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आंदोलन
मेरा हौसला टूटा नहीं है : कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज
जब मैं 21 साल की हुई, तो मैं यह चुनाव करने को लेकर आज़ाद थी कि मैं भारतीय होना चाहती हूं या अमेरिकी होना चाहती हूं। मैंने बुनियादी तौर पर भारतीय होने को चुना, क्योंकि तब तक मैं पहले से ही सामाजिक मुद्दों में संलगग्न हो चुकी थी। 23 साल की उम्र में मैंने अपना अमेरिकी पासपोर्ट छोड़ दिया।
एजाज़ अशरफ़
27 Jan 2022
sb

यह सुधा भारद्वाज के साथ लिये गये साक्षात्कार का दूसरा हिस्सा है, जिन्हें 2018 में हुई भीमा कोरेगांव की हिंसा को भड़काने में कथित भूमिका को लेकर 28 अक्टूबर, 2018 को गिरफ़्तार कर लिया गया था। (पहला हिस्सा-सामाजिक कार्यकर्ताओं की देशभक्ति को लगातार दंडित किया जा रहा है: सुधा भारद्वाज) इस साक्षात्कार में वह विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अपनी पृष्ठभूमि पर बात करते हुए बताती है कि उन्होंने अपनी अमेरिकी नागरिकता क्यों छोड़ दी, उस छत्तीसगढ़ आ जाने के बाद क्या हुआ, जहां उन्होंने औद्योगिक श्रमिकों के बीच उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए काम किया, जेल में उनका समय कैसे बीता और उन्हें अपनी बेटी से अलग होने की चिंता किस क़दर सता रही थी। भारद्वाज इस बात पर चर्चा करती हैं कि किस तरह वह सीमित आज़ादी वाले जीवन के साथ तालमेल बैठाने की उम्मीद करती हैं।

सीमित आज़ादी का क्या तमलब ? जी,हां,क़रीब तीन साल जेल में बिताने के बाद भारद्वाज पिछले महीने ही ज़मानत पर रिहा हुई थीं। उनकी ज़मानत की शर्तों में उन्हें मुंबई छोड़ने की मनाही है, हालांकि अब उन्हें ठाणे में रहने और भीमा कोरेगांव मामले पर बोलने की अनुमति दे दी गयी है। न्यूज़क्लिक ने उनसे इस मामले पर कोई सवाल नहीं पूछा, और उन्होंने अदब के साथ ऐसे किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया, जिसके बारे में उन्हें लगा कि उस सवाल का जुड़ाव इस मामले से दूर-दूर तक भी है।

 आपको गिरफ़्तार किया गया था, तो उस समय के अख़बार आपके विशेषाधिकार प्राप्त वाली अतीत की कहानियों से अटे-पड़े थे। मसलन, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर जाने वाली शीर्ष शिक्षाविदों की बेटी को एक आरामदेह नौकरी मिल सकती थी और फिर भी छत्तीसगढ़ में औद्योगिक श्रमिकों के बीच काम करने के लिए चली गयी । किस वजह से आपने उस रास्ते को चुना, जिस पर मध्यम वर्ग को चलना अक्सर गवारा नहीं होता है ?

मेरी पृष्ठभूमि एक बेहद विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग वाली है। मेरी मां एक प्रोफ़ेसर थीं और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फ़ॉर इकोनॉमिक स्टडीज़ एंड प्लानिंग की संस्थापकों में से एक थीं। एक बच्चे के लिए जेएनयू एक दिलचस्प जगह थी। चर्चायें और बहसें होती रहती थीं। एक बच्चे के तौर पर मुझे वियतनाम के मुक्ति समारोह में भाग लेना याद है। मुझे वह मशाल जुलूस याद है, जो जेएनयू के छात्रों ने आपातकाल के बाद के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की हार पर निकाला था। हमारे चारों तरफ़ ऐसे लोग थे, जो सिर्फ़ करियर ही नहीं, बल्कि दुनिया को बदलने की कोशिश कर रहे थे। जेएनयू के माहौल ने मुझमें सामाजिक ज़िम्मेदारी का जज़्बा पैदा किया।

इसके बाद आप गणित की आगे की पढ़ाई के लिए IIT, कानपुर चली आयीं, जिससे कि ज़्यादातर लोग हैरान थे।

मैं 1979 में आईआईटी गयी और 1984 में पास कर लिया था। दिल्ली ने 1982 में हुए एशियाई खेलों की मेज़बानी की थी। जेएनयू के पास निर्माण श्रमिकों के लिए चारों ओर काटीले तारों से घिरा एक विशाल शिविर बनाया गया था। वे आयोजित होने वाले खेलों के लिए स्टेडियम और पांच सितारा होटल बना रहे थे। मैं (छुट्टियों के दौरान) कानपुर से दिल्ली आती थी। जेएनयू और एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) के तत्थे उस शिविर में जाते थे। मेडिकल इंटर्न श्रमिकों का इलाज करते। हम उनके बच्चों को पढ़ाते।

उस शिविर की दुर्गति भयानक थी। एक बार किसी छात्र ने ओडिशा के एक मज़दूर से उनकी ही भाषा में बात की। उनका गला भर आया था। उन्होंने कहा था कि उनके परिवार के लोग बीमार हैं, लेकिन उन्हें घर जाने से मना कर दिया गया है। उनकी स्थिति किसी बंधुआ मज़दूर की तरह थी। जब हम अगली बार उस शिविर में गये, तो वह मज़दूर वहां नहीं था। मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ गयी। मैंने महसूस किया कि ग़रीबों के लिए काम करना एक या दो दिन का काम नहीं हो सकता।

क्या उसी अनुभव ने आपको सामाजिक सक्रियता का विकल्प चुनने के  लिए प्रेरित किया था?

शंकर गुहा नियोगी (जाने-माने ट्रेड यूनियन नेता) को गिरफ़्तार कर लिया गया था।उनकी गिरफ़्तारी के विरोध में 1983 में दिल्ली क्लॉथ मिल में हड़ताल हुई थी। मैंने पहली बार नियोगी के बारे में सुना था। हम नियोगी की रिहाई के अभियान में शामिल हो गये। जब उन्हें जेल से रिहा किया गया, तो वह उन छात्रों से मिलना चाहते थे, जिन्होंने उनकी रिहाई के लिए अभियान चलाया था। वह हमसे मिलकर बहुत ख़ुश हुए थे। उत्सुकतावश मैंने उस दल्ली राजहरा (छत्तीसगढ़ का एक खनन शहर) की कुछ यात्रायें कीं, जो भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए लौह अयस्क की आपूर्ति करने वाला एक खदान है। दल्ली राजहरा वह जगह थी, जहां नियोगी का यूनियन-छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा था। मैं पूरी तरह से उस यूनियन में शामिल कर ली गयी।

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा को लेकर आख़िर इतनी अनोखी बात क्या थी?

यह यूनियन महज़ आर्थिक संघर्षों को लेकर ही नहीं था। इस यूनियन के लोग स्कूल और अस्पताल चला रहे थे, लोगों को शराब की लत से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे और महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। मोर्चा की एक सांस्कृतिक टीम भी थी। वे आदिवासी नायक वीर नारायण सिंह के बारे में बात कते। अपनी मां की आशंकाओं के बावजूद मैंने 1986 में उनके साथ जुड़ने का मन बना लिया। मैंने शुरू में उन स्कूलों में पढ़ाया, जिन्हें यूनियन चलाता था। मैं इसके बाद यूनियन के कार्यकर्ताओं को लामबंद करने लग गयी। मैं 1990-1991 में भिलाई में स्थानांतरित हो गयी, जहां ठेका श्रमिकों को नियमित करने को लेकर एक नया आंदोलन शुरू हुआ था। इसके बाद, नियोगी की हत्या कर दी गयी। फिर तो मैं वहीं रुकी रही। 

क्या कार्यकर्ताओं को लामबंद करने के दौरान आपको हिंसा या ख़तरों का भी सामना करना पड़ा था?

कार्यकर्ताओं को संगठित करते समय मुझे ख़तरे का सामना तो नहीं करना पड़ा, लेकिन हर तरफ़ हमारे नेताओं और कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ इतनी हिंसा थी कि यह हिंसा व्यक्तिगत रूप से भी उतनी ही बड़ी थी। कॉमरेड नियोगी की हत्या से कुछ समय पहले रायपुर के सिम्प्लेक्स उरला में तलवार लहराते ग़ुंडों का एक बड़ा समूह फ़ैक्ट्री से निकला और धरने पर बैठे मज़दूरों पर हमला बोल दिया। उनमें से चार मज़दूर गंभीर रूप से घायल हो गये, उनके हाथ की हड्डियां टूट गयीं। सितंबर के मध्य में नियोगी ने इन घायल श्रमिकों के साथ भारत के राष्ट्रपति से मुलाक़ात की और उनके सामने 50,000 नागरिकों के हस्ताक्षर वाली एक याचिका पेश की। राष्ट्रपति से उस मुलाक़ात के एक पखवाड़े के भीतर (28 सितंबर, 1991 को) ही नियोगी की हत्या कर दी गयी।

आपके लिए ख़ुद को अपनी वर्गगत भावना से अलग कर पाना (डी-क्लास करना) कितना मुश्किल था?

नियोगी के अहम सिद्धांतों में से एक सिद्धांत यह था कि सभी मध्यम वर्ग के कार्यकर्ताओं को मज़दूर वर्ग की अगुवाई में चलना होता था। हम कार्यकर्ताओं के बीच रहते थे। इसका मतलब था अपने कच्चे घरों को गोबर से लिपना (मूल रूप से मिट्टी के घरों की दीवारों और फ़र्श पर गाय का गोबर लगाना)। मनोवैज्ञानिक रूप से सबसे मुश्किल काम तो खेतों में बाहर जाना सीखना, एक छड़ी से लैस होकर भटकते सूअरों का पीछा करना, ख़ुद को राहत देना था। लेकिन, मुझे अपने यूनियन के साथियों और मोहल्ले में रहने वाले लोगों से इतना स्नेह मिला कि मुझे लगा कि मैं तो यूनियन की आंचल में हूं। कभी-कभी हालांकि, मैं किसी पीजी वोडहाउस में पढ़ने या कॉलेज के पुराने दोस्तों को याद करके उदास हो जाती थी।

आप वकील कब बनीं ?

नियोगी की हत्या के बाद तो कई मामलों से निपटना था। बतौर एक शिक्षित व्यक्ति मैं कार्यकर्ताओं और वकीलों के बीच मध्यस्थता कर रही थी। कार्यकर्ता मुझसे कहते, “दीदी, हम इन वकीलों का ख़र्चा नहीं उठा सकते। वैसे भी हम नहीं जानते कि वे किस तरफ़ हैं।” यूनियन बड़े कॉरपोरेटों के ख़िलाफ़ लड़ रहा था और आप कभी कुछ नहीं कह सकते थे (कि किसको ख़रीद लिया जाता)। उन्होंने कहा कि आपमें बेहतर वकील बनने की क़ाबलियत है। और फिर साल 2000 में मैं 40 साल की उम्र में एक वकील बन गयी।

आपमें आये इस बदलाव से पहले आपके पास अमेरिकी पासपोर्ट था। आपने कब और किस वजह से भारतीय नागरिकता का चुनाव किया?

मैं तो माता-पिता से पैदा होने वाली एक संयोग थी(खुलकर हंसते हुए), जो कि पोस्ट-डॉक्टरेट फेलोशिप के सिलसिले में संयुक्त राज्य अमेरिका में थे। मैं तो वहां महज़ एक साल ही रह पायी थी। मैं वापस आ गयी। उसके बाद जब मैं चार साल की थी, तो मैं अपनी मां के साथ कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी चली गयी। जब मैं लौटी, तो मैं 11 साल की थी।

जब मैं 21 साल की हुई, तो मैं यह चुनाव करने को लेकर आज़ाद थी कि मैं भारतीय होना चाहती हूं या अमेरिकी होना चाहती हूं। मैंने बुनियादी तौर पर भारतीय होने को चुना, क्योंकि तब तक मैं पहले से ही सामाजिक मुद्दों में संलगग्न हो चुकी थी। 23 साल की उम्र में मैंने अपना अमेरिकी पासपोर्ट छोड़ दिया।

क्या यह सच है कि जब आप अपना अमेरिकी पासपोर्ट सरेंडर करने के लिए अमेरिकी दूतावास गयी थीं, तो वहां के अधिकारियों ने आपको अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़ने से रोकने की कोशिश की थी?

यह कहानी तो बहुत ही मज़ेदार है। मैं अपनी मां (अर्थशास्त्री) जयती घोष और प्रोफ़ेसर सुनंदा सेन के साथ अमेरिकी दूतावास गयी थी (हंसते हुए)। हमने वहां वीज़ा के लिए लगी लंबी क़तार देखी। मैं गेट तक गयी और मुझे अदब से कहा गया कि वीज़ा वाले कतार में लग जाऊं। मैंने कहा कि मैं एक अमेरिकी पासपोर्ट धारी हूं। हम चारों को अंदर ले जाया गया।

जब मैंने उस सज्जन से अपने आने की वजह बतायी, तो उन्होंने कहा, "आप ये क्या करना चाहती हैं ?" मैंने कहा था, "मैं अपना अमेरिकी पासपोर्ट सरेंडर करना चाहती हूं और भारतीय नागरिक बनना चाहती हूं।" मैंने उन्हें समझाया कि मेरे माता-पिता दोनों भारतीय नागरिक हैं और मैं भी उन्हीं की तरह भारतीय होना चाहती हूं।

इस पर उन्होंने कहा (वह उसके लहज़े की नक़ल करते हुए कहती हैं), "क्या आपने यक़ीनी तौर पर अपने पिता से इसकी चर्चा कर ली हैं ? क्या यक़ीनी तौर  पर अपने पति के साथ भी इसकी चर्चा कर ली है ?" (वह हंसती हैं) मैं मज़ाक नहीं कर रही। असल में उन्होंने सोचा होगा कि ये चार झक्की महिलायें इस मुद्दे पर परिवार के किसी पुरुष सदस्य के साथ चर्चा किये बिना ही ख़ुद-ब-ख़ुद चली आयी हैं।

चूंकि मैं ज़ोर देती रही, इसलिए वह फ़ॉर्म (जिसे कोई व्यक्ति नागरिकता छोड़ने के लिए भरता है) लेने चले गये, लेकिन फ़ॉर्म नहीं मिला। उन्होंने कहा कि आसपास कोई फ़ॉर्म नहीं है, क्योंकि दिल्ली में अबतक किसी ने मांगा ही नहीं था। उन्होंने कहा कि वह फ़ॉर्म मंगवायेंगे और मुझे एक हफ़्ते बाद आने को कहा गया। जाते-जाते उन्होंने कहा था, "लेकिन कृपया, इस पर कुछ और विचार कर लें।"(फिर हंसती हैं)

एक सप्ताह के बाद मैं फिर दूतावास गयी। मुझे वह फ़ॉर्म दे दिया गया। बहुत ही चिंतित उस सज्जन ने मुझसे कहा था, "कृपया याद रखें, आप जो क़दम उठाने जा रही हैं, वह बहुत गंभीर है।" मैंने कहा, "यक़ीनन, मुझे यह पता है।" उन्होंने पूरी गंभीरता से कहा, "आपको पता है, वे आपको अमेरिकी सेना में कभी भी शामिल नहीं होने देंगे।" (मैं भी उनके ठहाकों में शामिल होता हूं) और फिर मैंने कहा, "बिल्कुल सर, मुझे नहीं लगता कि मैं अमेरिकी सेना में शामिल होना चाहती हूं।" उसके बाद, मैंने इस बात की हलफ़ ली थी कि मैं अपनी अमेरिकी राष्ट्रीयता छोड़ रही हूं।

हममें से ज़्यादतर लोगों के उलट भारतीय बनना आपके लिए एक राजनीतिक चुनाव था। आपने जिस तथ्य को लेकर भारतीय होने का चुनाव किया था, उसका आपके नज़रिये पर कोई असर पड़ा?

आईआईटी में मेरे बैच के ज़्यादतर लोगों ने अमेरिकी नागरिक बनने का विकल्प चुना था। मुझे इस देश से प्यार है और मैं यहां के लोगों के लिए कुछ करना चाहती हूं। इसके अलावा, मैं नहीं चाहती थी कि मेरा वीज़ा हर छह महीने में रीन्यू हो और सच कहा जाये,तो मैं ऐसा नहीं कर सकती और अगर मैं वैसा नहीं करती, तो ज़ाहिर है कि मुझे यहां से जाना पड़ता।

जिस किसी के मन में भी यह धारणा है कि मैंने कोई बलिदान दिया है, तो उसे इस भ्रम को हटा देना चाहिए। मैंने जो अपने ले चुनाव किया था, वह इसलिए था, क्योंकि मैं अपने आसपास के लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाना चाहती थी। मुझे इसका कभी भी पछतावा नहीं हुआ। कभी भी मुझे यह अहसास नहीं हुआ कि काश मैं अमेरिका में होती।

आप अमेरिकी नागरिक होतीं,तो शायद वे आपके पीछे नहीं पड़ते।

वे अदब से मुझे 'मेरे देश' वापस जाने के लिए कह देते। (फिर से हंसती हैं)।

फिर भी, वे आपके पीछे पड़ ही गये। आपको अक्टूबर 2018 में गिरफ़्तार किया गया और पुणे ले जाया गया - और यरवदा जेल के सेपरेट यार्ड सेल में बंद कर दिया गया। सेपरेशन यार्ड सेल से मतलब क्या है?

किसी गलियारे के साथ एक ऐसे बड़े क़ैदखाने की कल्पना करें, जिसके आगे काली कोठरियां हों। सेन मेरे बगल की कोठरी में थीं। वहां दो अन्य महिलायें भी थीं, इन दोनों को मौत की सज़ा सुनायी जा चुकी थी। वे 25-26 सालों से जेल में थीं। हमें उस पिंजरे जैसी इमारत से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी, इसके अलावा, दोपहर 12 बजे से लेकर दोपहर 12.30 बजे के बीच 30 मिनट तक धूप लेने के लिए मिलता था। उन 30 मिनटों में बाक़ी क़ैदी बैरक के अंदर होते थे।

क्या आप और प्रोफ़ेसर सेन दोनों उन दो महिलाओं से बात कर पाती थीं?

हां, हम कर पाते थे। लेकिन, उन्होंने जेल में इतना लंबा वक़्त बिताया था कि उनका स्वभाव बहुत कटु हो गया था और ऐसे में उनके साथ बातचीत कर पाना मुश्किल था।

इसलिए,प्रोफ़ेसर सेन के अलावा, सेपरेट यार्ड सेल की उन दो महिला क़ैदियों और अजीब-ओ-ग़रबी कांस्टेबलों में से किसी से भी आप बातचीत नहीं कर सकते थे।

व्यावहारिक तौर पर यह सेल उस तरह से काम नहीं करता था। एक बात तो यह है कि यरवदा में पानी की कमी थी। हमें हैंडपंप से चार बाल्टियां पानी भरकर अपनी कोठरी में रखना होता था। या फिर हमें कैंटीन से सामान लेने के लिए जाने दिया जाता था। क़ैदियों को अपने पास 4,500 रुपये रखने की इजाज़त थी। जब हमें कोर्ट ले जाया जाता था, तो हम उसी वैन में जाते थे,जिसमें दूसरे लोग ले जाये जाते थे। ऐसे तमाम पलों में हमने एक दूसरे से बातचीत की।

आपको दूसरों के साथ खाना खाने की इजाज़त नहीं थी?

नहीं, हमें अपनी कोठरी में ही खाना होता था।

ऐसा लगता है कि यह आपके हौसले को तोड़ने की कोशिश थी।

(खुलकर हंसते हुए) मेरा हौसला टूटा नहीं है।

अपनी बेटी मायशा से अलग होना तो आपके लिए मुश्किल रहा होगा।

मैंने 1986 से लेकर 2016 के बीच छत्तीसगढ़ में बेहतरीन 30 साल बिताये थे। मैं 2017 में दिल्ली आ गयी थी, क्योंकि मैं मायशा को समय देना चाहती थी। वह कॉलेज जाने की तैयारी में थी और उसे अपना करियर बनाना था। बतौर एक वकील,बतौर एक कार्यकर्ता उन 30 सालों तक मैंने दिन-रात काम किया था।

इस बात से भी मैं अवगत थी कि मुझे कुछ पैसे कमाने की ज़रूरत है, क्योंकि मायशा को एक अच्छी शिक्षा देने के लिहाज़ से मेरे पास शायद ही कोई बचत थी। इसलिए, मैंने 2017 में दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में बतौर एक विजिटिंग प्रोफ़ेसर नौकरी कर ली। इस नौकरी को 2019 तक के लिए विस्तार मिल गया था। इसके बाद तो मुझे गिरफ़्तार ही कर लिया गया था।

(हंसते हुए) जब मैंने दूसरों के लिए काम करते हुए 30 साल समर्पित कर दिये, जब मैंने अपनी बेटी के लिए वहां रहने का मन बना लिया, तब वे मेरे पास पहुंच गये। मायशा अकेली रह गयी। बेशक, आसपास लोग तो थे ही। उनसे जितना हो सका, उन्होंने हमारी मदद की। लेकिन, यह उसके लिए तो बहुत बड़ा सदमा था। मुझे सही मायने में इस बात का फ़ख़्र है कि तमाम परेशानियों के बावजूद वह भिलाई के सेंट थॉमस कॉलेज में दाखिला पाने में कामयाब रही, और बीए साइकोलॉजी के दूसरे साल में पढ़ रही है।

एक साक्षात्कार में उन्होंने मुझसे कहा था कि वह एक मनोवैज्ञानिक बनना चाहती हैं।

उसने यह सब मेरी गिरफ़्तारी के दरम्यान ही किया, वह मुझे मिस कर रही थी, मुझसे मिलने के लिए जेल आती रहती थी। जेल में रहते हुए मायशा मेरी सबसे बड़ी चिंता थी। वह मुझे लिखती रहती थी। डाक से उसकी चिट्ठी जब तक मेरे पास पहुंचती, तबतक उस चिट्ठी को लिखे हुए कई दिन बीत चुके होते। वे उन चिट्ठियों को मुझे सौंपने से पहले तीन दिनों तक सेंसर करते थे। फिर मैं उसे जवाब देती। जवाब को सेंसर करने और उसे पोस्ट करने में उन्हें तीन दिन लग जाते। उस चिट्ठी को उस तक पहुंचने में एक या दो हफ़्ते का वक़्त लग जाता। मैं तब बहुत बेबस महसूस करती, जब वह अपना दर्द और पीड़ा बयान करती। मैं उसे दिलासा दिलाने के अलावे कुछ नहीं कर सकती थी। महामारी के दौरान हमें फ़ोन करने की इजाज़त मिली हुई थी। यह चिट्ठी लिखने से तो बेहतर ही था।

लेकिन, महामारी से पहले आप उनसे कितनी बार मिल पायी थीं?

जब मैं पुणे की यरवदा जेल में थी, तो उसे मुझसे मिलने दिल्ली या भिलाई से आना पड़ता था। वह तीन महीने में एक बार मुझसे मिलने आती थी। वह इससे ज़्यादा बार ऐसा नहीं कर सकती थी। हमें हफ़्ते में एक बार मुलक़ात की इजाजत थी। इसलिए, वह मुझसे शनिवार और फिर सोमवार को मिलती थी। एक दूसरे के साथ मिलने के लिए आपको 15 से 20 मिनट का समय दिया जाता है, हालांकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांस्टेबल कितना भला है। (हंसती हैं)।

एक दूसरे के साथ मुलाक़ात क्या कांच की दीवार के आर-पार वाली थी?

हां, हम एक दूसरे को छू नहीं सकते थे। एक टेलीफ़ोन उसकी तरफ़ और एक टेलीफ़ोन मेरी तरफ़ होता था। हम टेलीफ़ोन पर ही बातें करते थे। यक़ीनन, वे हमारी बातचीत को टेप कर सकते थे, हालांकि यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उस बातचीत में टेप करने लायक कुछ भी नहीं था। (हंसती हैं)।

क्या वह आपके सामने रोती थीं?

वह कई बार रोयी।

और आप उन्हें गले नहीं लगा पातीं?

नहीं, कांच की दीवार के आर-पार हम अपनी हथेलियां एक दूसरे की हथेलियों पर रख लेते थे, हम एक दूसरे के लिए अपना प्यार जताने के लिए बस इतना ही कर सकते थे। अदालत की सुनवाई के दौरान भी वह मिलती थी। अगर कोई भला गार्ड होता, तो वह कह देता, "बेटी है, उसे जाने दो।" फिर हम एक दूसरे को गले लगा लेते। सब कुछ किसी व्यक्ति विशेष की भावनाओं और कल्पनाओं पर निर्भर करता। अगर वह मेरे खाने के लिए कुछ लाती, तो वे उसे मुझे देने नहीं देते।

जेल में समय बिताना कितना मुश्किल था?

यरवदा में हम अकेले थे और इसलिए पढ़ने-लिखने में ही समय बितता था। हम पहले से लेकर आख़िरी पन्ने तक पूरा अख़बार ही पढ़ जाते थे, पहेलियां सुलझाते थे। मैंने यरवदा में काफ़ी अच्छा लेखन किया।

किस तरह का लेखन?

जेल, वहां क़ैद किये गये लोगों,उनके मुकदमों पर नोट्स लिखती थी। फ़रवरी 2020 में मुझे मुंबई की भायखला जेल में स्थानांतरित कर दिया गया था, वहां मैं बैरक में रहती थी। यह बात चारों ओर फैल गयी थी कि सुधा आंटी क़ानूनी दरख़्वास्त लिख सकती हैं। मैंने महामारी के दौरान अंतरिम ज़मानत पाने के लिए बहुत सारे अप्लिकेशन लिखे। वे मुझे पढ़ने के लिए अपने काग़ज़ात देते, ताकि मैं उन्हें उन बिंदुओं को बता सकूं ,जिन्हें वे अपने वकीलों के साथ उठा सकें। मैंने अपने पूरे जीवन में जितनी क़ानूनी मदद की थी, उससे कहीं ज़्यादा इन डेढ़ साल में की। (हंसती हैं)।

 2021 की घातक दूसरी लहर के दौरान आप कहां थीं?

भायखला जेल में। छब्बीस लोग वायरस के टेस्ट में पोज़िटिव पाये गये थे और उन्हें उस कोविड संटेर भेज दिया गया था, जो कि जेल के बाहर था। हालांकि, मेरे सहित बड़ी तादाद में लोग बीमार हुए थे, लेकिन उनकी रिपोर्ट नेगेटिव आयी थी। मुझे छोटे स्तर का बुखार था और महीने भर तक दस्त होता रहा। हमें एक ऐसे बैरक में रखा गया था, जिसे क्वारंटाइन सेंटर में बदल दिया गया था। सोशल डिस्टेंसिंग तो नामुमकिन ही था। हम सचमुच एक दूसरे के बगल में फ़र्श की पट्टियों पर सो रहे थे। हम एक ही बाथरूम का इस्तेमाल करते थे। बैरक की सफ़ाई करने कोई भी नहीं आता था और हमें बैरक के बाहर से ही खाना पकड़ा दिया जाता था।

ऐसा कहा जाता है कि किताबें जेल में पढ़े-लिखे लोगों के लिए क़ैद से आज़ाद होने का अहसास कराती हैं। क्या आपने भी ख़ूब पढ़ाई की?

यरवदा और भायखला दोनों ही जेलों में हमें किताबें पाने के लिए जूझना पड़ा। यरवदा में पुरुष वाले सेक्शन में तो एक पुस्तकालय था। कुछ किताबें महिला वाले सेक्शन के लिए भी लायी जातीं। यरवदा जेल में रहने के लगभग दो सालों के दौरान मैंने मराठी सीख ली। भले ही मैं मराठी नहीं जानती थी,लेकिन चूंकी लिपि देवनागरी है,इसलिए मैंने यह भाषा सीख ली। मैंने मराठी में ऐनी फ़्रैंक की डायरी पढ़ी। (हंसती हैं) मैं भाषाओं में ठीक-ठाक हूं।

कोर्ट का आदेश था कि मुझे किताब उपलब्ध करायी जाये। एक दोस्त ने मुझे नाओमी क्लेन की लिखी एक बहुत ही अच्छी किताब-दिस चेंजेस एवरीथिंग: कैपिटलिज्म वर्सेज द क्लाइमेट लाकर दी थी। मैंने इसका हिंदी में अनुवाद शुरू कर दिया, तीन अध्याय पूरे भी कर लिये। मुझे लगता है कि विस्थापन के ख़िलाफ़ लड़ने वाले सभी कार्यकर्ताओं को यह किताब पढ़नी चाहिए। मैंने अपने कुछ दोस्तों से क्लेन से संपर्क करने का अनुरोध किया। क्लेन ने मेरे इस प्रयास का बहुत समर्थन किया। लेकिन, मैं अनुवाद पूरा नहीं कर पायी, क्योंकि मुझे भायखला जेल में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां मैं अप्लीकेशन लिखने और अन्य क़ैदियों के क़ानूनी काग़ज़ात पढ़ने में व्यस्त थी।

अब जबकि आप ज़मानत पर हैं, तो क्या आपने इस नये जीवन के साथ तालमेल बिठा लिया है?

यह एक मिला-जुला अहसास है। मैं थोड़ा बेचैन हूं। मेरे पास घर नहीं है, मेरे पास बैंक बैलेंस नहीं है, मेरे पास नौकरी नहीं है। मेरी एक बेटी है, जिसे मदद करना है। मेरे ख़िलाफ़ मामला चल रहा है। (हंसती हैं) मेरे पास तो वकील को भुगतान करने की फ़ीस है। लेकिन, मैं ख़ुशक़िस्मत हूं। मेरे ऐसे मित्र हैं, जो मुझे लेकर सहृदय हैं, जिन्होंने मेरे लिए ज़मानत देने का साहस किया है...जब से मुझे जमानत मिली है, मैंने अपना ज़्यादतर वक़्त अपनी ज़मानत से जुड़े दस्तावेज़ को जुटाने में बिताया है। यह क़वायद जल्द ही खत्म हो जानी चाहिए।

अगला सवाल यही है कि अपनी आजीविका का इंतज़ाम कैसे किया जाये। इस लिहाज़ से मुझे मुंबई पसंद है। यह मेहनतकशों का शहर है। इसमें दिल्ली वाला दिखावा नहीं है। लेकिन, मुंबई रहने के लिहाज़ से महंगा शहर भी तो है।

आप पढ़ाना शुरू क्यों नहीं करतीं?

मुझे पढ़ाना तो अच्छा ही लगता। मगर,मसला यह है कि मेरे साथ जुड़े मामले का जो लांछन है,उसके साथ मुझे औपचारिक रोज़गार भला कौन देगा। मुझे नहीं लगता कि यह उनके लिए व्यावहारिक है। छत्तीसगढ़ के दोस्त कहते हैं, "दीदी, आप आसमान से गिरीं और खजूर पर अटक गयीं।" (हंसती हैं)। (इनके सिलसिले में मूल रूप से इस हिंदी कहावत का मतलब यही होगा कि "आप भायखला से निकली हैं और मुंबई में फ़ंस गयी हैं।") मैं उनसे बात कर सकती हूं। लेकिन,सबसे अहम बात यह है कि मुझे अपनी बेटी के साथ बिताने का समय मिल गया है। 

जब मैंने आपको इस साक्षात्कार के लिए अनुरोध करते हुए ईमेल किया था, तो मुझे बॉब डायलन की वह पंक्ति याद आ रही थी, जिसे मैंने वर्षों पहले पढ़ी थी: "मेरे भले दोस्त मुझसे पूछते हैं / आज़ाद होना कैसा लगता है / मैं उन्हें रहस्यमय तरीक़े से जवाब देता हूं / आकाश के पंछी आकाश के रास्तों से बंधे हैं।” क्या आप इन पंक्तियों से ख़ुद को जुड़ा पाती हैं?

(हंसते हुए) दरअस्ल मैं वही हूं। मैं पिंजरे से बाहर आ तो गयी, लेकिन मैं अब भी बंधी हुई हूं। लेकिन, मुझे आज़ादी है, मसलन, आपसे बात करने की आज़ादी- और यह बहुत बड़ी बात है। (हंसती हैं)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

My Spirit has not Been Broken: Activist Sudha Bharadwaj

Sudha Bhardwaj
UAPA
life of sudha bharjwaj
shankar guha niyogi
Bhima Koregaon
chhatisgarh

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