NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
मोदी राज में आदिवासियों के अधिकारों की स्थिति चिंताजनक!
कई राज्य सरकारों द्वारा यह स्वीकार किए जाने के बावजूद कि वन अधिकार क़ानून के क्रियान्वयन में ख़ामियां थीं, सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार लगातार ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए है।
पृथ्वीराज रूपावत
16 Sep 2019
FRA

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार वन अधिकार क़ानून, 2006 (एफ़आरए) को फिर से जानबूझकर नज़रअंदाज़ कर रही है। एफ़आरए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका जो वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी और फिर वर्ष 2016 में वनवासियों के समूह तथा सेवानिवृत्त वन अधिकारियों के समूहों द्वारा दायर की गई थी जिसपर सुनवाई चल रही है। इस दौरान सॉलिसिटर जनरल 12 सितंबर (अंतिम सुनवाई) को सुनवाई में शामिल नहीं हुए। इस बीच शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर तीन नए आवेदन को स्वीकार कर लिया है जो आदिवासियों तथा वनवासियों के हितों के ख़िलाफ़ है।

इस आवेदन में एफ़आरए प्रक्रिया को रोकने मांग की गई है और भारतीय वन सर्वेक्षण (फ़ोरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया) से "अतिक्रमण" डाटा की मांग के साथ इसे पक्षकार बनाने की मांग की गई है। अगली सुनवाई 26 नवंबर को होनी है।

देश की शीर्ष अदालत में ये घटनाक्रम ख़ास तौर से लाखों आदिवासियों और वनवासियों के जीवन के लिए ख़तरा है क्योंकि इस साल फ़रवरी महीने में अदालत ने एक लाख से अधिक लोगों को वनों से बाहर करने का निर्देश दिया था जिनके दावों को एफ़आरए के तहत ख़ारिज कर दिया गया था। इस आदेश को बाद में रोक दिया गया था। जब नाराज़ आदिवासियों ने देशव्यापी बंद का आह्वान किया तो केंद्र सरकार को इस मामले में आदेश को तत्काल रोकने के लिए शीर्ष अदालत से आग्रह करना पड़ा।

वनों तथा वन्यजीवों के संरक्षण के नाम पर इस अधिनियम के ख़िलाफ़ इन वर्गों के तर्कों और जनजातीय अधिकार कार्यकर्ताओं तथा विशेषज्ञों दोनों के तर्क के साथ अगर कोई एफ़आरए के लागू होने के कारणों और एफ़आरए के कार्यान्वयन में केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका को देखता है तो भारत में आदिवासी समुदायों के वन अधिकारों के पराकाष्ठा की शायद एक तस्वीर उभरती है।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि एफ़आरए को क्यों लागू किया गया था। इस एफ़आरए से पहले आदिवासी समुदायों द्वारा कई बार विरोध किए गए। इस विरोध ने वन भूमि पर उनके अधिकारों के संबंध में क़ानून बनाने वालों को उनकी पीड़ा सुनने के लिए मजबूर किया। वास्तव में इस अधिनियम की प्रस्तावना मे कहा गया है कि औपनिवेशिक काल के दौरान और स्वतंत्र भारत में आदिवासियों तथा वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त किया जाए और उनको अधिकार दिए जाएँ।

अगस्त 2016 में भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता में सरकार की तरफ से नियुक्त समिति ने इस अधिनियम के कार्यान्वयन से संबंधित मामलों की पड़ताल की। इस समिति ने स्पष्ट रूप से कहा था कि “विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा इसके कार्यान्वयन में जो अब तक प्रगति हुई है” वह काफ़ी निराशाजनक है। इसके चलते इस अधिनियम का उद्देश्य ही समाप्त हो गया है।”

यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के फ़रवरी 2019 के आदेश जिसमें उन लोगों को बलपूर्वक बाहर करने का आदेश दिया गया था जिनके दावे को ख़ारिज कर दिया गया उसे जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय बताया गया क्योंकि कई राज्य सरकारें अब स्वीकार कर रही हैं कि कार्यान्वयन प्रक्रिया में ख़ामियां थीं। उदाहरण के लिए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर दो अलग-अलग हलफ़नामों के माध्यम से महाराष्ट्र सरकार ने अपनी स्वयं की नौकरशाही को अवैध रूप से वन अधिकारों के दावों को ख़ारिज करने के लिए दोषी ठहराया था। इसमें कहा गया कि पूरे महाराष्ट्र में कम से कम 22,509 वन अधिकारों के दावों को बिना उचित आंकलन के ख़ारिज कर दिया गया।

इसके अलावा, 13 लाख से अधिक वन अधिकारों के दावों को ख़ारिज करने वाली नौ राज्य सरकारों ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय की बैठक में स्वीकार किया था कि दावों को ख़ारिज करने में "उचित प्रक्रिया" का पालन नहीं किया गया था। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं।

एफ़आरए का विरोध कौन-कौन कर रहे हैं?

संरक्षणवादियों ने दोषी ठहराते हुए कहा कि एफ़आरए का दुरुपयोग किया गया है जिसके चलते 'बड़े पैमाने पर' 'अतिक्रमण' हुआ है। इससे वन भूमि और वन्यजीवों को नुक़सान हो रहा है। हालांकि इस वर्ग के लोगों के पास अपने तर्क को सिद्ध करने के लिए कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। हाल के अध्ययनों में पाया गया है कि स्थानीय समुदायों द्वारा वन प्रबंधन ग़रीबी और वनों की कटाई को कम करने सहित फलदायी साबित हुआ है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों ने इस सामुदायिक वन प्रबंधन के चलते होने वाले लाभ की तरफ़ इशारा किया है।

वन्यजीवों के बारे में इस मामले पर विचार करें। वर्ष 2018 में हुई बाघ जनगणना के अनुसार बिलीगिरी रंगनाथ टाइगर रिज़र्व में बाघों की संख्या 2010 में 35 से बढ़कर 2018 में 65 हो गई है। बाघों की संख्या में ये वृद्धि महत्वपूर्ण है क्योंकि इस क्षेत्र में सैकड़ों सोलीगा जनजातियों को वन अधिकार के दावे इस अवधि में मंज़ूर किए गए थे।

एफ़आरए की स्थिति

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार अप्रैल 2019 के अंत में देश भर से कुल 40,89,035 व्यक्तिगत वन अधिकारों (इंडिविजूअल फॉरेस्ट राइट-आइएफ़आर) के दावों को प्राप्त किया गया। केवल 46% या 18,87,894 दावों को भूमि का अधिकार मिला। प्राप्त किए गए कुल 1,48,818 सामुदायिक वन अधिकार (कम्यूनिटी फॉरेस्ट राइट सीएफ़आर) दावों में से केवल 76,154 दावों (51%) को भूमि का अधिकार दिया गया है। पिछले तेरह वर्षों में यह प्रगति हुई है। मई 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद मंत्रालय ने मासिक प्रगति रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है।

नरेंद्र मोदी शासन में एफ़आरए की स्थिति

पिछले चार वर्षों में स्वदेशी वन अधिकारों (इंडिजेनस फॉरेस्ट राइट-आइएफ़आर) की संख्या में केवल 13% की वृद्धि हुई है, जबकि 34,000 से अधिक सीएफ़आर भूमि का अधिकार मिला है। दूसरे शब्दों में आधे से अधिक दावेदार सरकार से अपने अधिकारों को पाने का आग्रह कर रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार की अन्य प्राथमिकताएं हैं।

मोदी सरकार ने 2018 में राष्ट्रीय नीति और भारतीय वन अधिनियम, 1927 (इंडियन फॉरेस्ट एक्ट-आइएफ़ए) में संशोधन का मसौदा पेश किया है। विशेषज्ञों ने प्रो-कॉर्पोरेट और जनजातीय अधिकारों को नज़रअंदाज़ करने को लेकर इन दोनों प्रस्तावों की आलोचना की है। आइएफ़ए में प्रस्तावित सुधार एफ़आरएके कई प्रावधानों जैसे कि ग्राम सभाओं को दी गई शक्तियों को प्रभावहीन कर सकते हैं।

न्यूज़क्लिक ने पहले प्रकाशित किया है कि मोदी सरकार ने वनभूमि शासन से संबंधित कई नियमों की फिर से व्याख्या की या बदल दिया है। ये सभी आदिवासियों के अधिकारों की क़ीमत पर कॉर्पोरेट हितों के पक्ष में हैं।

यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि मोदी के नेतृत्व में पहले कार्यकाल के दौरान जनजातीय मामलों के मंत्रालय को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया था क्योंकि जनजाततीय मामलों के मंत्रालय ने अन्य मंत्रालय को लेकर खुलकर नाराज़गी व्यक्त की थी।

यह स्पष्ट है कि केंद्र सरकार कार्यान्वयन प्रक्रिया में कई ख़ामियों के बावजूद एफ़आरए को फिर से नज़रअंदाज़ कर रही है। स्थानीय लोगों के साथ व्यवहार करने का ऐसा तरीक़ा अपनाने से एक बार फिर कौन बेघर होने को मजबूर हैं। ऐसा लगता है कि बीजेपी इन समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय और जन आंदोलन के चलते लागू हुए एफ़आरए अधिनियम को भूलती हुई नज़र आ रही है। शायद, ये दक्षिणपंथी पार्टी आने वाले नतीजों को भी कम आंक कर देख रही है।

Forest Rights Act
fra
community forest rights
CFR
Individual Forest Rights
Tribes
forest dwellers
Eviction
BJP
Forests
Conservation
Wildlife Conservation
BJP government
Tribal Rights on Forest Lands

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

गुजरात: भाजपा के हुए हार्दिक पटेल… पाटीदार किसके होंगे?


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License