NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
मध्य प्रदेश चुनावः 38 लाख मुस्लिम मतदाताओं के लिए केवल 4 उम्मीदवार
राजनीतिक विशेषज्ञों के मुताबिक प्रदेश में मुस्लिम मतदाता 6.57% हैं, ऐसे में उनके 15 से 20 प्रतिनिधि होने चाहिए लेकिन वर्ष 2003 से केवल एक ही प्रतिनिधि रहे हैं।
काशिफ काकवी
17 Nov 2018
madhya pradesh

भोपाल: चुनावी आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश विधानसभा में मुस्लिम राजनीतिक प्रतिनिधियों की संख्या में पिछले दो दशकों से कमी आई है। राजनीतिक दल उनकी आबादी पर ध्यान दिए बिना मुस्लिम नेताओं को नज़रअंदाज़ कर रही हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की अल्पसंख्यक विभाग द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों के मुताबिक़ प्रदेश में 5.03 करोड़ आबादी में से 37 से 38 लाख मुस्लिम मतदाता हैं लेकिन पिछले 15 वर्षों में राज्य विधानसभा में केवल एक मुस्लिम प्रतिनिधि रहे हैं। ये आंकड़े अंतिम चुनावी सूची के जारी होने के बाद सामने आए हैं।

इस चुनाव के बाद गठित होने वाले नए सदन में उनके लिए कोई अच्छी खबर नहीं आने वाली है।

हालांकि कांग्रेस ने तीन मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है। ये तीनों मुस्लिम उम्मीदवार हैं उत्तरी भोपाल से आरिफ अकील, मध्य भोपाल से आरिफ मसूद और सिरोंज से मशरत शहीद। वहीं बीजेपी ने केवल एक उम्मीदवार उत्तर भोपाल से फातिमा रसूल सिद्दीकी को टिकट दिया है। बीजेपी ने अल्पसंख्यक के उम्मीदवार के रूप में उन्हें अकील के ख़िलाफ़ खड़ा किया है ताकि वह उनके वोट शेयर को झटक सकें।

नॉर्थ भोपाल और सेंट्रल भोपाल के अलावा मुस्लिम मतदाता 25 से ज़्यादा सीटों पर परिणामों को प्रभावित करते हैं। आंकड़ों के मुताबिक़ ये निर्वाचन क्षेत्र नरेला, बुरहानपुर, शाहजापुर, देवास, रतलाम सिटी, उज्जैन-नॉर्थ, जबलपुर-नॉर्थ, जबलपुर-ईस्ट, मंदसौर, रेवा, सतना, सागर, ग्वालियर साउथ, खांडवा,खरगौन, इंदौर 1, दीपालपुर हैं।

फिर भी किसी भी पार्टी ने विधानसभा में उनके प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया है।

मुस्लिम प्रतिनिधित्व के मामले में कमी को लेकर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ एल एस हर्डेनिया कहते हैं, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की 7.27 करोड़ आबादी में 6.57 प्रतिशत मुसलमानों की आबादी है। इसलिए, विधानसभा में उनके प्रतिनिधि की संख्या 15 से20 होनी चाहिए।

हर्डेनिया कहते हैं, "हमें संसद और राज्य विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए, राजनीतिक दलों को मुसलमानों को राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने और उन्हें टिकट देने के लिए प्रेरित करना चाहिए।"

उन्होंने आगे कहा, "लेकिन दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं किया जा रहा है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पदाधिकारियों पर नज़र डाले तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की अध्यक्षता में इस संगठन में एक भी मुस्लिम को महत्वपूर्ण पद नहीं दिया गया है।" उन्होंने आगे कहा कि अगर इस संबंध में कोई ठोस काम नहीं किया गया तो इसके परिणामस्वरूप सामान्य मुस्लिम राजनीतिक कार्यकर्ताओं में निराशा होगी।

मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या घटने के कारण

प्रदेश में मुस्लिम प्रतिनिधित्व में तेज़ी से कमी आने के दो कारण हैं: पहला, बाबरी मस्जिद (6 दिसंबर, 1992) के विध्वंस के बाद मतों का ध्रुवीकरण है,और दूसरा, कांग्रेस के शासन के दौरान निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के बाद मुस्लिम आबादी का विभाजन।

परिसीमन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बाउंड्री कमेटी विभिन्न विधानसभा और लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण करती है और नए जनगणना के आधार पर सीटों को परिवर्तित करती है। निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन वर्ष 2002 में 2001 की जनगणना के आधार पर किया गया था।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के तुरंत बाद वर्ष 1993 में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुआ और दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सत्ता में आ गई। लेकिन, यह पहली बार था जब कोई मुस्लिम नेता इस विधानसभा में नहीं पहुंचा। वर्ष 1998 में, सिंह के दूसरे कार्यकाल के दौरान, भोपाल नॉर्थ से आरिफ अकील सहित विधानसभा के लिए तीन मुस्लिम नेता चुने गए थे। अकील पहले स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित हुए। बाद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और फिर से विधानसभा के लिए चुने गए।

मुस्लिम प्रतिनिधि की संख्या की कमी के बारे में जब पूछा गया तो प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता साजिद कुरेशी ने कहा कि राजनीतिक दल मुस्लिम नेताओं को योग्य उम्मीदवारों के रूप में नहीं देखते हैं। कुरेशी ने कहा, "बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद, दोनों समुदायों के बीच का खाई बढ़ गयी है और दोनों समुदायों के लोग उनके काम के बजाय धार्मिक आधार पर अपने नेताओं को देखना शुरू करते हैं।" नतीजतन मुस्लिम प्रतिनिधित्व न सिर्फ मध्य प्रदेश बल्कि देश भर में कम हुआ है।

बेतुल निर्वाचन क्षेत्र के पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री असलम शेर खान ने कहा, "विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी का विभाजन और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बहुल आबादी का ध्रुवीकरण मुख्य कारण था। कट्टरपंथी ताकतों के समर्थन से दिग्विजय सिंह की अगुवाई वाली राज्य सरकार ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ साजिश रची और मुस्लिम आबादी को विभाजित कर दिया। या मुस्लिम-वर्चस्व वाली सीटों को आरक्षित सीटों में परिवर्तित कर दिया। साल 2002 में ठीक बेतुल की तरह।"

2002 में कांग्रेस के दिग्विजय सिंह सरकार की सहायता से सीमा आयोग द्वारा भोपाल, सतना, रेवा, नरेला और जबलपुर जैसे निर्वाचन क्षेत्रों को विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया गया था।

स्वतंत्रता के बाद से तीसरे दशक तक मुसलमान राज्य में कई सरकारी कार्यालयों में थें। गुलशेर अहमद मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष पद और मंत्री पद पर रहें। वह हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल भी थें। अन्य प्रमुख नाम भोपाल के अज़ीज़ कुरेशी का है जो मंत्री रहे और उत्तराखंड के राज्यपाल के रूप में कार्य किया।

संसद में चुने गए अन्य मुस्लिमों में वर्ष 1991 में मैमुना सुल्तान, गुफ्रान-ए-आज़म और असलम शेर ख़ान शामिल थें। गुफ्रान और असलम दोनों मशहूर हॉकी खिलाड़ी भी थें, असलम शेर ख़ान राष्ट्रीय टीम का हिस्सा थें जब टीम ने 1975 के हॉकी विश्व कप में स्वर्ण पदक जीता था।

बाबरी मस्जिद विध्वंस और मध्यप्रदेश में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन से पहले मुसलमानों का विधानसभा में बेहतर प्रतिनिधित्व था और मुस्लिम उम्मीदवारों ने भी आम चुनाव लड़ा था। इनकी उपस्थिति 1990 तक बेतुल, जाओरा, बुरहानपुर, जबलपुर आदि जैसे क्षेत्रों में थी।

राजनीतिक विशेषज्ञ हर्डेनिया कहते हैं, "कोई भी बीजेपी से मुसलमानों की मदद की उम्मीद नहीं कर सकता जिसके लिए वह जानी जाती है। बीजेपी नेताओं ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि उन्हें मुसलमानों के वोट की ज़रूरत नहीं है। इस नीति को अपनाते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश में किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया, हालांकि यह सच्चाई है कि राज्य में मुस्लिम की बड़ी आबादी है जो प्रभाव डालती है।" लेकिन, कांग्रेस जो कि स्वतंत्रता के बाद मुस्लिम नेताओं के लिए आश्रय स्थल था उसने भी बाबरी मस्जिद के विध्वंस के तुरंत बाद मुस्लिम उम्मीदवारों को नज़रअंदाज़ किया है।

मुस्लिम प्रतिनिधित्व को स्पष्ट रूप से अनदेखा करने वाली बीजेपी एक रक्षात्मक तरीका अपनाती नज़र आ रही है जब मुस्लिम प्रतिनिधित्व में कमी का मुद्दा उनके सामने उठाया गया। इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए बीजेपी के प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल ने कहा, "हमारी पार्टी उम्मीदवार के जीतने की क्षमता और बहुपक्षीय दृष्टिकोण के आधार पर टिकट बांटती है। और मुस्लिम उम्मीदवार शायद ही कभी बहुपक्षीय दृष्टिकोण वाले मिलते हैं। "

नेतृत्व की कमी के कारण नुकसान

नेतृत्व की इस कमी के परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय के लोग राज्य में दुखी जीवन जी रहे हैं। उनके बहुत से कॉलोनियों में अभी भी स्वच्छ पानी, सड़क,स्कूल, स्ट्रीट लाइट आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं की बेहद कमी है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण ओल्ड भोपाल है जहां मुस्लिम कॉलोनियों में इस तरह बुनियादी सुविधाएं अभी भी नहीं हैं। ये बात भोपाल गैस त्रासदी का शिकार ओल्ड भोपाल के निवासी अब्दुल जब्बार कहते हैं।

उपर्युक्त मुद्दों को 10 नवंबर को जारी कांग्रेस घोषणापत्र में देखा जा सकता है क्योंकि बीजेपी की अगुआई वाली सरकार पिछले 15 वर्षों में मुस्लिम कॉलोनियों को इन बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने में नाकाम रही है। हालांकि, प्रतिनिधित्व की कमी जैसे मुख्य मुद्दे का कोई उल्लेख नहीं है।

राज्य में एकमात्र मुस्लिम विधायक आरिफ अकील ने विधानसभा में मुस्लिम भेदभाव का एक अनूठा मामला बताया। "पिछले विधानसभा सत्र के दौरान मैंने पूछा कि मेरे निर्वाचन क्षेत्र (ओल्ड भोपाल) को नर्मदा का पानी क्यों नहीं दिया जा रहा था? मुझे बीजेपी विधायक ने कहा कि अगर आप नर्मदा माता की जय और भारत माता की जय कहो तो आपके निर्वाचन क्षेत्र को पानी मिलेगा। और, मुझे उन शब्दों को विधानसभा में कहना पड़ा क्योंकि मेरे निर्वाचन क्षेत्र में पानी देना मेरा सच्चा धर्म है।"

एमपी विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधि

table

muslim candidates
muslim votes
Madhya Pradesh
BJP
Assembly elections 2018

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • शारिब अहमद खान
    ईरानी नागरिक एक बार फिर सड़कों पर, आम ज़रूरत की वस्तुओं के दामों में अचानक 300% की वृद्धि
    28 May 2022
    ईरान एक बार फिर से आंदोलन की राह पर है, इस बार वजह सरकार द्वारा आम ज़रूरत की चीजों पर मिलने वाली सब्सिडी का खात्मा है। सब्सिडी खत्म होने के कारण रातों-रात कई वस्तुओं के दामों मे 300% से भी अधिक की…
  • डॉ. राजू पाण्डेय
    विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक
    28 May 2022
    हिंसा का अंत नहीं होता। घात-प्रतिघात, आक्रमण-प्रत्याक्रमण, अत्याचार-प्रतिशोध - यह सारे शब्द युग्म हिंसा को अंतहीन बना देते हैं। यह नाभिकीय विखंडन की चेन रिएक्शन की तरह होती है। सर्वनाश ही इसका अंत है।
  • सत्यम् तिवारी
    अजमेर : ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह के मायने और उन्हें बदनाम करने की साज़िश
    27 May 2022
    दरगाह अजमेर शरीफ़ के नीचे मंदिर होने के दावे पर सलमान चिश्ती कहते हैं, "यह कोई भूल से उठाया क़दम नहीं है बल्कि एक साज़िश है जिससे कोई मसला बने और देश को नुकसान हो। दरगाह अजमेर शरीफ़ 'लिविंग हिस्ट्री' है…
  • अजय सिंह
    यासीन मलिक को उम्रक़ैद : कश्मीरियों का अलगाव और बढ़ेगा
    27 May 2022
    यासीन मलिक ऐसे कश्मीरी नेता हैं, जिनसे भारत के दो भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह मिलते रहे हैं और कश्मीर के मसले पर विचार-विमर्श करते रहे हैं। सवाल है, अगर यासीन मलिक इतने ही…
  • रवि शंकर दुबे
    प. बंगाल : अब राज्यपाल नहीं मुख्यमंत्री होंगे विश्वविद्यालयों के कुलपति
    27 May 2022
    प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बड़ा फ़ैसला लेते हुए राज्यपाल की शक्तियों को कम किया है। उन्होंने ऐलान किया कि अब विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री संभालेगा कुलपति पद का कार्यभार।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License