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ममता की तानाशाही के बीच मजबूत होती हिंदुत्व की राजनीति!
2014 में केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद राज्य की भाजपा का मनोबल बढ़ा। भाजपा यह जानती थी कि आम राजनीतिक तरीके से वह तृणमूल से नहीं निपट सकती। इसलिए उसने बंगाल को हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला बनाया।
सरोजिनी बिष्ट
22 Apr 2019
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: News State

लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच होड़ हो, और उन्हें अपने पक्ष में जनता को गोलबंद करने के लिए रैली, प्रदर्शन, जनसभा इत्यादि अपनी बात कहने के जो लोकतांत्रिक माध्यम हैं, उनका इस्तेमाल करने की बिना शर्त आज़ादी हो। लेकिन पश्चिम बंगाल में क्या हो रहा है?

विरोधियों खासकर भाजपा को चुनाव के कई महीने पहले से ही जनसभा, रैली जैसे कार्यक्रम करने से रोका जा रहा है या रोकने की कोशिश की जा रही है। चुनाव की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री तक के कार्यक्रम को अड़ंगा लगाने की कोशिश की गयी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का हेलीकॉप्टर नहीं उतरने दिया गया। उनके सभास्थल में पानी भरवा दिया गया।

ऐसा नहीं है कि राज्य की ममता बनर्जी सरकार का रुख केवल भाजपा के प्रति अलोकतांत्रिक है। वामपंथियों, ट्रेड यूनियनों के बंद व अन्य आंदोलनों को विफल करने के लिए भी पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी जाती है। लेकिन भाजपा पर वह इसलिए ज्यादा सख्त है, क्योंकि ममता की तानाशाही के बीच हिंदुत्व की राजनीति तेजी से पनप रही है और भाजपा दिन-ब-दिन मजबूत हो रही है। तृणमूल कैडर, पुलिस व प्रशासन की एकजुट ज्यादती के आगे अब माकपा व कांग्रेस उस तरह लड़ने की स्थिति में नहीं हैं। अगर कहीं से तृणमूल कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब में मिल रहा है तो वह है भाजपा। 

बीते साल दिसंबर महीने में भाजपा ने 'गणतंत्र बचाओ यात्रा' (बता दें कि बांग्ला में लोकतंत्र के लिए गणतंत्र शब्द का इस्तेमाल होता है।) नाम से दो रथयात्राएं निकालने का कार्यक्रम बनाया था, जिन्हें पूरे बंगाल से गुजरना था, लेकिन प्रशासन ने इसकी इजाजत नहीं दी। भाजपा सुप्रीम कोर्ट तक जाकर भी यात्रा नहीं निकाल पायी। इसके लिए खुफिया रिपोर्ट को आधार बनाया गया कि इन यात्राओं के जरिये हिंसा हो सकती है। सिलीगुड़ी इलाके में विभिन्न इलाकों से छापामारी कर छह लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिन्होंने बयान दिया कि वे हथियार के साथ भाजपा की जनसभा में जा रहे थे। इस संबंध में सिलीगुड़ी मेट्रोपोलिटन पुलिस के एक सूत्र ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया था कि कोर्ट में सरकार का फैसला सही साबित हो सके, इसके लिए खुफिया रिपोर्ट को 'गढ़ा' गया। इसके लिए कुछ दागी युवकों को हथियार रखकर गिरफ्तार किया गया और उनसे मनचाहा बयान दिलवाया गया।

पिछले साल हुए पंचायत चुनाव में भी लोकतंत्र का गला घोंटा गया। तृणमूल के खिलाफ खड़े बहुत से प्रत्याशियों को बैठने पर मजबूर किया गया। दबाव बनाने के प्रत्याशियों के घर-परिवार पर हमले हुए। आतंक फैलाने के लिए हत्या, जानलेवा हमले जैसी हिंसक वारदातों का सहारा लिया गया। चुनाव जीतने के बाद जहां तृणमूल को बहुमत नहीं मिला वहां दबाव बनाकर दूसरे दलों के प्रत्याशियों को तृणमूल में शामिल होने पर मजबूर किया गया। कूचबिहार के दिनहाटा सब-डिवीजन इलाके में तो महीनों हिंसा-प्रतिहिंसा का तांडव चला।

पश्चिम बंगाल में ममता सरकार परिवर्तन के नारे के साथ आयी थी। सड़कों, स्कूल-कॉलेजों, अस्पतालों के बड़े पैमाने पर निर्माण व विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं से ममता बनर्जी ने उस सबसे निचले तबके तक अपनी पैठ बना ली, जो कभी माकपा का जनाधार हुआ करता था। अल्पसंख्यकों में भी तृणमूल की मजबूत पकड़ है। 2016 में दूसरी बार विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने के बाद उनका अलोकतांत्रिक रवैया कम होने की जगह और बढ़ गया। तृणमूल के अलावा किसी और राजनीतिक शक्ति को बर्दाश्त नहीं करने को उन्होंने अपना तौर-तरीका बना लिया। लेकिन इस बीच 2014 में केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद राज्य की भाजपा का मनोबल बढ़ा। उसने धीरे-धीरे करके तृणमूल के खिलाफ खड़े होने का साहस जुटाया।

भाजपा यह जानती थी कि आम राजनीतिक तरीके से वह तृणमूल से नहीं निपट सकती। इसलिए उसने बंगाल को हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला बनाया। ममता बनर्जी की अल्पसंख्यकों में खास पकड़ है और वह इस नजदीकी को खुलकर दिखाती भी थीं। कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम बरकती को उन्होंने गाड़ी में लालबत्ती लगाने की इजाजत दे रखी थी, जबकि बरकती की छवि कट्टरपंथी की थी और उनके भड़काऊ भाषणों से हिंदू समुदाय आहत महसूस करता था। जनवरी, 2016 में मालदा जिले के कालियाचक थाने पर हमले की घटना में मुस्लिम समुदाय की भागीदारी और घटना के बाद उस पर पर्दा डालने की कोशिश से भी समाज के एक बड़े हिस्से में ममता सरकार के खिलाफ गलत संदेश गया। राज्य में दंगे की दो-तीन बड़ी घटनाओं की लीपापोती को भी हिंदू समुदाय ने पसंद नहीं किया. ममता सरकार की इन गलतियों को बुनियाद बनाकर भाजपा ने खुलकर सांप्रदायिक राजनीतिक शुरू की।

सांप्रदायिक राजनीति के तहत ही भाजपा पश्चिम बंगाल में एनआरसी के मुद्दे को बार-बार उछाल रही है। इसके जरिये वह संदेश दे रही है कि राज्य में बांग्लादेश से जो मुसलमान आये हैं, उन्हें निकाल बाहर किया जायेगा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सारी हदें पार करते हुए यह ट्वीट कर डाला कि सिख, बौद्ध और हिंदू शरणार्थियों को छोड़कर सभी को निकालेंगे। साफ संदेश है कि मुसलमानों और ईसाइयों के लिए जगह नहीं है। बीते दो सालों से बंगाल में रामनवमी की शोभायात्रा का सिलसिला शुरू हुआ है। भाजपा व संघ परिवार के लिए यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जरिया है। इस बार रामनवमी चुनाव के दौरान पड़ी इसलिए बड़े पैमाने पर संसाधन लगाकर जो शोभायात्रा निकाली गयी, वह बंगाल के लिए अभूतपूर्व थी। कहने को तो यह धार्मिक आयोजन था, लेकिन सारे नारे भाजपा की राजनीति के इर्दगिर्द ही थे। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने, अयोध्या में ही राम मंदिर बनाने और पाकिस्तान को दुनिया के नक्शे से मिटाने के नारों से पूरे बंगाल को गुंजा दिया गया। उत्तर दिनाजपुर जिले के इस्लामपुर को शोभायात्रा के बैनरों व पोस्टरों पर ईश्वरपुर लिखना हिंदू-मुस्लिम बंटवारा गहरा करने की साजिश का एक बड़ा प्रमाण है।

केंद्र सरकार से मिले सम्बल और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये भाजपा ने जो शक्ति जुटायी है, उसके जरिये वह तृणमूल के विरोधी खेमे का नेतृत्वकर्ता बन रही है। तृणमूल विरोधी ऐसी शक्तियां भी भाजपा के साथ खड़ी हो रही हैं जो वास्तव में भाजपा की समर्थक नहीं हैं, पर उन्हें लगता है कि अब तृणमूल का मुकाबला भाजपा ही कर सकती है, जबकि माकपा व कांग्रेस इस स्थिति में नहीं रह गये हैं। एक तरह से कहा जाये तो ममता की तानाशाही की राजनीति से भाजपा को अपनी सांप्रदायिक राजनीति को मजबूत करने के लिए खाद-पानी मिल रहा है।

(लेखिका ने एक लंबा समय पश्चिम बंगाल में गुज़ारा है। यह उनके निजी विचार हैं।)

2019 आम चुनाव
General elections2019
2019 Lok Sabha elections
West Bengal
mamta banerjee
Narendra modi
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