NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
पाकिस्तान
मोदी का युद्ध: क्लॉज़विट्ज़ के युद्ध के सिद्धांत की रोशनी में
मोदी का सिद्धांत युद्ध के लिए कोई भी तर्कसंगत आधार प्रदान नहीं करता है और समाज में घृणा को और बढ़ाने के लिए और ख़ुद के राजनैतिक फ़ायदे के लिए देश की सशस्त्र सेनाओं को चारा खिलाने का काम करता है।
संजय कुमार
09 Mar 2019
Translated by महेश कुमार
image courtesy: Wikimedia commons
Ind-Pak border

फ़रवरी में बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के शिविर पर भारतीय वायु सेना द्वारा किए हमले ने दोनों देशों को सैन्य हमले के क़रीब ला दिया था। पाकिस्तान वायु सेना ने भी पुंछ क्षेत्र में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार कार्यवाही कर दी थी। इस हमले के परिणामस्वरूप, एक भारतीय मिग पर हमला किया गया और उसके पायलट को पाकिस्तानी सेना ने पकड़ लिया था। एक संभावना में, पाकिस्तान के F16 को भी मार गिराया गया था, लेकिन पाकिस्तान ने इससे इनकार किया है।


हालाँकि पाकिस्तान आधारित जिहादी समूह जैसे कि JeM और लश्कर-ए-तैयबा (LeT) लगभग तीन दशकों से भारत की तरफ़ वाले कश्मीर में सक्रिय हैं, लेकिन बालाकोट में भारत द्वारा किए हमलों और 2016 में एलओसी के पार तथाकथित 'सर्जिकल स्ट्राइक' को सार्वजनिक रूप से पेश करना नई घटनाएँ हैं। दोनों हमले उरी में एक ब्रिगेड मुख्यालय पर और पुलवामा में सीआरपीएफ़ के क़ाफ़िले पर JeM के हमलों के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई के तहत किए गए। इन्हें एक नई रणनीतिक पहल के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को श्रेय दिया जा रहा है। भारत की दीर्घकालिक रणनीतिक और सुरक्षा चिंताओं के लिए मोदी के युद्धों के निहितार्थ क्या हैं? युद्ध पर क्लॉज़विट्ज़ की सोच इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए एक उपयोगी रूपरेखा प्रदान करती है।


जर्मन युद्ध के सिद्धांतकार और सैन्य कमांडर क्लॉज़विट्ज़ अपनी इस युक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं कि युद्ध अलग तरह की राजनीति का हिस्सा है। यह दावा युद्ध को एक तर्कसंगत लिबास पहना देता है। वास्तव में, उनका अन्य सूत्र यह है कि युद्ध आदिम घृणा की एक द्वंद्वात्मक त्रिमूर्ति है, इसे खेलने का मौक़ा और नीति इसका एक उपकरण है जो युद्ध की वास्तविकता के बहुत क़रीब होता है। घृणा अविश्वास को पैदा करती है ताकि एक तय समझौता होना असंभव हो जाए और यही स्थिति मनुष्यों को युद्ध के लिए मजबूर करती है। युद्ध में मौक़ा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि जिन कारणों से युद्ध लड़ा जाता है, उनके बारे में लड़ाकों को जानकारी नहीं होती है।


परिणामस्वरूप ‘युद्ध का कोहरा’ वास्तव में फ़ील्ड कमांडरों के लिए शतरंज की बिसात बन जाती है जिस पर वे अपने विरोधियों को हराने की कोशिश करते हैं। अग्रिम नीति के तत्व का इस्तेमाल और युद्ध का महत्वपूर्ण उपयोग इसकी लागत और लाभों के तर्कसंगत मूल्यांकन पर आधारित होता है। तीन तत्व प्रकृति में विरोधाभास हैं। युद्ध में उनकी द्वंद्वात्मक एकता, जैसा कि क्लॉज़विट्ज़ द्वारा परिकल्पित है, उनकी पारस्परिक बातचीत और प्रतिक्रिया विरासत में मिली हुई होती है, और वे हमेशा एक 'सही त्रिमूर्ति' में नहीं रह पाते हैं।


वियतनाम युद्ध और 1971 के भारत-पाक युद्ध हाल के इतिहास के उदाहरण हैं, जिनमें से एक लड़ाका इन तत्वों के सही संयोजन से शानदार सैन्य सफ़लता प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। इतिहास यह भी बताता है कि युद्ध में सफ़लता राजनीतिक सफ़लता की गारंटी नहीं है। दुसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश चुनावों में चर्चिल की हार हुई थी। एक युद्ध में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उसकी सफ़लता के दो साल के भीतर, भारत में इंदिरा गांधी का शासन बुरी स्थिति में आ गया था।


56 इंच की छवि और उनकी मर्दानगी के अनुयायियों ने उनके लिए इसे तैयार किया है। यही वजह है कि मोदी शायद 1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी जैसी समान सफ़लता हासिल करना चाहते हैं। हालाँकि, न तो उनके विश्व दृष्टिकोण के बारे में, और न ही भारत के वर्तमान सुरक्षा परिदृश्य की वास्तविकता इसके लिए अनुमति देती है। जैसा कि हाल ही में 26 फ़रवरी-मार्च 1 की झड़प में हुआ था, उनके युद्धों को सफ़लतापूर्वक एक निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने के उत्सवों के बजाय स्व-संवर्धन वाले संदिग्ध दावों में समाप्त होने की संभावना बन गयी है।

नफ़रत के बीज और नफ़रत की फ़ैक्टरी 

भारत और पाकिस्तान के आधुनिक राज्य एक दूसरे के प्रति मूलभूत घृणा के तत्व को आपस में साझा करते हैं। वे दो देशों के सिद्धांत के आधार पर विभाजित हुए थे, दोनों को ही विभाजन की क्रूरता का सामना करना पड़ा, और पिछले सात दशकों में चार युद्ध लड़े गए हैं। भारतीय अब तक भाग्यशाली रहे हैं कि एक उदार लोकतांत्रिक राज्य संरचना इस घृणा को बनाए रखने के लिए वैकल्पिक दृष्टि की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त राजनीतिक स्थान प्रदान करती है।


वास्तव में, प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के आने से पहले तक, प्रधानमंत्री कार्यालय में पहले रहे नेताओं में से कोई भी इस भावना से प्रेरित नहीं था। पाकिस्तान के साथ सकारात्मक जुड़ाव के लिए सबसे अधिक दो भारतीय प्रधानमंत्री, इंद्र कुमार गुजराल और मनमोहन सिंह सामने आए, और ये दोनों ही व्यक्तिगत रूप से विभाजन के आघात से गुज़रे हुए थे। हालाँकि, दोनों में दृष्टि और राजनीतिक ज्ञान की पर्याप्त उदारता थी जो उनकी राजनीति को प्रभावित नहीं होने देती थी।


हिंदुत्व, मोदी का मार्गदर्शक दर्शन और उनकी राजनीति एक अलग नस्ल की है। यह दो राष्ट्र के सिद्धांत की एक दर्पण छवि है। पाकिस्तान के संस्थापक दर्शन, सिवाय इसके कि अलगाववाद के बजाय, यह एक प्रमुख कार्यक्रम के तहत अल्पसंख्यकों के जबरन उन्मूलन को निर्धारित करता है। यह भारतीय राजनीति की परिधि में जब तक कि सवर्ण जाति के हिंदू, जो समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में वर्चस्व रखते हैं, ने इसे मंडल राजनीति के आक्षेप के बाद अपने राजनीतिक सामान्य ज्ञान के रूप में अपना लिया है। मोदी के शासन में उनकी एक आक्रामक हिंदू राजनीतिक पहचान है, जिसने गाय और राष्ट्र के नाम पर समाज में अल्पसंख्यक विरोधी और पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को मज़बूत किया है। सभी भारतीय जो इस राजनीति का विरोध करते हैं उन्हें देशद्रोही और शारीरिक रूप से हिंसा के ज़रिये लक्षित किया जाता है। यह एक शुद्ध फ़ासीवादी घृणा का कारख़ाना है।


1971 में इसके मूलभूत सिद्धांत के तहत और विघटन को देखते हुए, पाकिस्तानी राज्य और उसके सशस्त्र बलों की विचारधारा अपने पूर्वी पड़ोसी के लिए घृणा से प्रेरित है। ज़िया उल हक़ द्वारा राज्य नीति के रूप में शुरू किए गए जिहादी कट्टरवाद ने इस नफ़रत को एक बड़े स्तर पर ला दिया है। आर्थिक गड़बड़ी और सशस्त्र बलों के प्रभुत्व वाले राज्य का मतलब है कि देश एक संकट से दूसरे संकट में चला जाता है। समाज में अराजकता और सैन्यीकरण ने इसे आत्म-विनाश के ख़तरनाक रास्ते की ओर मोड़ दिया है। इसका परिणाम वैकल्पिक राजनीतिक दृष्टि की कमी है।


इसका मतलब यह नहीं है कि दोनों देशों में प्रगतिशील और उदारवादी वर्ग नहीं हैं जो दोनों देशों के बीच शांति के लिए साहस से खड़े हैं। कला जैसे कुछ क्षेत्रों में उनका प्रभाव अचूक है। फ़ैज़ न केवल पाकिस्तान में, बल्कि भारत के कुछ हिस्सों में सबसे लोकप्रिय कवि बने हुए हैं। हालाँकि, इस तरह के तथ्य का मतलब यह नहीं है कि राज्य की नीति या सामूहिक विचारधारा पर उनका प्रभाव है। उप-महाद्वीप में शांति के किसी भी कार्यक्रम को सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में निहित घृणा के निरंतर उत्पादन को रोकना होगा। दूसरी तरफ़, रणनीतिकारों को भी चौकस रहने की ज़रूरत है, अन्यथा ये घृणा के बादल उनके अपने फ़ैसले को बदल देंगे। इसके दो सबसे आम नुकसान हैं कि अपने विरोधी की शक्तियों को कम करके आंकना, और वास्तव में सामने उपलब्ध सभी विकल्पों को समझने की विफ़लता।

युद्ध का कोहरा और युद्ध प्रचार का नकलीपन 

युद्ध के वास्तविक आचरण में अनिश्चितताओं की अलग आवश्यकता है ताकि उसके बारे में कोई ‘ग़लतफ़हमी’ न पैदा हो। इस सोच का उपयोग पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने अपने हाल के भाषण में किया था, और वह कई युद्ध-विरोधी बयानों में भी दिखाई देता है। युद्ध में अप्रत्याशित मोड़ आते हैं क्योंकि दोनों पक्ष अपने विरोधी को आश्चर्यचकित करने की कोशिश करते हैं। जैसा कि पुलवामा और बालाकोट में हाल ही में हुई झड़प का कोहरा छँटने के बाद स्पष्ट हो रहा है कि दोनों पक्ष एक दूसरे को आश्चर्यचकित करने की कोशिश कर रहे थे। यदि पाकिस्तान बालाकोट में देश के भीतर तक हुए सैन्य हमले के लिए तैयार नहीं था, तो इसके कुछ सबूत हैं कि विंग कमांडर अभिनंदन एक निर्धारित जाल में फँस सकते थे। ऐसे मोर्चे के लिए सशस्त्र बलों के नेतृत्व से तैयार रहने की उम्मीद की जानी चाहिए। यह उनके प्रशिक्षण का हिस्सा है।


प्रचार और अन्य उद्देश्यों के लिए 'युद्ध के कोहरे' का उपयोग पूरी तरह से अलग मामला है। यह अब स्पष्ट है कि नामांकित आधिकारिक स्रोतों के आधार पर, बालाकोट में 300 से अधिक JeM उग्रवादियों के मारे जाने का प्रारंभिक 'समाचार' बेतुका था। 28 फ़रवरी को आयोजित प्रेस कोन्फ़्रेंस में एयर वाइस मार्शल कपूर ने कहा कि मरने वालों की किसी भी संख्या को बताना नादानी होगी। यह इस प्रचार को और ख़तरनाक बना देता है, जब इसके निर्माता इसे ग़लत साबित होने के बाद भी फैलाते रहते हैं। इस तरह के प्रचार का मतलब है कि हमने उन्हें नफ़रत की फ़ैक्ट्री की एक सीख दी है। वर्तमान भारतीय संदर्भ में, यह आने वाले चुनावों में 'देशभक्ति' की भावना के बारे में हल्ला करने के लिए आंतरिक राजनीति का एक उपकरण भी बन गया है।


क्लॉज़विट्ज़ के ट्रिनिटी ऑफ़ वॉर का तीसरा तत्व, इसके नुकसान और लाभों की तर्कसंगत प्रशंसा है, जिसे आसानी से उपरोक्त अन्य दो तथ्यों से अलग नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, दुश्मन के लिए नफ़रत भी असत्यापित मान्यताओं को उत्पन्न करती है, जो युद्ध के संचालन में अप्रत्याशित आश्चर्य को मज़बूत करती है। मोदी के युद्ध के तर्कसंगत आधार का निर्माण तीन तथ्यों के जोड़ के आसपास किया गया है। पहला दावा है कि पाकिस्तान से ख़तरे के खिलाफ़ भारतीय नीति सशस्त्र बलों का उपयोग करने के कठिन विकल्प के लिए जाने को अनिच्छा से प्रेरित है। इसके लिए वे 1999 में इंडियन एयरलाइंस जहाज़ के अपहरण के लिए तत्कालीन भारतीय सरकारों की कार्यवाही, 2001 में भारतीय संसद पर हमला और 2008 में मुंबई हमले को इस अनिच्छा के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह दिलचस्प है कि पहले की भारतीय सरकारों के बारे में यह दावा वास्तव में हिंदुओं की आत्म-दुर्बलता के हिंदुत्व के तर्क के समान ही है, क्योंकि यह इतिहास में मुस्लिम आक्रमणकारियों की सफ़लताओं का कारण माना जाता है। अगला दावा यह है कि भारतीय सरकारों के इस रुख ने अब तक पाकिस्तान को हमेशा से बड़े आतंकवादी हमलों को अंजाम देने के लिए प्रेरित किया है। पाकिस्तान भी परमाणु हमले के ब्लैकमेल के पीछे शरण लेता है।


तीसरा दावा यह है कि पाकिस्तान के इस झांसे को बंद किया जा सकता है और भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत और अंतरराष्ट्रीय स्थिति को देखते हुए, यह सही समय है कि भारत अपने विरोधी के ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष बल का उपयोग करे। भारत-पाक संघर्ष के चरित्र का यह सूत्रीकरण भारतीय टीकाकारों के बीच काफ़ी व्यापक है। मोदी के अनुयाइयों ने भी यह दावा किया है कि उनके पास अपने दुश्मन पर निर्णायक जीत के लिए भारत को ले जाने के लिए सही नेतृत्व और गुण हैं।


पहले दावे का समर्थन करने के लिए बहुत कम तथ्यात्मक सबूत हैं कि मोदी से पहले की सरकारों ने भारतीय सुरक्षा को पाकिस्तानी आक्रामकता के लिए मौक़ा दिया था। 1971 के युद्ध को न्यूनतम प्रयास के साथ अधिकतम प्रभाव के तहत लड़ा गया था। 1984 में भारतीय सेना ने सियाचिन ग्लेशियर में पाकिस्तानी सेना के क़दम को बढ़ने से रोक दिया था, न केवल पूरे ग्लेशियर पर बल्कि पूरे साल्टोरो रिज पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था। पाकिस्तानी सेना द्वारा पूर्व में किए गए हमलों का बदला लेने के लिए 2008, 2011 और 2013 में नियंत्रण रेखा को पार करने वाली भारतीय सेना की इकाइयों की रिपोर्ट मौजूद है। फ़ील्ड कमांडरों को किसी भी तरह के सीमा पर गर्म हमलों के लिए तैयार रहने की आवश्यकता है। 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक को पहले से स्थापित पैटर्न की बढ़ोतरी के रूप में देखा जाना चाहिए।


पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायण के अनुसार, 2008 में मुंबई हमलों के बाद लश्कर के मुख्यालय पर हमले पर चर्चा की गई थी, लेकिन दुश्मन के इलाक़े में विशेष लक्ष्यों को ख़त्म करने के लिए अमेरिकी सेना या रूसी स्पैत्सनाज जैसे विशेष बलों की कमी के कारण विकल्प को छोड़ दिया गया था। शायद भारतीय योजनाकारों ने सोचा था कि एक विशेष ऑपरेशन में शीर्ष नेतृत्व का केवल उन्मूलन आवश्यक संदेश देगा। इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि हाल ही में बालाकोट में जैश के शिविर पर किए गए हमले के बारे में शुरुआती मीडिया में हल्ला किया गया था लेकिन वास्तव में इसके नष्ट होने के एक हफ़्ते बाद भी इसके बारे में कोई स्पष्टता नहीं है।
मोदी के युद्ध के सिद्धांत में बुनियादी ग़लती यह है कि यह अंत में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सशस्त्र कार्रवाई को संदिग्धता में डालती है और बजाय इसके कि यह आंतरिक शांति और भारत की सीमाओं को सुरक्षित करने के एक संभावित साधन के रूप में इस्तेमाल हो, कश्मीर में और पहले पंजाब में ख़ालिस्तानी आंदोलन के दौरान, पाकिस्तानी की सैना ने एक घरेलू राजनीतिक मुद्दे का लाभ उठाया था। राजनीतिक रूप से इस मुद्दे को संबोधित करना आंतरिक शांति के लिए पहली आवश्यकता है। पाकिस्तान के खिलाफ ज़बरदस्त कार्रवाई आतंकवाद-विरोधी रणनीति का केवल एक हिस्सा हो सकती है, जो कि मुख्य रूप से आंतरिक होगी। यहाँ, युद्ध के मोदी मॉडल में अस्थिर धारणा यह है कि एक बार जब पाकिस्तान से हथियारों और प्रशिक्षित आतंकवादियों का प्रवाह रोक दिया जाता है, तो कश्मीर के नागरिकों को ज़बरदस्ती अधीन किया जा सकता है।


एक गैर-पारंपरिक युद्ध के लिए पाकिस्तान के प्रयासों पर एक विलक्षण ध्यान देने के बजाय, भारतीय योजनाकारों को अफ़गानिस्तान और पश्चिम एशिया में अमेरिका द्वारा किए गए आतंक पर 17 साल के युद्ध से सबक लेने की ज़रूरत है। सशस्त्र हमले के लिए एक स्पष्ट क्षेत्र होने के बावजूद, दुनिया में एकमात्र सुपर पावर के लिए वहाँ के परिणाम मिश्रित हुए हैं। पाकिस्तान के झांसे में आने की धारणा वास्तविक लक्ष्य को ग़लत बताती है। यदि JeM और लश्कर जैसे लचीले आतंकी संगठन सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं, तो पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान के झांसे में आने से उनके अभियानों पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा। जैसा कि तालिबान ने अफ़गानिस्तान में दिखाया है, ऐसे संगठन राज्य के संस्थागत समर्थन के बिना भी जीवित रह सकते हैं और सफ़ल भी हो सकते हैं।


युद्ध अन्य तरीक़े की राजनीति का ही एक सिलसिला है। हालाँकि, जब सरकार की राजनीति अपनी छोटी वैचारिक दॄष्टि के अधीन हो जाती है, तो युद्ध किसी भी राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए एक साधन बन जाता है। क्लॉज़विट्ज़ की युद्ध की समझ के अनुसार, युद्ध का मोदी मॉडल केवल ट्रिनिटी के पहले तत्व द्वारा निर्धारित किया गया है। यह युद्ध के लिए कोई तर्कसंगत आधार प्रदान नहीं करता है, और समाज में घृणा को ओर गहरा करने के लिए देश के सशस्त्र बलों को चारा मुहैया करा रहा है।

(लेखक संजय कुमार सेंट स्टीफ़न कॉलेज, दिल्ली में भौतिकी पढ़ाते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
 

Indian air force
war propaganda
Narendra modi
strikes
Jaish-e-Mohammad

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़

हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License