NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
माल्दा, मुसलमान और कुछ सवाल!---------
वाहिद नकवी
23 Jan 2016

मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबाल खेलने के ख़िलाफ़ फ़तवा क्यों जारी हो जाता है?

माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए! बेहद गम्भीर और बड़ा सवाल. सवाल के भीतर कई और सवालों के पेंच हैं, उलझे-गुलझे-अनसुलझे. और माल्दा अकेला सवाल नहीं है. हाल-फ़िलहाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं, जो इसी सवाल या इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द हैं. इनमें बहुत-से सवाल बहुत पुराने हैं. कुछ नये भी हैं. कुछ जिहादी आतंकवाद और देश में चल रही सहिष्णुता-असहिष्णुता की बहस से भी उठे हैं.

Malda Riots: Isn't a case of Intolerance by Indian Muslims?

मुसलमानों के विरोध-प्रदर्शन का क्या तुक था?

सवाल पूछा जा रहा है कि माल्दा में जो हुआ, क्या वह मुसलमानों की असहिष्णुता नहीं है? क्या कमलेश तिवारी नाम के किसी एक नेता के बयान पर इतना हंगामा करने का कोई तुक था कि उसके ख़िलाफ़ माल्दा समेत देश के कई हिस्सों में आगबबूला प्रदर्शन किये जायें? ख़ास कर तब, जबकि कमलेश तिवारी के ख़िलाफ़ क़ानून तुरन्त अपना काम कर चुका है, ख़ास कर तब जबकि हिन्दू महासभा जैसा संगठन तक भी उसकी निन्दा कर चुका है. इसके बाद और क्या चाहिए था? घटना इतनी पुरानी हो चुकी. अब क्यों प्रदर्शन? अब क्यों ऐसा बेवजह ग़ुस्सा? अब क्यों ऐसी उन्मादी हिंसा? सवाल बिलकुल जायज़ हैं. और चाहे जो कह लीजिए, इन सवालों का कोई जवाब समझ में नहीं आता!

माल्दा के पहले केरल की घटनाएँ

माल्दा के कुछ दिन पहले केरल से ख़बर आयी थी एक मुसलिम वीडियोग्राफ़र का स्टूडियो जला देने की. उसकी ग़लती बस इतनी थी कि उसने व्हाट्सएप पर यह सुझाव दिया था कि मुसलिम औरतों को बुर्क़े या हिजाब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. उसके पहले केरल में ही एक महिला पत्रकार वीपी रजीना के इस ख़ुलासे पर उन्हें गन्दी-गन्दी गालियाँ दी गयीं कि केरल के एक मदरसे में बच्चों का यौन शोषण होता था. इन दोनों मामलों पर भी जो हंगामा हुआ, वह क्यों होना चाहिए था, यह सवाल आज मुसलमानों को अपने आप से पूछना चाहिए! क्यों मुसलमान यह सुझाव तक भी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि बुर्का या हिजाब न पहना जाये? सुझाव देने वाले ने इसलाम की क्या तौहीन कर दी? क्या ईश निन्दा की? मुसलमानों के ख़िलाफ़ क्या टिप्पणी कर दी? बस एक सुझाव ही तो दिया था!

रजीना की ग़लती क्या थी?

इसी तरह रजीना की ग़लती क्या थी? उसने एक मदरसे में हुई कुछ घटनाओं का ख़ुलासा इस उम्मीद में किया था कि शायद मामले की जाँच हो, शायद दोषियों की पहचान कर उन्हें सज़ा दी जाये, ऐसे क़दम उठाये जायें ताकि भविष्य में वैसी घटनाओं को रोका जा सके, मदरसों के संचालक इसका ध्यान रखें. इसमें क्या ग़लत था? क्या इसलाम विरोधी था? किस बात के लिए रजीना के ख़िलाफ़ गाली अभियान चलाया गया?

क्या इसलाम का मतलब असहिष्णु होना है?

हाल-फ़िलहाल की इन तीनों घटनाओं पर मुसलमानों की ऐसी प्रतिक्रिया का कोई जायज़ आधार नहीं था. कोई तर्क नहीं था. कोई तुक नहीं था. क्या यह मुसलमानों के लिए सोचनेवाली बात नहीं है कि किसी का एक सुझाव देना भी उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है, किसी का किसी अपराध को उजागर करना उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है? इससे बड़ी असहिष्णुता और क्या होगी? क्या इसलाम का मतलब इतना असहिष्णु होना है? क़तई नहीं.

Why Indian Muslims didn't change with time?

उम्मीद थी कि वक़्त के साथ, पढ़ने-लिखने के साथ और एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने के अनुभवों के साथ मुसलमान कुछ सीखेंगे, कुछ बदलेंगे और कठमुल्लेपन की कुछ ज़ंजीरें तो टूटेंगी ही. हालाँकि ऐसा नहीं है कि बदलाव बिलकुल नहीं आया है. आया है और वह सोशल मीडिया पर दिखता भी है. वरना आज से तीस साल पहले 1985 में जब शाहबानो मसले पर मैंने मुसलिम कठमुल्लेपन और पर्सनल लॉ के ख़िलाफ़ लिखा था, तब शायद मेरी राय से सहमत होने वाले इक्का-दुक्का ही मुसलमान रहे हों या हो सकता है बिलकुल ही न रहे हों. यह पता लगा पाना तब मुमकिन नहीं था क्योंकि तब सोशल मीडिया नहीं था. लेकिन आज काफ़ी भारतीय मुसलमान (Indian Muslims) ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर खुल कर यह लिख रहे हैं कि मुसलिम समाज को किस तरह अपनी सोच बदलनी चाहिए, धर्म की जकड़न और कट्टरपंथ से बाहर निकलना चाहिए, वोट बैंक के रूप में दुहे जाने और थोथे भावनात्मक मुद्दों के बजाय शिक्षा, विकास और तरक़्क़ी के बुनियादी सवालों पर ध्यान देना चाहिए और आधुनिक बोध से चीज़ों को देखने की आदत डालनी चाहिए.

Religious Fundamentalism and Indian Muslims

लेकिन इस हलके से बदलाव के बावजूद भारतीय मुसलिम समाज (Indian Muslim Society) का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी कूढ़मग़ज़ है और सुधारवादी कोशिशों में उसका कोई विश्वास नहीं है. वरना ऐसा क्यों होता कि बलात्कार की शिकार इमराना (Imrana Rape Case) और दो पतियों के भँवर के बीच फँसी गुड़िया(The queer case of Gudia, Taufiq and Arif) के मामले में शरीअत के नाम पर इक्कीसवीं सदी में ऐसे शर्मनाक फ़ैसले होते और देश के मुसलमान चुप बैठे देखते रहते! ऐसे मामलों में मुसलमानों का नेतृत्व कौन करता है, उन्हें राह कौन दिखाता है? ले दे कर मुल्ला-मौलवी या उनका शीर्ष संगठन मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड. राजनीतिक नेतृत्व कभी रहा नहीं. और शहाबुद्दीन, बनातवाला, सुलेमान सैत या ओवैसी सरीखों का जो नेतृत्व यहाँ-वहाँ उभरा भी, धार्मिक पहचान के आधार पर ही उभरा. इसलिए वह मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ही भड़का कर उन्हें हाँकते रहे. रही-सही कसर तथाकथित सेकुलर राजनीति ने पूरी कर दी, जो वोटों की गणित में कट्टरपंथी और पुरातनपंथी कठमुल्ला तत्वों को पालते-पोसते, बढ़ाते रहे और जानते-बूझते हुए उनके अनुदार आग्रहों के आगे दंडवत होते रहे. इसने मुसलमानों के बीच शुरू हुई सारी सुधारवादी कोशिशों का गला घोंट दिया क्योंकि सत्ता हमेशा उनके हाथ मज़बूत करती रही, जो 'इसलाम ख़तरे में है' का नारा लगा-लगा कर मुसलमानों को भी और सत्ता को भी डराते रहे.

धार्मिक पहचान से इतर कुछ नहीं!

इसीलिए मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या (biggest problem of Indian Muslims) यही है कि अपनी धार्मिक पहचान से इतर वह और कुछ देख नहीं पाते. और यही वजह कि मुसलमानों के पास अपने कोई नायक भी नहीं हैं. पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को मुसलमान अपना हीरो क्यों नहीं मानते? सवाल पूछनेवाले ने यह ध्यान नहीं दिया कि कलाम के पहले भी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन या फ़ख़रुद्दीन अली अहमद मुसलमानों के हीरो क्यों नहीं बन सके? और छोड़िए, ज़िन्दगी भर मुसलमानों, बाबरी मसजिद और मुसलिम पर्सनल लॉ के लिए लड़ते रहे सैयद शहाबुद्दीन तक को कोई मुसलमान अपना हीरो नहीं मानता, आज कोई उनका नामलेवा क्यों नहीं है? मुसलमानों का यही मुसलमानों का विचित्र मनोविज्ञान है, जिसे समझे बिना यह समझा ही नहीं जा सकता कि मुसलमान आख़िर इस तरह धर्म के फंदे में क्यों फँसा हुआ है?

असली मुद्दों पर क्यों नहीं आन्दोलित होते मुसलमान?

समस्या की सारी जड़ यहीं है. इसी मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया पर कई मुसलिम मित्रों ने ज़ोरदार ढंग से यह सवाल उठाया आख़िर क्यों मुसलमान आज तक कभी अपनी बुनियादी ज़रूरतों पर, आर्थिक मुद्दों पर, सम्मान की ज़िन्दगी जीने को लेकर कभी आन्दोलित नहीं हुआ. जब भी आन्दोलित हुआ तो धर्म के नाम पर. और उसमें भी कभी मुसलमानों ने मुम्बई, गुजरात या कहीं के दंगों की जाँच के लिए, दोषियों को सज़ा दिलाने या बेहतर मुआवज़े की माँग को लेकर कभी आन्दोलन नहीं किया, कभी बड़े-बड़े जुलूस नहीं निकाले. तीस्ता सीतलवाड तो गुजरात के मुसलमानों के लिए लड़ीं, लेकिन मुसलमानों के वे नेता, वे उलेमा कहाँ-कहाँ दंगापीड़ितों को इनसाफ़ दिलाने के लिए लड़े? वे जो हर क़दम पर मुसलमानों को भड़काने के लिए तलवारें भाँजते हैं, वे कभी मुसलमानों की वाजिब लड़ाई के लिए आगे क्यों नहीं आते?

Indian Muslims must ponder on these questions!

जब तक मुसलमान इस सच्चाई को नहीं समझेंगे और अपनी धार्मिक पहचान से हट कर चीज़ों को देखना और समझना नहीं शुरू करेंगे, तब तक उनकी कूढ़मग़ज़ी का कोई इलाज नहीं है. तब तक उन्हें एहसास भी नहीं होगा कि वह आख़िर अपने पिछड़ेपन और ऐसी जकड़ी सोच से क्यों नहीं उबरते? मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबाल खेलने के ख़िलाफ़ फ़तवा क्यों जारी हो जाता है? कोई क्रिसमस पर ईसाइयों को बधाई देने को क्यों 'इसलाम-विरोधी घोषित कर देता है? मुसलमानों को इन सवालों पर सोचना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि उनके आसपास उनके बारे में लगातार नकारात्मक छवि क्यों बनती जा रही है? और क्या ऐसा होना ठीक है? मुसलमानों को अपने भीतर सुधारों और बदलावों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए.

और अन्त में...

Indian Muslims, Negative Image, Media & Social Media

मुसलमानों के ख़िलाफ़ बन रही नकारात्मक छवि के पीछे मुसलमानों का बड़ा हाथ तो है ही, लेकिन यह भी सच है कि बहुत-से झूठे-सच्चे प्रचार अभियान मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार चलाये जाते हैं, कभी संगठित रूप से और कभी अलग-अलग. उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी के ख़िलाफ़ सत्तारूढ़ दल के सरपरस्त संगठन की तरफ़ से तीन-तीन बार कैसे बेसिर-पैर के अभियान चलाये गये, यह किसी से छिपा नहीं है. सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ कितना बड़ा गिरोह सक्रिय है, यह बात सबको पता है. लेकिन मीडिया में भी एक तबक़ा बाक़ायदा इस अभियान में जुटा है. अभी हाल में 'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' ने एक ख़बर छापी कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर क़ाज़ी मासूम अख़्तर (Kazi Masum Akhtar) की कठमुल्ला तत्वों ने इसलिए पिटाई कर दी कि वह गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान गाने का अभ्यास करा रहा था, लेकिन मदरसा संचालकों ने इसलिए उसको पीटा कि वे राष्ट्रगान को 'हिन्दुत्ववादी' मानते हैं. इसके बाद यह ख़बर जस की तस कुछ समाचार एजेन्सियों ने जारी की और कई छोटे-बड़े अख़बारों, वेबसाइटों पर छपी, कुछ टीवी चैनलों पर चली, पैनल डिस्कशन भी हो गये. सोशल मीडिया पर ख़ूब बतंगड़ बना. बाद मेंnewslaundry.com ने ख़बर दी कि हेडमास्टर अख़्तर की पिटाई की ख़बर तो सच है, और यह पिटाई कठमुल्लेपन के विरुद्ध उनके प्रगतिशील विचारों के कारण हुई थी, यह भी सच है. लेकिन पिटाई की यह घटना नौ महीने पहले हुई थी और तब से अख़्तर मदरसे आये ही नहीं है. इसलिए इस गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान का अभ्यास कराने का सवाल ही नहीं उठता. मदरसे के एक हिन्दू शिक्षक सुदीप्तो कुमार मंडल के मुताबिक़ वह दस साल से मदरसे में पढ़ा रहे हैं और राष्ट्रगान मदरसे की डायरी में छपा है और हर दिन सुबह की प्रार्थना में गाया जाता है और यह सिलसिला तब से है, जब अख़्तर ने मदरसे की नौकरी शुरू भी नहीं की थी. मदरसे में इस समय सात हिन्दू शिक्षक हैं.

सौजन्य: सबरंगइंडिया

मालदा
केरल
मुसलमान
कांग्रेस
भाजपा

Related Stories

नीति आयोग का स्वास्थ्य सूचकांक: नहीं काम आ रहा 'डबल इंजन’, यूपी-बिहार सबसे नीचे

#श्रमिकहड़ताल : शौक नहीं मज़बूरी है..

आपकी चुप्पी बता रहा है कि आपके लिए राष्ट्र का मतलब जमीन का टुकड़ा है

अबकी बार, मॉबलिंचिग की सरकार; कितनी जाँच की दरकार!

आरक्षण खात्मे का षड्यंत्र: दलित-ओबीसी पर बड़ा प्रहार

झारखंड बंद: भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन के खिलाफ विपक्ष का संयुक्त विरोध

एमरजेंसी काल: लामबंदी की जगह हथियार डाल दिये आरएसएस ने

झारखण्ड भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल, 2017: आदिवासी विरोधी भाजपा सरकार

यूपी: योगी सरकार में कई बीजेपी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप

मोदी के एक आदर्श गाँव की कहानी


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License