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मोदी के भाषण और हमारी ख़बरों से लाखों प्रवासी नदारद
जब मोदी ने सभी गांवों के लिए एक ऑप्टिकल फ़ाइबर नेटवर्क का ऐलान कर रहे थे, तो प्रवासी श्रमिकों ने सोचा होगा कि यह महान आधुनिक राष्ट्र उनकी बुनियादी ज़रूरतों के लिए ऐसा ही कोई नेटवर्क क्यों नहीं बना पाता।
स्मृति कोप्पिकर
20 Aug 2020
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हर लिहाज़ से यह साल ग़ैर-मामूली तौर पर भारत के लिए एक डरावना और बेरहम साल रहा है। यह ऐसा साल रहा, जो शायद एक सदी में एक बार आता हो-आर्थिक मंदी, व्यापक और अनियंत्रित महामारी, इसे नियंत्रित करने के लिए सख़्त लॉकडाउन, लाखों फंसे लोगों और पीड़ितों पर पुलिस की बेरहमी, आज़ाद प्रेस और भाषण की फ़रेब और ढकोसले, असहमति और असंतोष को दरकिनार कर दिया जाना, इससे पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की पेशकश, और अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा,जिसने जम्मू और कश्मीर की स्थिति को बदल कर रख दिया। स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के संबोधन में साफ़ तौर पर कोई ख़ासियत जैसी बात नहीं थी।

उनके 90 मिनट के उस संबोधन में किसी तरह की बेचैनी और गंभीरता के स्वरों की अनुगूंज नहीं थी। उन्होंने असहज नहीं होने की अपनी जानी पहचानी शैली में इन ज़्यादतर मामलों पर बात करने से परहेज़ किया और कुछ पर बेमन से बात की। ज़्यादा परेशान करने वाली बात तो यह रही कि भारतीयों का वह वर्ग उनके भाषण के विषयों से नदारद था। उनके भाषण में हमारे समय की बेरहम मानवीय त्रासदी-100-140 मिलियन भारतीयों, प्रवासी कामगारों की दुर्दशा, महामारी और लॉकडाउन से सबसे ज़्यादा चोट खाने वालों का शायद ही कोई ज़िक़्र था।

मोदी का 24 मार्च को लॉकडाउन को लेकर अचानक किये गये ऐलान से मुश्किल से बने उनके संतुलित जीवन में एकदम से तूफ़ान आ गया। वे रातोंरात नौकरी से बाहर हो गये या बाहर कर दिये गये, बिना खाने और बिना किराये के पैसे के बेसहारा छोड़ दिये गये, वे अब शहरों में रहने का जोखिम नहीं उठा सकते थे और सार्वजनिक परिवहन की ग़ौर-मौजूदगी की हालात में पैदल या साइकिल से ही राज्यों की सैकड़ों किलोमीटर के इलाक़ों को पार करते हुए अपने-अपने गांवों घर वापस चले गये। यह सब उन्होंने बिना उचित भोजन या आराम के किया। सड़क दुर्घटनाओं में तक़रीबन 200  लोगों की मौत हो गयी। प्रवासन के जानकारों ने इसे स्वतंत्रता और विभाजन के बाद भारतीयों की सबसे बड़ी आवाजाही क़रार दिया है।

प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को जब चार घंटे के नोटिस के साथ देश को लॉकडाउन के हवाले कर दिया था,तब भी ये लोग मोदी के उस भाषण में शामिल नहीं थे; वे उनके 15 अगस्त के भाषण का हिस्सा भी नहीं थे,जबकि उनके अपार कष्ट को लेकर पर्याप्त और स्पष्ट सुबूत हैं। इसी तरह, क्योंकि ख़बरों की प्राथमिकतायें उन लोगों द्वारा तय की जाती हैं,जो सत्ता में हैं और जैसा वे बताते हैं, लिहाज़ा प्रवासियों की कहानियां मुख्यधारा के मीडिया से भी व्यापक तौर पर ग़ायब होती चली गयी हैं। उनकी दुश्वारियां मार्च के अंत तक सरेआम हो गयी थी,लेकिन ज़्यादातर  मीडिया ने उन्हें कुछ सप्ताह बाद ही भुला दिया।

यहां उन विषयों की सूची दी जा रही है, जिन्हें मोदी ने लाल क़िले से ज़िक़्र करने के लिए चुना: राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन, कोविड-19 के तीन टीकों के परीक्षण के विभिन्न चरण, नयी साइबर सुरक्षा नीति, एक रुपये में सैनिटरी नैपकिन और संभवतया लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष किये जाने, अगले 1,000 दिनों में ऑप्टिकल फ़ाइबर द्वारा भारत के छह लाख गांवों को जोड़ने की 100 लाख करोड़ रुपये की राष्ट्रीय बुनियादी परियोजना, राष्ट्रीय कैडेट कोर का विस्तार,पिछले सप्ताह सामने लायी गयी नयी शिक्षा नीति, कोरोना योद्धाओं की तारीफ़, और उनका समय-समय पर सामने आता पसंदीदा विषय-"आत्मानिभर भारत"।

उम्मीद के मुताबिक ही उनके भाषण में राम मंदिर के सिलसिले में ख़ुद को दी जानी वाली बधाई थी। उन्होंने भारत के पिछले तीन दशकों के उस सबसे विभाजनकारी मुद्दे का ज़िक़्र किया, जो "शांतिपूर्वक" हल हो गया। इसके अलावा, उन्होंने पिछले साल धारा 370 को ख़त्म करने का हवाला दिया और कहा कि इससे उस जम्मू-कश्मीर के लिए "विकास" की शुरुआत हुई है,जहां जल्द ही चुनाव होगा। उन्होंने भारत के कुल उत्सर्जन का लगभग 0.1% वाले लद्दाख को कार्बन मुक्त क्षेत्र बनाने की बात कही। इधर-उधर की असंगत बातों वाले उस लंबे भाषण में लाखों प्रवासियों, निम्न जाति और देहाड़ी श्रमिकों की दुर्दशा और पीड़ा शामिल नहीं थी; उनके लिए सांत्वना या आश्वासन के कोई शब्द तक नहीं थे।

भले ही ये भारतीय मोदी सरकार के एजेंडे और ख़बरों से बाहर कर दिये गये हों, लेकिन समस्या भीतर-भीतर सुलग रही है। अलग-अलग अध्ययनों ने उनके काम, मज़दूरी और जीवन पर लगातार लगाये गये लॉकडाउन के विनाशकारी प्रभाव को दिखाया है; विभिन्न रिपोर्टों में उनकी दुश्वारियों पर रौशनी डाली गयी है, और स्वतंत्र विशेषज्ञ समूहों और हिमायती समूहों की तरफ़ से अनेक सिफारिशें की गयी हैं। इनमें से कुछ को ही मीडिया में जगह मिली है, तक़रीबन किसी को भी सार्वजनिक रूप से मोदी सरकार की तरफ़ से स्वीकार नहीं किया गया है।

लॉकडाउन का असर शायद ही सब पर बराबर-बराबर पड़ा हो; हाल ही में अशोक विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि उच्च जातियों के मुक़ाबले निचली जातियों के  श्रमिकों की नौकरियां खोने को लेकर ज़्यादा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। दिसंबर 2019 और अप्रैल 2020 के बीच सभी समूहों के बीच रोज़गार में भारी गिरावट आयी है, लेकिन उच्च जाति के लिए नौकरी के नुकसान की तुलना में अनुसूचित जाति के श्रमिकों को हुआ ये नुकसान तीन गुना ज़्यादा था और ओबीसी और अनुसूचित जनजातियों का दो गुना ज़्यादा था। इस अध्ययन में दिखाया गया है कि उच्च जाति के बीच नौकरी का नुकसान 7% था, जबकि एससी के लिए यह 20%, एसटी के लिए 15% और ओबीसी के लिए 14% था। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) की तरफ़ से राष्ट्रीय स्तर पर 21,799 कुशल और अकुशल श्रमिकों के एकत्र किये गये नमूने के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले गये हैं,उसके मुताबिक़ इनके लिए ख़ास तौर पर कल्याण उपायों की ज़रूरत है।

अशोक विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर,अश्विनी देशपांडे कहती हैं, "निचली और उच्च जातियों के बीच नौकरी के गंवाये जाने के बीच के फ़र्क़ की व्याख्या उनकी नौकरियों और उनकी शिक्षा के प्रकारों से की गयी है।" वह "इज़ कोविड-19’  द ग्रेट लेवलर ?” शीर्षक वाले इस अध्ययन की सह-लेखिका थीं। जर्मनी स्थित गोएथ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री,राजेश रामचंद्रन के साथ मिलकर क्रिटिकल रोल ऑफ़ सोशल आइडेंटिटी इन लॉकडाउन इंड्यूस्ड जॉब लॉस लिखने वाली प्रोफ़ेसर देशपांडे ने न्यूज़क्लिक से बाताया,“ चूंकि अनुसूचित जाति के श्रमिक दैनिक वेतन वाली नौकरियों में ज़्यादा केंद्रित हैं और दैनिक वेतनभोगियों ने औपचारिक नौकरी करने वालों के मुक़ाबले ज़्यादा नौकरियां गंवा दी हैं, नौकरी के इस नुकसान का अंतर,उस (जातिगत अंतर) को स्पष्ट कर रहा था, और यह 12 साल से कम शिक्षा वाले श्रमिकों में ज़्यादा स्पष्ट था।”

अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट (CSE) की तरफ़ से अप्रैल और मई के बीच कराये गये एक सर्वेक्षण में बताया गया है, “बेरोज़गारी में भारी बढ़ोत्तरी हुई है और दो-तिहाई उत्तरदाताओं की कमाई में भारी गिरावट आयी है और कुछ अनौपचारिक श्रमिकों की कमाई आधी रह गयी है... नौकरी के नुकसान और खाद्य असुरक्षा का असर मुसलमानों, दलितों, महिलाओं, शिक्षा के निम्न स्तर वाले मज़दूरों और प्रवासियों जैसे कुछ समूहों के लिए ज़्यादा रहा है।” यह सर्वेक्षण बताता है कि ज़्यादतर किसान या तो अपनी उपज को बेच नहीं पाये हैं या उन्हें अपने उत्पाद कम क़ीमतों पर बेचने पड़े हैं।

इस सर्वेक्षण में पाया गया था कि प्रवासी श्रमिकों सहित निचले स्तर पर काम करने वाले लोगों के लिए इस लॉकडाउन का असर इतना गंभीर था कि “तक़रीबन 10 में से 8 लोग पहले के मुक़ाबले कम खाना खा रहे था, इतनी ही संख्या में लोगों के पास किराये के लिए पैसा नहीं थे, शहरी क्षेत्रों में 10 में से 6 से ज़्यादा लोगों के पास एक सप्ताह के लिए भी ज़रूरी पैसे नहीं थे, और एक तिहाई से ज़्यादा लोगों ने लॉकडाउन के दौरान ख़र्चों को पूरा करने के लिए कर्ज़ लिया था।"

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सर्वेक्षण के इस निष्कर्ष को हरी झंडी दे दी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना था कि महामारी और लॉकडाउन संकट का मतलब भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले क़रीब 400 मिलियन श्रमिकों के क़रीब 90% हिस्से का ग़रीबी के शिकार होने का ख़तरा है। भारत को लेकर  मंगलवार को प्रस्तुत किये गये अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन-एशियाई विकास बैंक की एक संयुक्त रिपोर्ट में इस बात का अनुमान लगाया गया है कि इस महामारी के चलते 41 लाख युवा पहले ही अपनी नौकरी गंवा चुके हैं।

सरकार की योजनायें, चाहे वह लक्षित वितरण या प्रोत्साहन पैकेज हो- इनका बहुत कम मतलब रह गया है। मई में सरकार ने कहा था कि प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत 91.3 मिलियन किसानों को 1.70 ट्रिलियन प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण पैकेज (PMGKP) राहत राशि के हिस्से के रूप में 18,253 करोड़ रुपये दिये गये थे। लेकिन, सीएसई के निष्कर्षों के मुताबिक़,लाखों कृषि श्रमिकों और काश्तकार किसानों के बीच हर 10 किसानों में से चार किसानों को इस योजना का लाभ नहीं मिल पाया था।

लॉकडाउन शुरू होने के तीन सप्ताह बाद प्रवासियों और ग़रीबों के लिए मुफ़्त अनाज-दाल की घोषणा की गयी थी। इसका फ़ायदा महज़ एक तिहाई प्रवासियों को ही मिल पाया; हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, आवंटित किये गये के 8,00,000 टन खाद्यान्न में से सिर्फ़ 2,46,000 टन खाद्यान्न ही बांटे गये। प्रवासी मज़दूरों की गिनती कृषि मज़दूरों और ग्रामीण ग़रीबों में होती है और ये गर्भवती महिलाओं और बच्चों के साथ भारत में कुपोषण के सबसे बुरे स्तर पर हैं। 2019 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 102वें स्थान पर था,जो कि अपने पड़ोसियों-पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे है।

मोदी के स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में इस समय राष्ट्र के सामने मौजूद कुछ सामाजिक-आर्थिक मसले को जगह नहीं मिली। अगर आने वाले दिनों में इतिहासकार इस भाषण की व्याख्या करते हैं,तो ऐसा लगेगा कि मानों सरकार के अनियोजित और अचानक लॉकडाउन के चलते बंद कर दिये गये इस राष्ट्र में लाखों लोगों के पैदल चलने, नौकरी गंवाने, भूखे रहने जैसी गंभीर मानवीय दुश्वारियां हुई ही नहीं थी।

सुपर हीरो वाली किसी मेगा फ़िल्म में एक्स्ट्रा आर्टिस्ट की तरह ये लोग बस फ़्रेम को भरने के लिए मौजूद हैं, लेकिन इन्हें रंगमंच के आगे नहीं रखा जा सकता। जब कभी ये राष्ट्रीय राजनीतिक या मीडिया कथानक में दिखायी देते हैं, तो इन्हें भारत की विशाल आर्थिक यंत्र या सरकार की उदार कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन आर्थिक उत्पादकों, सेवा मुहैया कराने वालों और शहर को बनाने वालों के तौर पर उनकी अहमियत को शायद ही कभी स्वीकार किया जाता है। जब मोदी ने 15 अगस्त को सभी गांवों के लिए एक ऑप्टिकल फ़ाइबर नेटवर्क का ऐलान किया कर रहे थे, तो प्रवासी श्रमिकों ने सोचा होगा कि यह महान आधुनिक राष्ट्र उनकी बुनियादी ज़रूरतों के लिए ऐसा ही कोई नेटवर्क क्यों नहीं बना पाता।

 

लेखक मुंबई स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो राजनीति, शहरों, मीडिया और जेंडर पर लिखते हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।
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