NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
संगीत
लता मंगेशकर की उपलब्धियों का भला कभी कोई विदाई गीत बन सकता है?
संगीत और फ़िल्म निर्माण में स्वर्ण युग के सबसे बड़े नुमाइंदों में से एक लता मंगेशकर का निधन असल में वक़्त के उस बेरहम और अटूट सिलसिले का एक दुखद संकेत है, जो अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन चुके हमारे कुछ शख़्शियतों को हमसे छीनता रहा है।
नम्रता जोशी
07 Feb 2022
Lata Mangeshkar

लता मंगेशकर (1929-2022)

भारतीय सिनेमा में संगीत के गहरे असर को ध्यान में रखते हुए ऐसा अक्सर देखा गया है कि जब भी फ़िल्मी हस्तियों का निधन होता है, तो उन्हें याद करने के साथ-साथ हम उनके गाये या पर्दे पर दिखाये गये गीतों को भी गुनगुनाते हैं। लेकिन, भारतीय सिनेमा की अब तक की सबसे शानदार पार्श्व स्वरों में से एक के बारे में क्या कुछ कहा जाय, जो आवाज़ भारत कोकिला के रूप में अनंत काल के लिए यादों का हिस्सा बन गयी है? आख़िर उनके गाये बेशुमार गानों में से किन-किन गानों को चुना जाये? फ़िल्म दस्तक (1996) का "माई री" या अनुपमा (1966) फ़िल्म का "कुछ दिल ने कहा"? "तू चंदा मैं चांदनी" (रेशमा और शेरा, 1971) या "रातों के साये घने" (अन्नदाता, 1972)? "दिल की गिरह खोल दो" (रात और दिन, 1967) या "खामोश सा अफ़साना" (लिबास, जो रिलीज़ ही नहीं हुई) "ये समा" (जब जब फूल खिले, 1965) या "रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें" (दिल की राहें, 1973)? "ना, जिया लागे ना" (आनंद, 1971) या "उन्को ये शिकायत है" (अदालत, 1958)?

लता मंगेशकर कई युगों, कई जगहों और इलाक़ों में रह रहे भारतीयों के आम तौर पर आयोजित होने वाले संगीत  समारोहों का अपने आप ही जीवन के सामूहिक साउंडट्रैक का एक अहम हिस्सा बन गयी हैं। उनके गाने उस विरासत की तरह हैं, जो आने वाली पीढ़ी के साथ आगे बढ़ती रहती है। लेकिन, ये गाने फिर भी कभी पुराने नहीं लगते और दशकों से ताज़ा बने हुये हैं। हैरत नहीं कि किसी 80 साल दादी और उस दादी की 18 साल की कोई पोती को एक साथ लता के गाये गाने को गुनगुनाते हुए देखा-सुना जा सकता है। लता हमारी साझी विरासत थीं। वह अब भी है और हमेशा ऐसी ही बनी रहेंगी।

उनके गाये ग़ैर-मामूली गानों की सूची में से आपका पसंदीदा गीत चाहे जो भी हो, मगर उन गीतों के उत्कृष्ट प्रभाव में लता की सुमधुर आवाज़ और बिल्कुल साफ़, निर्मल, और लगभग पारदर्शी आवाज़ की स्पष्ट छाप दिख रही होती है। उनकी आवाज़ ऐसी लगती है,मानों पानी का कोमल प्रवाह हो।  देश का शायद ही ऐसा कोई शख़्स हो,जो रेडियो, ट्रांजिस्टर, म्यूज़िक सिस्टम, सिनेमा हॉल और इस समय तो ऑनलाइन पर भी सालों से बज रही इस आवाज़ को पहचानता नहीं हो। पार्श्व गायिका-अभिनेत्री नूरजहां और शास्त्रीय गायिका एमएस सुब्बुलक्ष्मी के साथ लता ने इस उपमहाद्वीप की सबसे मशहूर महिला गायकों की एक अटूट तिकड़ी बनायी थी। 1969 में पद्म भूषण, 1989 में दादा साहब फाल्के और 1999 में पद्म विभूषण सहित कई पुरस्कारों से नवाज़ी गयीं लता सुब्बुलक्ष्मी के बाद 2007 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न हासिल करने वाली दूसरी गायिका थीं।

लेकिन, उनकी आवाज़ में महज़ सुमधुरता, ज़िंदादिली, मीठी धुनें ही नहीं थी,इसके अलावे भी और बहुत कुछ था। मसलन,  भाषा, शब्दों का सही उच्चारण और भावों को पूरी शिद्दत से पेश कर देने पर भी उनकी मज़बूत पकड़ थी। ऐसा कहा जाता है कि लता ने उर्दू सीखना तब शुरू किया था, जब अभिनेता और उनके क़रीबी दोस्त दिलीप कुमार ने हिंदी / उर्दू गीतों में उनके मराठी उच्चारण को लेकर सवाल उठा दिया था। यह उनका अपने पेश को लेकर उनकी प्रतिबद्धता का स्तर था।

सबसे बढ़कर जो बात थी,वह यह कि अपने गायन में वह गीत के शब्दों के भाव को बिना किसी ग़लती के पूरी तरह आत्मसात कर लेती थीं, गीतों के भाव की आत्मा और गीतों की बुनावट को पूर्णता के साथ पकड़ने की उनमें एक गहरी क्षमता थी। मज़ाक में अक्सर ही कहा जाता था कि वह गाने में सटीक भावों और उन भावों के स्तरों का घेरा बनाकर अभिनेत्रियों के काम को बहुत आसान बना देती थीं। अभिनेत्रियों को उस घेरे को बस भरना होता था।

संगीत में ही रचे-बसे चार भाई-बहनों,यानी मीना खादीकर, आशा भोंसले, उषा मंगेशकर और हृदयनाथ मंगेशकर में वह सबसे बड़ी थीं। लता मंगेशकर का जन्म 1929 में इंदौर में हुआ था। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर ख़ुद एक प्रतिष्ठित संगीतकार थे।लता ने अपने पिता से ही अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण हासिल किया था।

पंडित दीनानाथ मंगेशकर के निधन के बाद उनके पारिवारिक मित्र मास्टर विनायक, जो फ़िल्म कंपनी नवयुग चित्रपट के मालिक भी थे, उन्होंने लता को संगीत में उनके करियर को आगे बढ़ाने में मदद करने के लिए अपनी देख-रेख में ले लिया था। उनका पहला फ़िल्मी गीत "नाचु या गड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी" मराठी फ़िल्म किटी हसाल (1942) के लिए था, लेकिन,बाद में इस गीत  को उस फ़िल्म से हटा दिया गया था।

1945 में वह मुंबई (तब बॉम्बे) आ गयी थीं और उन्होंने भिंडीबाजार घराने के उन्हीं उस्ताद अमन अली ख़ान से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया, जिनके दूसरे जाने-माने शिष्यों में मन्ना डे भी शामिल थे।

संगीतकार ग़ुलाम हैदर फ़िल्म उद्योग में उनके शुरुआती उस्तादों में से एक थे, जिन्होंने उनसे फ़िल्म मजबूर (1948) में "दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का न छोड़ा" गाना गवाया था, जिसे अक्सर उनकी पहला बड़ा हिट गाना माना जाता है। अपने एक साक्षात्कार में लता ने संगीतकार ग़ुलाम हैदर को अपने "गॉडफ़ादर" के रूप में बताया था। उन्हें लता को लेकर तब भी यक़ीन बना रहा, जब शुरुआत में ही फ़िल्म उद्योग में लता की आवाज़ को "पतली आवाज़" कहकर ख़ारिय कर दिया गया था। महल (1949) से खेमचंद प्रकाश की धुन से सज़ा गाना "आयेगा आने वाला" ने उन्हें घर-घर में मक़बूल कर दिया था और इस गाने के ज़रिये लता ने बेमिसाल कामयाबी की राह पर पहला बड़ा क़दम रख दिया था।

लता ने कभी भी अपने गानों का कोई हिसाब-किताब नहीं रखा, लेकिन उनके गाये गानों का विशाल कोष का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदी फ़िल्मों में वह अकेली ऐसी आवाज़ थीं,जो नौशाद, शंकर जयकिशन, जयदेव, मदन मोहन, हेमंत कुमार, सलिल चौधरी, ख़य्याम, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, बर्मन, एआर रहमान जैसे सभी बड़े संगीत निर्देशकों के साथ काम किया था और यहां तक कि उन्होंने राहुल देव बर्मन (सचिन देव बर्मन के बेटे), राजेश रोशन (रोशन के बेटे), अनु मलिक (सरदार मलिक के बेटे) और आनंद-मिलिंद (चित्रगुप्त के पुत्र) जैसे पूर्व संगीतकारों के बच्चों के साथ मिलकर संगीत का जादू  बिखेरा था।

उन्होंने मधुबाला और मीना कुमारी से लेकर रेखा और हेमा मालिनी तक, डिंपल कपाड़िया से लेकर प्रीति जिंटा तक जैसी हिंदी फ़िल्मों की कई पीढ़ियों की अभिनेत्रियों के लिए प्लेबैक किया और मुकेश,किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी से लेकर सोनू निगम और गुरदास मान तक जैसे कई पीढ़ियों के पुरुष गायकों के साथ युगल गीत गाये।

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद 27 जनवरी, 1963 को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में लता ने सी रामचंद्र के संगीत और कवि प्रदीप के शब्दों से सजे ऐतिहासिक गीत "ऐ मेरे वतन के लोगो" को गाया था। ऐसा कहा जाता है कि इस गीत ने नेहरू को रुला दिया था और इसके बाद तो यह गीत भारतीय संगीत इतिहास में अब तक का सबसे ख़ास हिंदी देशभक्ति गीत के रूप में अंकित हो गया।

हालांकि, 92 साल की लता की अहमियत और विरासत इन बहुचर्चित गीतों से परे है। उन्होंने संगीत उद्योग में अपने लिए एक शानदार जगह बनायी थी और 75 से ज़्यादा सालों तक इस उद्योग पर राज किया। उनकी छोटी ख़ूबसूरत क़द-काठी और मौलिक सादग़ी अपने आप में एक आभा पैदा करती थी, विडंबना यह है कि उनके व्यक्तित्व और संगीत का इस ताने-बाने ने उन्हें  ज़िंदगी से कहीं ज़्यादा बड़ा बना दिया। मर्दों के वर्चस्व वाली इस दुनिया में वह एक ऐसी नन्हीं ताक़त थी,जिसकी अनदेखी करना मुमकिन ही नहीं है। लिंगगत भेदभाव से आगे जाकर उन्होंने "अनदेखे" पार्श्व गायकों को एक चेहरा देने और एक स्टार बनाने में अहम भूमिका निभायी थी। वह हिंदी पार्श्व गायन के विकास में सबसे आगे थीं और उन्होंने गीत को लेकर गायकों के अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से लड़ाई भी लड़ी थी। इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि वह राज कपूर की 1978 की फ़िल्म सत्यम शिवम सुंदरम के पीछे की प्रेरणा थी; राजकपूर उन्हें इस फ़िल्म की मुख्य भूमिका में भी लेना चाहते थे। अपने लम्बे करियर के शुरुआती सालों में एक अभिनेत्री के तौर पर और बाद के सालों में बतौर संगीतकार और फ़िल्म निर्माता लता को उतनी अहमियत नहीं मिली,जितनी की वह हक़दार थीं।

बढ़ती उम्र के साथ उनकी आवाज़ की मधुरता में तीक्ष्णता और हाई पीच बढ़ते गये, लेकिन उनकी यह आवाज़ इस समय ज़्यादतर ऑटो-ट्यून की गयी आवाज़ों के मुक़ाबले कहीं आगे है। उनके और उनकी ही तरह प्रतिभाशाली इमरा बहन आशा भोंसले के बीच की प्रतिद्वंद्विता को लेकर कई अशोभनीय कहानियां चलती रही हैं। उभरती हुई गायिकाओं -सुमन कल्याणपुर, मुबारक बेगम, सुधा मल्होत्रा की कथित छोटे-छोटे पौध को लेकर तो और भी अशोभनीय कहानियां चलती रही हैं, जो लता जैसी विशाल बरगद के पेड़ की उस छाया तले मुरझा गयी थीं, जिसमें वह तेज़ी के साथ आगे बढ़ रही थीं। लेकिन, इस बात को बिल्कुल भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि संगीत को लेकर उनके जैसा समर्पण किसी में भी नहीं था। इसके अलावे कोई भी अपनी (और आशा की) प्रतिबद्धता को इतनी ताक़त के साथ आगे बढ़ाने में सक्षम भी नहीं थीं। यही वजह है कि पेज 3 (2005) के "कितने अजीब रिश्ते" और रंग दे बसंती (2006) के "लुका छुपी" गीत आख़िरी अहम गीतों में होने के बावजूद उन्होंने श्रोताओं की कई पीढ़ियों के लिए पार्श्व गायन को परिभाषित करना और उसे मूर्त रूप देना जारी रखा और जिसका आकर्षण पूरे देश में रहा और उनके गीतों का यह आकर्षण महज़ हिंदी-उर्दू-मराठी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। असल में उन्होंने शायद भारत की तमाम भाषाओं और कुछ विदेशी भाषाओं में भी गाया।

बाद के सालों में वह ग़ैर-फ़िल्मी एल्बमों के साथ और ज़्यादा जुड़ गईं और डॉन्ट नो व्हाई…ना जाने क्यूं (2010), सतरंगी पैराशूट (2011) और डॉन्ट नो व्हाई2 (2015) जैसी फ़िल्मों में एक अजीब गीत गाया, जो कि ख़ुद उन फ़िल्मों की तरह ही भूला देने लायक़ साबित हुआ।

"ऐ मेरे वतन के लोगो" से राष्ट्रभक्ति वाले फ़िल्मी गीत से शुरू होने वाला सफ़र 2019 में तब एक चक्र पूरा करता हुआ दिखा,जब लता ने उस कविता-"सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं मिटने दूंगा" को गाया था, जिसे पीएम नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय हवाई हमले के ठीक बाद राजस्थान के चुरू की एक रैली में सुनाया था। यह भारतीय जवानों और राष्ट्र को श्रद्धांजलि थी, जिसे उन्होंने ख़ुद यू-ट्यूब पर पोस्ट किया था और ट्वीट किया था।

वह निजी जीवन जीना पसंद करती थीं, कुछ ही मौक़ों पर वह सामाजिक समारोहों में नज़र आती थीं, उन्हें हीरे से लगाव था और क्रिकेट को लेकर ज़बरदस्त जुनून था। पूर्व क्रिकेटर. राष्ट्रीय चयनकर्ता और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष स्वर्गीय राज सिंह डूंगरपुर के साथ उनके घनिष्ठ रिश्ते को लेकर अफ़वाहें थीं। हालांकि, दोनों अपनी इस दोस्ती को लेकर चुप रहे और आख़िर तक कुंआरे रहे।

लता अपनी पीढ़ी की एक ऐसी विरल व्यक्ति रहीं, जो ख़ुद को "1942 से पार्श्व गायिका" के रूप में वर्णित करते हुए सहजता के साथ ट्विटर का इस्तेमाल करती रहीं और वह भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। विडंबना यह है कि 4 जनवरी को उन्होंने जो आख़िरी दो ट्वीट किये थे,उनमें पंचम उर्फ़ आरडी बर्मन की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी थी और सामाजिक कार्यकर्ता सिंधुताई सपकाल के निधन पर शोक व्यक्त किया गया था।

संगीत और फ़िल्म निर्माण में स्वर्ण युग के सबसे बड़े नुमाइंदों में से एक लता मंगेशकर का निधन असल में वक़्त के उस बेरहम और अटूट सिलसिले का एक दुखद संकेत है, जो अपने जीवन काल में ही किंबदंती बन चुके हमारे कुछ शख़्शियतों को हमसे छीनता रहा है।विडंबना यह है कि यह इस बात की याद और भरोसा दोनों दिलाता है कि संगीत सफ़र फिर भी चलत रहेगा। लता मंगेशकर की उपलब्धियों का भला कभी कोई विदाई गीत बन सकता है ?

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

With Lata Mangeshkar Can There Ever be a Swan Song?

Lata Mangeshkar
The Melody Queen
bollywood
Golden Era of Music
Aey Mere Watan Ke Logo

Related Stories

पत्रकारिता में दोहरे मापदंड क्यों!

चमन बहार रिव्यु: मर्दों के नज़रिये से बनी फ़िल्म में सेक्सिज़्म के अलावा कुछ नहीं है

हर आत्महत्या का मतलब है कि हम एक समाज के तौर पर फ़ेल हो गए हैं

ज़ायरा, क्रिकेट और इंडिया


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License