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भारत
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मशीनें हमारी नौकरी खा रही हैं : आधी हकीकत, आधा फसाना
तकनीक की वजह से पैदा होने वाली संभावनाओं में उन संभावनाओं को चुनना जरूरी है या ऐसी संभावनाएं बनाना जरूरी है जिससे सभी को रोजगार मिल सके।
अजय कुमार
19 Sep 2018
automation

नेताओं को लगता है कि रोजगार 2019 का सबसे प्रभावी चुनावी मुद्दा है। लेकिन यह मुद्दा चुनाव से भी आगे जाकर मौजूदा आर्थिक और विकास के मॉडल को न सिर्फ प्रभावित करता है बल्कि कठघरे में भी खड़ा करता है।

अभी हाल में ही वर्ल्ड इकनोमिक फोरम (विश्व आर्थिक मंच) ने फ्यूचर ऑफ़ जॉब्स रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके तहत मौजूदा समय में भारत के 12 प्रमुख क्षेत्रों में मिल रहे रोजगार  के पूरे समय में तकरीबन 71 फीसदी समय मानव श्रम से जुड़ा होता है। लेकिन इस रिपोर्ट में यह संभावना जतायी गयी है कि साल 2025 तक रोजगार की मौजूदा स्थिति बदल जाएगी। इस समय तक  रोजगार के कुल समय में मानव श्रम का हिस्सा केवल 48 फीसदी हो जाएगा। यानी कि 2025 तक 52 फीसदी काम मशीनों द्वारा होने लगेंगे।

यह संभवानाएं गंभीर है। लेकिन इस संभावना के सहारे भ्रम भी पैदा करने की कोशिश की जाती है। ऐसी संभावना के सहारे यह चर्चा शुरू होती है कि मशीनें और ऑटोमेशन सारी नौकरियां हड़प रही हैं। इसलिए नौकरियों की मांग करना जायज नहीं है। 

 लेकिन इस मांग के ज़रूरी या गैरज़रूरी होने का फैसला करने के लिए कुछ और आंकड़ों पर भी गौर करना जरूरी है। CENTRE FOR MONITORING INDIAN ECONOMY (सीएमआईई) द्वारा जारी किये आंकड़ों के तहत जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2018 के बीच भारत में तकरीबन एक करोड़ लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। रोजगार आंकड़े देने का काम लेबर ब्यूरो का है लेकिन इस सरकार के दौरान लेबर ब्यूरो ने अपना काम ही बंद कर दिया है। इसकी जगह रोजगार के लिए मोदी जी संसद में ईपीएफओ के सहारे रोजगार के आंकड़ें बताते हैं और रोजगार शुदा व्यक्ति के साथ इन पर आश्रितों की संख्या को रोजगार में जोड़कर अजब-गजब की बातें की जाती हैं, जो सच के बजाय अफवाह फ़ैलाने के काम ज्यादा आती हैं। अफवाहबाजी के इस समय में सीएमआईई रोजागर के आंकड़ें  जारी करने पर काम कर रही है। इस संस्था के निदेशक महेश व्यास ने कुछ दिन पहले बिजनेस स्टैंडर्ड में एक लेख लिखा और यह बताया कि कैसे सरकारी और कॉर्पोरेट सेक्टर में नौकरियां कम हुई हैं। 2014-15 में 8 ऐसी कंपनियां हैं जिनमें से हर किसी ने औसत 10,000 लोगों को काम से निकाला है। इसमें प्राइवेट कंपनियां भी हैं और सरकारी भी। वेदांता ने 49,741 लोगों को छंटनी की है। फ्यूचर एंटरप्राइज़ ने 10,539 लोगों को कम किया। फोर्टिस हेल्थकेयर ने 18000 लोगों को कम किया है। टेक महिंद्रा ने 10,470 कर्मचारी कम किए हैं। SAIL सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है, इसने 30,413 लोगों की कमी की है। BSNL 12,765 लोगों को काम से निकाला है। इंडियन ऑयल कारपोरेशन ने 11,924 लोगों घटाया है। सिर्फ तीन सरकारी कंपनियों ने करीब 55000 नौकरियां कम की हैं।  इन सारी नौकरियों की प्रकृति में ख़ास यह है कि  इन सारी नौकरियों में कमी टेक्नोलॉजी की वजह से नहीं बल्कि इस कमी के पीछे अन्य दूसरे तरह के कारण जिम्मेदार रहे हैं। सरकारी नीतियां और लापरवाहियां ,विनिर्माण क्षेत्र में होने वाले विनियोग की कमी,कॉरपोरेट की अधिक से अधिक लाभ कमाने की मंशा और कॉरपोरेट की नीतियां जैसे तमाम कारणों की वजह से ऐसी नौकरियां कम हुई हैं। 

 इस तरह से यह साफ़ है कि विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी की गयी संभावना में सच का अंश होने के बावजूद भी CMIE द्वारा जारी रोजगार की आंकड़ों की वजह से रोजागर का मसला हमारे लिए बहुत पेचीदा हो जाता है। और यह भ्रम टूट जाता है कि मशीनों ने हमारी नौकरियां खा ली हैं और मशीनें आगे चलकर सारी नौकरियां निगल जाएंगी। कहने वाले कहते हैं कि जब तक प्राकृतिक और मानव निर्मित संसाधनों का पूरी तरह दोहन न हो जाए तब तक रोजगार की सम्भवनाएं बची रहेंगी। विज्ञान और तकनीक मिलकर प्राकृतिक संसाधनों को मानव  निर्मित संसाधनों में ढाल देते हैं और मानव निर्मित संसाधन को भी बहुत आसान कर देते हैं। इससे काम की परतें जरूर कम हो जाती हैं और काम की  प्रकृति भी  बदल जाती हैं लेकिन ऐसा नहीं होता कि काम ही खत्म हो जाए। इसका सबसे बड़ा सबूत यह  है कि आज से चार सौ साल पहले औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई लेकिन रोजगार खत्म नहीं हुआ। रोजगार अब भी मौजूद है। लेकिन अगर बदलते समय के अनुसार उभरती तकनीक की वजह से पनपती संभावनाओं में सही हस्तक्षेप नहीं किया गया तो रोजगार की संभावनाएं भी कम हो जाती हैं। जैसे मीडिया के क्षेत्र में ही डिजिटल की उभार की वजह से रिपोर्टर नामक प्रजाति की मौत हो गयी है। जबकि रिपोर्टरों की जरूरत हमेशा रहेगी। मीडिया के क्षेत्र में जितना मर्जी उतना तकनीकी बदलाव हो जाए रिपोर्टरों की जरूरत हमेशा रहेगी। रिटेल सेक्टर में अमेजन जैसे इलेक्ट्रॉनिक व्यापारियों की मौजूदगी की वजह से नौकरियों में स्थायित्व नहीं है। इसे सही तरह के सरकारी हस्तक्षेप से स्थायी प्रकृति के रोजगार में बदला जा सकता है। नहीं तो तकनीक जीवन आसान बनाने की बजाय  किसी एक व्यक्ति या संस्थान के लिए लाभ कमाने के तौर पर काम करने लगेगी। और गिनकर चार पांच कंपनियां पूरी दुनिया को चलाने का काम करेंगी। 

ऐसी स्थितियों  से बचने के लिए पूरे के पूरे इकोनॉमिक मॉडल पर भी काम करने की जरूरत है। विकास के उस मॉडल को बदलने की जरूरत है, जिसकी जिम्मेदार केवल मौजूदा सरकार नहीं है बल्कि पिछले कई दशकों से एक के बाद एक आने वाली सरकारें हैं। सोचने के उन तरीकों को बदलने की जरूरत है जिसकी  वजह से हमने सफलता तो पाई है लेकिन भयंकर किस्म की आर्थिक असमनाता भी पाई है। और जिस समाज में भयंकर किस्म की आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही हो, वहां जो मर्जी सो हो रहा हो लेकिन विकास तो नहीं हो रहा होता है। असली हकीकत तो यही है कि जब हम रोजगार की चिंता  कर रहे होते हैं तो हमारी सारी चिंता सरकारी नौकरी और संगठित क्षेत्र की नौकरियों तक घूमती रहती है, जिनकी पूरे  कार्यबल में अभी भी तकरीबन 8 फीसदी की हिस्सेदारी है। यानी कि 92 फीसदी कार्यबल पर कोई बातचीत नहीं होती है। इसलिए तकनीक की वजह से पैदा होने वाली संभावनाओं  में उन संभावनाओं को चुनना जरूरी है या ऐसी संभावनाएं बनाना जरूरी है  जिससे सभी को रोजगार मिल सके। भारत श्रम आधिक्य वाला पूंजी की कमी वाला देश है। यह यूरोप की तरह पूंजी के आधिक्य और श्रम की कमी वाला देश नहीं है। इसलिए भारतीय समाज के लिए ऐसी तकनीक की जरूरत है जो भारत के श्रम पर हमला न करे जैसे अमेजन  जैसी संस्थाएं करती हैं। ऐसी तकनीक की जरूरत है जिससे किसी को सीवर लाइन में घुसकर सीवर साफ़ करने की जरूरत पड़े। ऐसी तकनीक की जरूरत है जो लघु और कुटीर उद्योग, गाय-भैंस, बकरी और भेड़ पालन के क्षेत्र में सहयोग कर सके, जो आईटी सेक्टर के कामों से कई गुना ज्यादा काम पैदा करने की क्षमता रखती हैं। 

इस तरह से विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी किये गए आंकड़ों के साथ मौजूदा समय के रोजगार के आंकड़ें जोड़ने पर हमारा यह भरम टूटता है कि मशीनों की वजह से नौकरियां कम हो रही हैं। लेकिन बड़े फलक पर देखने पर यह जरूर लगता है कि मशीनों द्वारा पनपी सम्भवनाओं के साथ रोजगार के क्षेत्र में  न्याय करने में सरकार द्वारा समय-समय पर  उचित सरकारी हस्तक्षेप करने की जरूरत है।  साथ में  चलते आ रहे विकास के मॉडल में भी जरूरी बदलाव करने की जरूरत है। 

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