NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
फिल्में
भारत
शकुंतला देवी: न गणितज्ञ दिखी, न शानदार औरत, सिर्फ़ सवालों के घेरे में एक मां दिखी
जब एक औरत बेझिझक जी रही थी, अपनी कद्र कर रही थी, ज़िंदगी को कस के गले लगा रही थी, तो दर्शकों को वो औरत ही फ़िल्म में दिखानी चाहिए। जिसके जैसा बनने की ख़्वाहिश सिर्फ़ उनकी बेटी को न होती बल्कि देश की सभी बेटियों को होती।
वर्षा सिंह
11 Aug 2020
शकुंतला देवी

आज भी लड़कियां और गणित विषय का कॉम्बिनेशन बहुत कॉमन नहीं है। ये व्यक्ति की अपनी पसंद-समझ के साथ सामाजिक तौर पर की गई बुनावट भी है। ऐसे में कोई नब्बे बरस पहले जन्मी स्त्री की मानव-कमप्यूटर के तौर पर पहचान है तो उस पर बनी बायोपिक फ़िल्म से आपको क्या उम्मीद होगी!

गणित अंकों का खेल है और इस विषय की परीक्षा में अंक हासिल करना कितना मुश्किल है, अपने अनुभवों से ये समझते हुए मुझे इस फ़िल्म को लेकर बहुत उत्सुकता थी। शकुंतला देवी के जीवन के संघर्ष, उनकी चुनौतियां, गांव के जीवन से बाहर निकलकर पूरी दुनिया में घूम-घूम कर गणित के शो करना, हर किसी को अपना मुरीद बना लेना, वैज्ञानिकों को भी अपनी बुद्धि से हैरत में डाल देना। इस फ़िल्म के ज़रिये दर्शक शकुंतला देवी के जीवन, उनके सफ़र को देखना-समझना चाहते थे। बायोपिक फिल्में लोगों को तमाम चुनौतियों को पारकर जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देती हैं। लेकिन ये फ़िल्म गणितज्ञ शकुंतला देवी से आपकी मुलाकात नहीं कराती। बल्कि फ़िल्म में गणितज्ञ स्त्री तो कहीं दर्ज ही नहीं होती। किसी स्त्री को तो शकुंतला देवी फ़िल्म देखकर जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलने नहीं जा रही।

कोरोना के समय में ये फ़िल्म अमेज़न प्राइम पर रिलीज हुई। निर्देशक अनु मेनन ने ये फ़िल्म शकुंतला देवी की बेटी अनुपमा बनर्जी के नज़रिये से बनायी है। एक बेटी के नज़रिये से एक कामकाजी मां को देखने की कोशिश की गई है। कामकाजी औरतें या उनकी बेटियां ये फ़िल्म देखें तो पूरी फ़िल्म गिल्ट से भरती है। मां मलाल करती है कि वो अपनी बेटी को समय नहीं दे पा रही। बेटी शिकायत करती है कि उसे उसके हिस्से की मां नहीं मिल पा रही। मां को गणित से प्यार है। अंकों ने उसे पूरी दुनिया के मंच पर पहुंचाया। ये उसे कुदरतन मिला तोहफ़ा था। मां बनने के बाद उसने गणित को किनारे रख भी दिया। लेकिन जब बेटी कुछ बड़ी हुई तो उसे फिर से अपना काम शुरू करने की चाह हुई। उसके पति ने साथ दिया। वो वापस गणित की दुनिया में लौटी लेकिन बेटी को कभी नहीं छोड़ा।

एक आम कामकाजी महिला भी अपना करियर और परिवार दोनों को संभालने की जद्दोजहद में रहती है। कभी करियर छूटता है कभी परिवार। लेकिन करियर न छूटे, परिवार भी बना रहे, वो अपने हिस्से का स्पेस छोड़कर अपेक्षाकृत अधिक काम करती है। लेकिन ये फ़िल्म एक खास कामकाजी महिला को असफल मां के रूप में दर्ज कराने की कोशिश करती है। कुछ ज्यादा ही भावुकता से ये फ़िल्म बनाई गई है। जब आप पब्लिक डोमेन में कोई बात कहते हैं तो अपनी निजी भावनाओं और निजी नज़रिये से ही नहीं कह सकते। उसका समाज पर पड़ने वाले असर का आकलन भी करना होता है। जब दफ़्तर और घर की नौकरी निपटाने के बाद कोई महिला इस फ़िल्म को देखेगी तो उसके हिस्से में क्या आएगा। मां से ज्यादा समय मांगने वाले बच्चे ये फ़िल्म देखेंगे तो क्या जानेंगे।

image credit- times of india.jpeg

शकुंतला देवी की वास्तविक छवि, फोटो साभार : टाइम्स ऑफ इंडिया

आज स्त्रियां सिर्फ कामकाजी महिला बनने का ही संघर्ष नहीं कर रहीं। अपने हिस्से का स्पेस, अपनी निजी आज़ादी भी मांग रही हैं। घर के अंदर भी। घर-परिवार के बाहर भी। ये फ़िल्म बड़े रूढ़ तरीके से ये बात कहती है कि बिना परिवार की अनुमति के आप कुछ नहीं। जिस समय भारतीय औरतें घूंघट में कैद थीं, अपने गणित कौशल के सहारे शकुंतला देवी देश-दुनिया की सैर कर रही थी। अपने फ़ैसले खुद ले रही थी। वह एक आज़ाद महिला थी। आज की स्त्री भी उस स्तर तक पहुंचना चाहती है। लेकिन फ़िल्म शकुंतला देवी को आज़ाद से ज्यादा अय्याश सी दर्शाती है। शुरू के हिस्से में फ़िल्म में कुछ एक अच्छे संवाद भी आए। “हम इंसान हैं पेड़ नहीं, हमारे पैर हैं जड़ें नहीं, बोलो क्यों, ताकि हम दुनिया घूम सकें....”। ध्यान दीजिए कि ये एक स्त्री का संवाद है। अपने आसपास की स्त्रियों पर ये संवाद फिट करने की कोशिश कीजिए।

शकुंतला देवी- “तुम स्पेन वापस क्यों जा रहे हो”।

जवाब- “तुम अमीर और मशहूर हो और अब तुम्हें मेरी ज़रूरत भी नहीं है”।

शकुंतला देवी- “क्यों आदमी हमेशा चाहता है कि औरत को उसकी ज़रूरत हो...”।

शकुंतला देवी वो स्त्री थी जिसे किसी सहारे के रूप में आदमी की जरूरत नहीं थी। लेकिन प्रेम और साथ चाहिए था इसलिए उसने एक बंगाली व्यक्ति से शादी की। इन्हीं भावनाओं से एक बच्चे को भी जन्म दिया। शकुंतला देवी के पति की भी तारीफ़ करनी होगी। इस फ़िल्म के अनुसार उन्होंने अनावश्यक कोई हस्तक्षेप नहीं किया। ये भी नहीं कहा कि “मैंने तुम्हें आज़ादी दी है”। जिस दावे से हमारे आसपास के ही बहुत से लोग गर्व महसूस करते हैं। मेरी आज़ादी उसके पास कब-कैसे चली गई, जो उसने मुझी को वापस दे दी। ऐसे सवाल भी वे नहीं समझते। 

विद्या बालन भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री की बेहतरीन अभिनेत्रियों में से एक हैं। लेकिन इस फ़िल्म में शुरू से आखिर तक ओवर एक्टिंग करती लगीं। मुस्कुराहटों का अतिरेक उनके किरदार को सहज नहीं होने देता। फ़िल्म को देखकर लगता है कि हमने एक अच्छी कहानी खो दी। हम उन तमाम औरतों के जीवन में उम्मीद भर सकते थे जो करियर और परिवार को साथ लेकर आगे बढ़ती हैं।

अपनी ही मां पर कानूनी केस करने वाली बेटी अंत के कोई पांच-छह मिनट में नाटकीय तरीके से बदल जाती है। कुछ संवाद आते हैं जब मां-बेटी एक दूसरे को समझते हैं। लेकिन पूरी फ़िल्म जिस तरह से कही गई है आखिर के कुछ संवादों से आप दर्शकों के जेहन में मां-बेटी के पॉजिटिव रिश्ते को रजिस्टर नहीं कर पाते। शकुंतला देवी पूरी फ़िल्म में अपनी मां से नफ़रत करती दिखाई गई। शकुंतला देवी की बेटी अपनी मां से। बिलकुल आखिरी दृश्यों में ये फ़िल्म बताती है कि मां को सिर्फ मां की तरह ही नहीं एक औरत की तरह भी देखा-समझा जाना चाहिए। यही इस फ़िल्म में होना चाहिए था कि शकुंतला देवी को एक औरत की तरह देखा जाता। अगर मां जीनियस है तो वो अपनी बेटी से उम्मीद करेगी कि कभी-कभी उसकी बेटी भी उसे जीनियस की तरह देखे।

बेटी ही बताती है कि किताबों और फिल्मों में पायी जाने वाली मांओं से बिलकुल अलग थी मेरी मां। तो उसने फ़िल्म में ये दिखाने की कोशिश क्यों नहीं की। जब एक औरत बेझिझक जी रही थी, अपनी कद्र कर रही थी, ज़िंदगी को कस के गले लगा रही थी, तो दर्शकों को वो औरत ही फ़िल्म में दिखानी चाहिए। जिसके जैसा बनने की ख़्वाहिश सिर्फ उनकी बेटी को न होती बल्कि देश की सभी बेटियों को होती।

शकुंतला देवी कह सकती है कि जब मैं अमेजिंग हो सकती हूं तो नॉर्मल क्यों बनूं। यही बात कि जब आप एक अमेजिंग औरत की फ़िल्म बना रहे हैं तो इतना नॉर्मल मां का किरदार क्यों बुन डाला।

(वर्षा सिंह, स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत है)

Shakuntala Devi
The Human Computer
Mathematician
Shakuntala Devi Movie
Shakuntala Devi Review
Hindi Movie
bollywood
Vidya Balan

Related Stories

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

ओटीटी से जगी थी आशा, लेकिन यह छोटे फिल्मकारों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा: गिरीश कसारावल्ली

फ़िल्म निर्माताओं की ज़िम्मेदारी इतिहास के प्रति है—द कश्मीर फ़ाइल्स पर जाने-माने निर्देशक श्याम बेनेगल

कलाकार: ‘आप, उत्पल दत्त के बारे में कम जानते हैं’

भाजपा सरकार के प्रचार का जरिया बना बॉलीवुड

तमिल फिल्म उद्योग की राजनीतिक चेतना, बॉलीवुड से अलग क्यों है?

भारतीय सिनेमा के महानायक की स्मृति में विशेष: समाज और संसद में दिलीप कुमार

भारतीय सिनेमा के एक युग का अंत : नहीं रहे हमारे शहज़ादे सलीम, नहीं रहे दिलीप कुमार

शेरनी : दो मादाओं की एक-सी नियति की कहानी

फिल्म प्रमाणन न्यायाधिकरण को समाप्त करने पर फिल्मकारों ने की सरकार की आलोचना


बाकी खबरें

  • fact check
    राज कुमार
    फ़ैक्ट चेकः सूचना एवं लोक संपर्क विभाग के फ़ैक्ट चेक का फ़ैक्ट चेक
    13 Jan 2022
    सूचना एवं लोक संपर्क विभाग का फ़ैक्ट चेक ग़लत और भ्रामक है। इससे एक महत्वपूर्ण सवाल जरूर उठता है कि उत्तर प्रदेश का सूचना एवं लोक संपर्क विभाग भाजपा की आइटी सेल की तरह व्यवहार क्यों कर रहा है?
  • Palestine
    पीपल्स डिस्पैच
    ब्रिटेन: फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ यूज किए जाने वाले हथियार बनाने वाली इज़राइली फ़ैक्ट्री बंद, आगे भी जारी रहेगा अभियान
    13 Jan 2022
    फ़िलिस्तीन एक्शन ग्रुप ने अपने अभियान के हिस्से के रूप में कारखाने पर कब्ज़ा करने, नाकेबंदी करने और तोड़फोड़ करने जैसे प्रत्यक्ष कार्रवाइयों की एक श्रृंखला को अंजाम दिया, जो आख़िरकार इसके बेचने और…
  • CST
    एम. के. भद्रकुमार
    पुतिन ने कज़ाकिस्तान में कलर क्रांति की साज़िश के ख़िलाफ़ रुख कड़ा किया
    13 Jan 2022
    कज़ाकिस्तान की घटनाओं पर अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की नाराज़गी अतार्किक थी।
  • Newsletter
    ट्राईकोंटिनेंटल : सामाजिक शोध संस्थान
    हासिल किया जा सकने वाला स्वास्थ्य का सबसे ऊंचा मानक प्रत्येक मनुष्य का मौलिक अधिकार है
    13 Jan 2022
    कोरोना महामारी की वजह से संयुक्त राज्य अमेरिका ब्राजील और भारत में सबसे अधिक मौतें हुई हैं। इन मौतों के लिए कोरोना महामारी से ज्यादा जिम्मेदार इन देशों का स्वास्थ्य का सिस्टम है। 
  • jammu and kashmir
    अनीस ज़रगर
    जम्मू में जनजातीय परिवारों के घर गिराए जाने के विरोध में प्रदर्शन 
    13 Jan 2022
    पीड़ित परिवार गुज्जर-बकरवाल जनजाति के हैं, जो इस क्षेत्र के सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं। यह समुदाय सदियों से ज्यादातर खानाबदोश चरवाहों के रूप में रहा है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License