NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
मोदी-जेटली से न हो पाएगा अर्थ-व्यवस्था की बीमारी का इलाज
आंकड़ों की बाजीगरी से खुशफहमी पैदा करने में उस्ताद मोदी-जेटली जुगलजोड़ी भी अब भारी गिरावट के इन तथ्यों को छिपाने में असमर्थ है I
अरुण माहेश्वरी
09 Jan 2018
modi and jaitley
Image Courtesy : Financial Express

अब यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था की हालत खस्ता है। आंकड़ों की बाजीगरी से खुशफहमी पैदा करने में उस्ताद मोदी-जेटली जुगलजोड़ी भी अब भारी गिरावट के इन तथ्यों को छिपाने में असमर्थ है। नोटबंदी के तुगलकीपन के बाद भी शुरू में जीडीपी के मानदंड में हेरा-फेरी करके दुनिया की एक सबसे तेज गति से विकासमान अर्थ-व्यवस्था की चमक को कायम रखने की कोशिश की गयी थी। लेकिन बार-बार तो इस एक ही तिकड़म को दोहराया नहीं जा सकता था। 2017 की दूसरी तिमाही में जीडीपी में वृद्धि की दर गिर कर सिर्फ 5.7 प्रतिशत रह जाने के बाद अब खुद सरकार मानती है कि 2017-18 में जीडीपी में वृद्धि की दर 6.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहेगी।

8 नवंबर 2016 के दिन नाटकीय अंदाज में नोटबंदी की घोषणा करके दूसरे दिन ही वाह-वाही लूटने मोदी जापान की यात्रा पर चले गये थे। जापान से भी उन्होंने बैंकों के सामने कतारों में खड़े भारत के लोगों को डराया था कि अभी तो बच्चू हुआ ही क्या है ! वे लाखों लोगों को लगा कर देश के एक-एक व्यक्ति को चोर साबित कर देंगे क्योंकि सब लोग अपने घरों में काला धन दबाये बैठे हैं ! लेकिन तीन दिन बाद ही वे जब जापान से भारत लौटे, भारत में मची हुई त्राहि-त्राहि का उन्हें अनुमान लग गया और 12 नवंबर को गोवा में रोते हुए देश के लोगों से पचास दिनों की मोहलत मांगी थी — मैं सिर्फ पचास दिन चाहता हूं। यदि मेरे किये में कोई गलती निकले तो मुझे चौराहे पर खड़ा कर देना...। आदि आदि।

उसी समय हमने मोदी के उस नाटक पर अपने ब्लाग में लिखा था — 'पचास दिन नहीं, इस धक्के से अर्थ-व्यवस्था को निकालने में पचास महीने भी कम पड़ेंगे'।

“कोई अगर यह सोचता है कि आम ग्राहकों को आर्थिक और मानसिक तौर पर कंगाल बना कर अर्थ-व्यवस्था के किसी भी हित को (सिवाय युद्धकालीन समय में) साधा जा सकता है, तो यह कोरी मूर्खता है।

“मंदी की काली छाया पहले से ही हमारी अर्थ-व्यवस्था को ग्रस रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि भारतीय बैंकों के पास इतनी बड़ी राशि में एनपीए जमा हो चुका है जो संभवत: दुनिया में सबसे अधिक है।

“नोट-बंदी के इस कदम से माना जाता है कि आगे बैंकों के पास अगाध धन होगा। सवाल उठता है कि उस धन का प्रयोग कैसे होगा ? कौन ऐसा उद्योगपति होगा जो सबसे गहरी मंदी की आशंकाओं से भरे काल में सिर्फ ब्याज देने के लिये बैंकों से कर्ज लेगा ? इन हालात में सिर्फ वे लोग ही और कर्ज लेंगे जो पहले से बैंकों का रुपया डुबाये हुए हैं और उन्हें उनके निपटान के लिये कुछ और मोहलत और सहूलियत चाहिए। ब्याज की दरों में कमी से यदि उद्योगपतियों में कर्ज के प्रति कुछ आकर्षण पैदा किया जायेगा तो दूसरी ओर आम आदमी के संचित धन पर आमदनी प्रभावित होगी। आम आदमी संचय के लिये सोने की तरह की चीजों की ओर आकर्षित होगा।

“इसके अलावा, बैंकों का रुपया सरकार चालाकी से अपने बजट के राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिये प्रयोग कर सकती है। लेकिन अभी इस औचक कदम से आम लोगों को जितना बड़ा सदमा लगा है, उससे निकालने में सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी कितनी कारगर होगी, यह एक भारी संदेह का प्रश्न है। लोग आगे काफी समय तक जीवन की नितांत जरूरी चीजों के अलावा किसी दूसरी चीज पर खर्च करने से परहेज करेंगे।

“ऐसे में, अपनी ही करतूत से बिगाड़ी गई सारी परिस्थिति को चंगा करने के लिये मोदी जी ने रोते हुए जो पचास दिनों का समय मांगा है, सचाई यह है कि आगे सब कुछ सही चला तो उनके इस भारी आघात से अर्थ-व्यवस्था को उबारने में पचास महीने भी कम पड़ेंगे।

“अपने एक लेख में हमने कहा था कि मोदी जी ने काला धन को कोरी नगद राशि तक सीमित करके अर्थ-व्यवस्था के लिये एक ऐसी मृगमरीचिका का रूप दे दिया है जिसका पीछा करते हुए पूरी अर्थ-व्यवस्था ही अपना दम तोड़ देने के लिये अभिशप्त होगी, आम लोगों की तो जाने दीजिए।

“इसके अलावा अब तक इस विषय का कोई दूसरा पहलू तो दिखाई नहीं दे रहा है। सकारात्मक तो कत्तई नहीं।” 

जैसे-जैसे समय बीत रहा है, तब की कही वे सारी बात शत-प्रतिशत सही साबित हो रही हैं। अभी कहा जा रहा है कि इस वित्तीय साल में जीडीपी में वृद्धि की दर कम हो कर 6.5 प्रतिशत रहेगी, लेकिन आगे यह और कितना नीचे तक जा सकती है, इसका कोई अनुमान नहीं कर पा रहा है।

दरअसल, अर्थ-व्यवस्था का विषय भी पूरी तरह से द्वंद्वात्मक विषय है जिसके आदमी के शरीर की तरह ही अपने कुछ आंतरिक नियम होते हैं। जैसे शरीर के साथ मनमानी करके उसे स्वस्थ नहीं रखा जा सकता है, वैसे ही अर्थ-व्यवस्था के साथ भी मनमानी करके कुछ हासिल नहीं हो सकता है। अर्थ-व्यवस्था में मंदी एक प्रकार से आदमी के मानसिक अवसाद की तरह है। अवसाद-ग्रस्त आदमी को उससे निकालने के यदि बहुत खास उपाय नहीं किये जाते हैं तो तय मानिये कि आदमी की तरह ही अर्थ-व्यवस्था भी पूरी तरह से आत्म-हनन के रास्ते को पकड़ लेगी। एक समय के बाद उस पर कोई भी दवा काम करना बंद कर देगी।

जैसे आदमी के शरीर और उसके मस्तिष्क के रिश्ते को कोई पूरी तरह से परिभाषित नहीं कर सकता है, उसी प्रकार अर्थ-व्यवस्था और उसके संचालन की नीतियों और संचालकों के रिश्तों के बारे में भी कोई पूरी तरह से निश्चय के साथ कुछ नहीं कह सकता है। इस पर इस तरह का कोई यांत्रिक फार्मूला नहीं चल सकता है कि जेटली जी ने कह दिया कि अब हम बैंकों को चंगा करने के लिये उन्हें अतिरिक्त धन जुटा कर दे रहे हैं, ताकि लोगों को आसानी से कर्ज मिल सके — और बस अर्थ-व्यवस्था में सुधार हो जायेगा ! ऐसे कभी नहीं होता है।

जो लोग चिकित्सा-शास्त्र के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखते हैं वे यह जानते हैं कि कैसे अक्सर कोई टोटका या प्लेसीबो भी आदमी को चंगा कर देता है और कैसे डाक्टर या अस्पताल पर भरोसा न हो तो शरीर पर कोई भी दवा बेअसर साबित हो सकती है, जिसे Nocebo (नोसीबो) कहा जाता है। इस तथ्य को प्रयोगों के जरिये जांचा जा चुका है। इटली के यूनिवर्सिटी आफ तुरिन मेडिकल स्कूल के न्यूरोफिजियोलोजिस्ट फेब्रीजियो बेनडेट्टी की प्रसिद्ध किताब है — The patient’s Brain (रोगी का मस्तिष्क)। इसमें वे प्लेसीबो और उसके जुड़वे नोसीबो की विस्तृत चर्चा करते हुए कहते हैं कि किसी भी डाक्टर या अस्पताल की बदनामी भी रोगियों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। “हमने देखा है कि कैसे डाक्टर-रोगी के बीच विश्वास की कमी का रोगी के शरीर पर बुरा असर पड़ता है। यदि रोगी को डाक्टर पर विश्वास न हो तो चिकित्सा काम नहीं करेगी; उल्टे वह बीमारी को और ज्यादा बढ़ा सकती है।”

यही आज के भारत की सबसे बड़ी सच्चाई है। भारत के लोगों का मोदी-जेटली पर से विश्वास उठ चुका है। नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उन्हें इतना बदनाम कर दिया है कि कोई भी इनके बताये नुस्खों पर भरोसा नहीं कर सकता है।इनके भरोसे कोई एक पैसे के निवेश का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा।  बुरी तरह से गिर चुकी राजनीतिक साख के कारण इनके हर नीतिगत निर्णय को अब नितांत सामयिक और एक चतुराई भरा निर्णय माना जा रहा है।

ऐसे में एक मात्र भरोसा है कि खुद सरकार ज्यादा से ज्यादा खर्च और निवेश करे, लेकिन इसमें भी इस सरकार को भरोसा नहीं हो रहा है। वित्तीय घाटे में अनियंत्रित वृद्धि से इन्हें अपने विदेशी आकाओं का विश्वास भी खो देने का खतरा सताने लगता है। इसीलिये वे यह कोशिश करेंगे कि निजी आयकर और कारपोरेट के करों में छूट दे कर लोगों को अवसाद-ग्रस्त स्थिति से निकालें। लेकिन इससे सिर्फ मुट्ठी भर बड़े लोगों को कुछ लाभ भले पहुंचेगा, आम लोगों में कोई विश्वास पैदा होने वाला नहीं है। इनके दो-दो बड़े-बड़े धक्कों, नौकरियां छीनने में इनके उत्साह, महंगाई के प्रति इनकी निष्ठुर उदासीनता और मोदी के तानाशाही तेवरों ने सबमें ऐसा खौफ पैदा कर दिया है कि अब हर कोई इनसे डरा हुआ है। हर व्यक्ति, जिनमें आम गरीब आदमी, किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग के लोगों से लेकर छोटे-बड़े दुकानदार तक सभी शामिल है, इन अहंकारी नौसिखुए डाक्टरों से इलाज नहीं, इनसे मुक्ति की, इनसे जान बचाने की कामना कर रहा है। और, मुट्ठी भर इजारेदारों के भरोसे तो अर्थ-व्यवस्था चंगी होने से रही।

अब यह तय है कि जब तक मोदी-जेटली सत्ता पर है, भारतीय अर्थ-व्यवस्था में रत्ती भर भी सुधार की गुंजाईश नहीं है। आज बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है, यह भारत के एक-एक आदमी के अनुभव की सचाई है कि वह अपने जीवन में खुद को पहले से कहीं ज्यादा कमजोर और गरीब महसूस कर रहा है।

Courtesy: हस्तक्षेप ,
Original published date:
09 Jan 2018
भारतीय अर्थव्यवस्था
मोदी सरकार
नरेंद्र मोदी
अरुण जेटली

Related Stories

किसान आंदोलन के नौ महीने: भाजपा के दुष्प्रचार पर भारी पड़े नौजवान लड़के-लड़कियां

भारतीय अर्थव्यवस्था : एक अच्छी ख़बर खोज पाना मुश्किल

सत्ता का मन्त्र: बाँटो और नफ़रत फैलाओ!

जी.डी.पी. बढ़ोतरी दर: एक काँटों का ताज

5 सितम्बर मज़दूर-किसान रैली: सबको काम दो!

रोज़गार में तेज़ गिरावट जारी है

लातेहार लिंचिंगः राजनीतिक संबंध, पुलिसिया लापरवाही और तथ्य छिपाने की एक दुखद दास्तां

माब लिंचिंगः पूरे समाज को अमानवीय और बर्बर बनाती है

भारतीय अर्थव्यवस्था की बर्बादी की कहानी

अविश्वास प्रस्ताव: दो बड़े सवालों पर फँसी सरकार!


बाकी खबरें

  • India State of Forest Report 2021
    सत्यम श्रीवास्तव
    भारत में वनों की स्थिति पर भारतीय वन सर्वेक्षण की 2021 की रिपोर्ट: आंकड़ों पर एक नज़र 
    14 Jan 2022
    देश के प्राकृतिक जंगलों का घनत्व और दायरा सिमटा जबकि प्लांटेशन और कृत्रिम हरियाली का मामूली विस्तार हुआ 
  • up vidhansabha
    रवि शंकर दुबे
    आज़ादी से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश ने दिए 21 मुख्यमंत्री, 10 बार लगा राष्ट्रपति शासन
    14 Jan 2022
    यूपी की राजनीति हर वक़्त दिलचस्प रही है, यहां होने वाले उतार-चढ़ाव हर दिन नई कहानियां गढ़ते हैं, ऐसे में उत्तर प्रदेश की राजनीतिक कब और किस मुख्यमंत्री के हाथ में रही, विस्तार से देखिए।
  • Kamal Khan
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कमाल ख़ान का निधन : ख़ामोश हो गई पत्रकारिता जगत की बेबाक और मधुर आवाज़
    14 Jan 2022
    न्यूज़क्लिक कमाल ख़ान के अचानक हुए निधन पर दुख व्यक्त करता है और उनके परिवार और तमाम चाहने वालों के प्रति अपनी संवेदनाएँ ज़ाहिर करता है।
  • covid
    न्यूज़क्लिक टीम
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 2.64 लाख नए मामले, ओमीक्रॉन के मामले बढ़कर 5,753 हुए  
    14 Jan 2022
    महाराष्ट्र में आज फिर 46 हज़ार से ज़्यादा नए मामले सामने आए हैं, वहीं दिल्ली में कोरोना के अब तक के रिकार्ड 28,867 नए मामले दर्ज किए गए हैं।
  • poverty
    अजय कुमार
    खुदरा महंगाई दर में रिकॉर्ड उछाल से आम लोगों पर महंगाई की मार पिछले 6 महीने में सबसे ज़्यादा
    14 Jan 2022
    महंगाई की मार लगातार पड़ती आ रही है। लेकिन फिर भी यह चर्चा के केंद्र में इसलिए नहीं उभरती, क्योंकि महंगाई की मार वह वर्ग नहीं सहन करता जो टीवी पर नियंत्रण रखता है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License