा पहुंचाएगा। वाम दलों के प्रति राहुल की बेरुखी को क्या वंचित-पिछड़ों को केंद्र में रखने वाले, उदारीकरण-निजीकरण विरोधी और धर्मनिरपेक्षता को भारतीय गणतंत्र के केंद्रीय भाव का दर्जा देने वाले नव वामपंथी एजेंडे के नकार के रूप में देखा जा सकता है? क्या राहुल की दृष्टि में कांग्रेसवाद अभी भी वंचितों-पिछड़ों के हक की बात करने वाले ऐसे चतुर सवर्ण नेतृत्व को बढ़ावा देना है जिसकी आर्थिक रणनीति की विशेषता गरीबों की निरंतर चर्चा करते हुए सुस्थिर कदमों से सम्पूर्ण निजीकरण और उदारीकरण की सुनिश्चित दिशा में सजग रूप से बढ़ना है। राहुल का वायनाड से चुनाव लड़ने का निर्णय यह दर्शाता है कि कांग्रेस केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में वामपंथी दलों के साथ अपनी हिंसक और शत्रुता की सीमाओं को स्पर्श करती प्रतिद्वंद्विता को भूली नहीं है तथा वह जमीनी कार्यकर्ताओं की उस पीढ़ी के साथ है  जिसका जन्म और विकास इसी प्रतिद्वंद्विता के दौरान हुआ है। पिछले पांच सालों में नरेंद्र मोदी जी ने आक्रामक बहुसंख्यक वाद को राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। भारत की गृह नीति में जो कुछ समावेशी है और भारत की विदेश नीति में जो कुछ उदार और तटस्थ है उसे नेहरू-गांधी परिवार की विफलता के रूप में प्रस्तुत करने का पुरजोर प्रयास मोदी जी करते रहे हैं। 2014 में अपनी आक्रामकता से कांग्रेस को हतप्रभ कर देने वाले मोदी के प्रचार तंत्र का बाद के इन पांच वर्षों में किसी ने प्रतिकार किया है तो वह वामपंथी दल ही हैं। इन वाम दलों ने पंडित नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के राष्ट्र निर्माण में योगदान को बड़े सशक्त रूप से रेखांकित किया है। यह तथ्य हमें चौंका सकता है कि विचारधाराओं के इस युद्ध में उग्र दक्षिणपंथी शक्तियों की हिंसा का शिकार होने वाले और सत्तारूढ़ दल के प्रशासनिक दमन का मुकाबला करने वाले अधिकांश बुद्धिजीवी वामपंथी हैं न कि कांग्रेस की विचारधारा को मानने वाले। महागठबंधन जब बिहार में कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी को स्वीकार नहीं करता है तब इसके कारण स्वरूप भले ही स्थानीय समीकरणों को उत्तरदायी बताया जाता है किंतु इसका संदेश तो यही जाता है कि कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व और राजद के जातीय सर्वोपरिता के एजेंडे के लिए कन्हैया कुमार की विचारधारा घातक है। कांग्रेस का नया नेतृत्व एक गहन वैचारिक शून्य का शिकार है, संभवतः उसने कांग्रेस के गौरवशाली इतिहास और सर्वसमावेशी कांग्रेसवाद का ज्ञान  व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से अर्जित किया है- वह भी स्वेच्छा से नहीं बल्कि दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा आत्मरक्षा हेतु मजबूर किए जाने के कारण। आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठनों के कांग्रेस की विचारधारा पर सुनियोजित वैचारिक हमलों का प्रतिकार किसी कैडर बेस्ड पार्टी के प्रशिक्षित बुद्धिजीवी ही कर सकते थे और यह वाम दलों के बौद्धिक नवनीत ने किया है। किंतु जब चुनावी राजनीति की खुरदरी और ठोस जमीन पर इन पार्टियों की मुलाकात होती है तो यह एक दूसरे के साथ नहीं बल्कि एक दूसरे के खिलाफ खड़ी नजर आती हैं। कांग्रेस द्वारा वाम दलों का वैचारिक युद्ध के लिए इस्तेमाल कर निर्णायक संघर्ष के समय उनसे किनारा कर लेना आधुनिक मूल्यहीन राजनीति का मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। जहाँ तक वामपंथियों का प्रश्न है उन्हें यह सोचना होगा कि सत्ता की राजनीति में उनकी पूछ तभी बढ़ेगी जब वे अपने घटते जनाधार को वापस प्राप्त कर लेंगे या अपने बिखरे जनाधार को संयोजित कर सीटों में तबदील कर लेंगे अन्यथा वे कांग्रेस के इंटेलेक्चुअल विंग की असम्मानजनक भूमिका निभाते निभाते अपनी प्रासंगिकता और धार दोनों गंवा बैठेंगे।

जैसे जैसे चुनाव निकट आ रहे हैं प्रधानमंत्री अपने एजेंडे के साथ खुल कर सामने आ रहे हैं। चाहे राम मंदिर के मुद्दे पर उनके सहयोगियों के आक्रामक बयान हों या समाज के सनातनी ढांचे को स्वीकृति देते सवर्ण आरक्षण की घोषणा हो या स्वाभाविक सैन्य अभियानों की उनकी राजनीतिक और चुनावी अवसरवादी व्याख्या हो या हिंदुत्व का उनका अपना संकीर्ण पाठ हो- बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही और आक्रामक बहुसंख्यकवाद को राष्ट्रवाद के रूप में प्रतिष्ठित करने की उनकी कोशिशें तेज होती जा रही हैं। विपक्ष उन पर अब यह तो दोष नहीं लगा सकता कि उनका कोई गुप्त एजेंडा है। प्रधानमंत्री ने जनता के सम्मुख अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को पूरी आक्रामकता के साथ प्रस्तुत किया है। विपक्ष जनता को इस वैचारिक आक्रमण से अप्रभावित रहकर बुनियादी मुद्दों पर प्रधानमंत्री का आकलन करने का परामर्श तो दे रहा है लेकिन वह खुद ऐसा कर पाने नाकाम हो रहा है। इसका कारण समझ पाना जरा कठिन है। शायद विपक्ष को जनता की परिपक्वता पर संदेह है, इसीलिए उसके विरोध में निर्णायक आक्रामकता के स्थान पर अनिश्चय से उपजी रक्षात्मकता दिखती है। कभी कभी विपक्ष को ऐसा लगता है कि वह उदार मोदी बनकर जनता को प्रभावित कर लेगा।

मुख्य धारा का मीडिया प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार में केंद्रीय भूमिका निभा रहा है- यह बात भी अब इतनी जगजाहिर है कि इस पर  बहुत विश्लेषण और विमर्श की ज़रूरत आम जनता को नहीं है, हाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मायाजाल और सोशल मीडिया की आभासी दुनिया को रचने, गढ़ने और उसमें जीने वाले बुद्धिजीवी जरूर इस खोखले प्रपंच को अंतिम सत्य और महाशक्तिशाली समझने के लिए स्वतंत्र हैं। तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने यह दिखाया है कि मतदाता को न भरमाया जा सकता है, न बरगलाया जा सकता है, न खरीदा जा सकता है, न डराया जा सकता है- वह इंस्टिंक्टिवली डेमोक्रेटिक है। प्रधानमंत्री की तमाम रणनीतियों और विपक्ष के बिखराव बावजूद वह ऐसा फैसला लेगा जो देश और लोकतंत्र के हित में सर्वोत्तम होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणिकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

2019 आम चुनाव
General elections2019
2019 Lok Sabha Polls
Vote
voters
Congress
BJP
mahagathbandhan
Left Front

Related Stories

ख़बरों के आगे-पीछे: केजरीवाल के ‘गुजरात प्लान’ से लेकर रिजर्व बैंक तक

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

इस आग को किसी भी तरह बुझाना ही होगा - क्योंकि, यह सब की बात है दो चार दस की बात नहीं

ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा में नंबर दो की लड़ाई से लेकर दिल्ली के सरकारी बंगलों की राजनीति

बहस: क्यों यादवों को मुसलमानों के पक्ष में डटा रहना चाहिए!

ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में मोदी के चुनावी प्रचार से लेकर यूपी में मायावती-भाजपा की दोस्ती पर..

ख़बरों के आगे-पीछे: पंजाब में राघव चड्ढा की भूमिका से लेकर सोनिया गांधी की चुनौतियों तक..

कश्मीर फाइल्स: आपके आंसू सेलेक्टिव हैं संघी महाराज, कभी बहते हैं, और अक्सर नहीं बहते

उत्तर प्रदेशः हम क्यों नहीं देख पा रहे हैं जनमत के अपहरण को!

जनादेश-2022: रोटी बनाम स्वाधीनता या रोटी और स्वाधीनता


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License