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महिला दिवस विशेष : 2019 चुनाव में महिलाओं की भूमिका
भारत के लोकसभा चुनाव में कुछ ही समय बाक़ी है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च के संदर्भ में हम बात कर रहे हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं कि क्या भूमिका रहेगी!
सत्यम् तिवारी
06 Mar 2019
womens day

विश्व की राजनीति में एक लंबे समय से पुरुषों की भूमिका ही अहम मानी जाती रही है। औरतों का विश्व राजनीति में आना बहुत देर से हुआ है लेकिन एक हक़ीक़त ये भी है कि जब-जब औरतों ने मुखर होकर राजनीति में महिलाओं के मुद्दों पर बात कि है, वो बेहद मज़बूती से सामने आई हैं। विश्व की राजनीति के साथ-साथ भारत की राजनीति में भी महिलाओं ने समय-समय पर हिस्सा लिया है और आज भी कम ही सही लेकिन मज़बूती से महिलाएं भारत की राजनीति में शामिल हैं।

भारत के लोकसभा चुनाव में कुछ ही समय बाक़ी है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के संदर्भ में हम बात कर रहे हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं कि क्या भूमिका रहेगी!

जब हम चुनाव या राजनीति में महिलाओं कि बात करते हैं तो ये सिर्फ़ उन महिलाओं कि बात नहीं हो सकती जो चुनावों में किसी पार्टी कि नेता के रूप में सामने आती हैं, बल्कि ये बात होती है उन सभी महिलाओं की जो इस देश की आबादी का हिस्सा हैं। चुनाव सिर्फ़ एक नेता के लिए ही ज़रूरी नहीं होता। चुनाव ज़रूरी होता है उस जनता के लिए जिसकी ख़ातिर एक नेता चुनाव में जीतने के बाद काम करेगा। जिस जनता के मुद्दों के बारे में वो बात करेगा, जिस जनता के मुद्दे वो सड़क से संसद तक लेकर जाएगा। भारत में किसी भी विचारधारा की राजनीति में हमने 1962 के बाद से कुछ ज़बरदस्त महिला नेताओं को देखा है। इस श्रेणी में भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का नाम सबसे पहले सामने आता है। उसके बाद हमारे सामने सुषमा स्वराज, जयललिता,  मायावती, वसुंधरा राजे, अंबिका सोनी,  अगाथा सांगमा,  ममता बनर्जी जैसे नाम भी आते हैं। वाम राजनीति और महिला राजनीति की बात करें तो सुभाषिनी अली सहगल और वृंदा करात जैसे अहम नाम हमारे सामने आते हैं। इन सभी महिलाओं ने समय के साथ राजनीति में महिलाओं के पद को, महिलाओं के योगदान को उजागर करने का काम भारत में किया है।

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इन सब बड़े नामों के बावजूद भारत की राजनीति में महिलाओं की जगह आज भी औसत से अच्छी नहीं हो पाई है। इन कुछ विशेष नामों को हटा दिया जाये तो महिलाएँ राजनीति से जैसे ग़ायब ही हो जाती हैं। यही वजह है कि 2014 में हुए 16वें लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवार कि संख्या सिर्फ़ 8 प्रतिशत रही थी। हालांकि ये वक़्त के साथ-साथ बढ़ा तो है, लेकिन ज़ाहिर है कि जिस मुल्क में 50 प्रतिशत महिलाएँ हैं, वहाँ 8 प्रतिशत उम्मीदार होना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है।

महिला उम्मीदवारों की संख्या इतनी कम होने की वजह कई हो सकती हैं। भारत हमेशा से एक पुरुष प्रधान देश रहा है, और ये वो देश है जहाँ आज भी महिलाओं को बोझ और कमतर ही माना जाता है, और उनके हक़ आज भी नज़रअंदाज़ किए जाते हैं। उनको पढ़ने से, बाहर जाने से यहाँ तक कि बोलने से भी रोका जाता है। ऐसे में राजनीति में शामिल होना ज़ाहिरी तौर पर महिलाओं के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।

राजनीति को हमेशा से पुरुषों का काम माना गया है, और महिलाएँ एक लंबे अरसे तक राजनीति से इस तरह भी ग़ायब रहीं, कि उनसे जुड़े मुद्दे अहम मुद्दे माने ही नहीं गए। और ये हर दर्जे पर हुआ है। उदाहरण के लिए किसी मिल की ट्रेड यूनियन जो न्यूनतम वेतन, मस्टर रोल जैसे मुद्दों के लिए संघर्ष करते थे, उनकी मांगों में महिलाओं के लिए एक अलग टॉयलेट बनवाने का मुद्दा एक लंबे समय तक ग़ायब ही रहा। इसी तरह से मुल्क की राजनीति के संदर्भ में भी महिलाओं के मुद्दों पर बात करने के लिए महिलाओं का राजनीति में शामिल होना समय के साथ और ज़रूरी होता गया है।

आगामी लोकसभा चुनाव में देखने वाली बात ये भी होगी कि ये 8 प्रतिशत की संख्या बढ़ती है तो कितनी बढ़ेगी और कौन-कौन सी पार्टियाँ उम्मीदवारों की सूची के बड़े हिस्से में महिलाओं को शामिल करेंगी।

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महिला वोटरों की भूमिका

आंकड़े बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में महिला वोटरों की संख्या एतिहासिक तौर पर ऊपर उछली थी। ये संख्या 64 प्रतिशत की थी, पुरुष वोटर 67 प्रतिशत थे। चूँकि भारत में वोटरों का बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाक़ों से आता है, और ग्रामीण इलाक़ों में आज भी महिलाओं की साक्षरता दर काफ़ी कम है। ऐसे में एक हक़ीक़त ये भी है कि ज़्यादातर महिलाएँ जब वोट देने जाती हैं, तो वो वोट उस उम्मीदवार को देती हैं, जिसको परिवार का पुरुष पसंद करता है। इस सिलसिले में महिलाओं की राजनीति की अपनी समझ कम भी है, और उसका ज़्यादा महत्व भी नहीं है। ऐसे में ये मानना भी बे-मानी होगा कि महिलाएँ अपने उम्मीदवार "ख़ुद" चुनती हैं। इसको ऐसे कहा जा सकता है कि उम्मीदवार उनके मत की वजह से चुना तो जाता है, लेकिन दरअसल वो उनका अपना मत होता ही नहीं है। ऐसे में घरों की राजनीति में महिला की क्या भूमिका होती है ये भी बड़ा सवाल है।

इस तरह से महिला वोटरों की भूमिका के सवाल पर इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

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2019 चुनाव में महिलाओं के मुद्दे और महिलाओं की ताक़त

भारत इस समय ऐसे दौर से गुज़र रहा है जब हालांकि महिलाएँ संसद में बड़ी संख्या में नहीं हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर आज महिलाएँ बेहद मुखरता से अपनी बात कर रही हैं, और अपने अधिकारों को लेकर सत्ता से सीधा सवाल करने में भी पीछे नहीं हैं।

लेकिन भारत की राजनीति के पुरुष प्रधान इतिहास की वजह से ये महिलाएँ आज भी बिखरी हुई नज़र आती हैं। राजनीति में शामिल महिलाएँ जब मुद्दों पर बात करती हैं, तो वो पहले किसी पार्टी की ओर से बोलती हैं, बाद में किसी महिला की ओर से।

माया अंजेलो ने लिखा है कि "जब-जब कोई महिला अपने लिए खड़ी होती है, उस वक़्त वो बिना जाने, बिना स्थापित किए, हर एक महिला के लिए खड़ी होती है"

लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि महिलाएँ महिलाओं कि बात को कम अहमियत देती हैं, बल्कि पार्टी को ज़्यादा। यही वजह है कि महिला आरक्षण, महिला सुरक्षा के मुद्दों पर अलग-अलग पार्टियों कि महिलाओं का मत एक दूसरे से अलग होता है। इस प्रवृत्ति की वजह से ये भी देख गया है कि सबसे आम लगने वाले ज़रूरी मसले महिलाओं के हक़ में आज भी हल नहीं हो पाये हैं।

एक आम समझ ये कहती है कि महिलाओं के सामने जब महिलाओं के हक़ की बात आए, तो उन्हें अपनी पार्टी को भुला कर, सिर्फ़ ये याद रखना चाहिए कि ये मुद्दा महिलाओं का है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि महिलाओं के संघर्ष पर सबसे बड़ा प्रहार एक महिला मंत्री की तरफ़ से ही होता है, जो कि दुखद भी है, और महिलाओं के अधिकारों के लिए ख़तरनाक भी है।

2019 के चुनाव में महिलाओं के मुद्दों की बात की जाये तो हर बार कि तरह महिला सुरक्षा, उनके अधिकारों, उनकी शिक्षा, आरक्षण, पार्टी की उम्मीदवार और संसद में महिलाओं की जगह जैसे तमाम मुद्दे अहम साबित होंगे।

जैसा कि पहले भी कहा गया है, देखने वाली चीज़ें ये होंगी, कि राजनीतिक पार्टियाँ किस तरह से महिलाओं के मुद्दों की बात करते हुए महिलाओं को जगह पर विचार करेंगे।

और ये भी, कि ख़ुद महिला उम्मीदवार और महिला नेता, जब महिलाओं पर बात करेंगीं, तो उनके सामने किसकी अहमियत ज़्यादा होगी! अपनी पार्टी की, या महिलाओं की? 

(ये  लेखक के निजी विचार हैं।)

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