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भारत
राजनीति
नागरिकता विधेयक : आख़िर पूरे उत्तर पूर्वी राज्यों में क्यों फैला गया आंदोलन ?
इस विधेयक से पूरे पूर्वी भारत में इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं क्योंकि ये भाषा के ईर्द गिर्द केंद्रित एकता के आधार को नष्ट करना चाहता है।
सुप्रकाश तालुकदार
19 Jan 2019
Citizenship bill

वर्ष 2016 में नागरिकता (संशोधन) विधेयक को लेकर योजना बनाए जाने के बाद से यह साफ हो गया था कि इससे असम में सख्त प्रतिक्रियाएं देखने को मिलेगी। 19 जुलाई 2016 को लोकसभा में विधेयक पेश किए जाने के ठीक बाद असम में आंदोलन शुरू हो गया। इस विधेयक की तत्काल वापसी की मांग को लेकर ये आंदोलन खासकर ब्रह्मपुत्र घाटी में शुरु हुआ। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों और जन संगठनों ने इस विधेयक का खुलकर विरोध किया। राजनीतिक रूप से बीजेपी इस विधेयक के सवाल पर पूरी तरह से अलग-थलग थी जबकि उसकी गठबंधन सहयोगी असोम गण परिषद (एजीपी) ने भी इसे पूरी तरह खारिज कर दिया था।

इस विधेयक पर विचार करने के लिए गठित एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने जब 7-9 मई 2018 को असम का दौरा किया तो बीजेपी के सैद्धांतिक जनक आरएसस के विचारधारा से संचालित कुछ पार्टियों को छोड़ कर लगभग सभी संगठनों ने इस विधेयक को वापस लेने की मांग करते हुए इसकी नुमाइंदगी की। इसको लेकर पूरे राज्य में भारी विरोध प्रदर्शन हुआ। हालांकि यह सच्चाई है कि बराक घाटी के सिलचर में बड़ी संख्या में जिन संगठनों ने नुमाइंदगी की थी उसने इस विधेयक के पक्ष में अपनी राय व्यक्त की। लेकिन असम के इस घटनाक्रम के किसी भी करीबी पर्यवेक्षक स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि पूरे तरीके से ये राज्य इस विधेयक के खिलाफ रहा है।

जब जेपीसी ने शिलांग का दौरा किया तो मेघालय सरकार जहां बीजेपी गठबंधन सरकार की सहयोगी है उसने जेपीसी से इस विधेयक को वापस लेने का आग्रह किया। इसके बाद पूर्वोत्तर की कई राज्य सरकारों ने स्पष्ट किया कि वे इस विधेयक के समर्थन में नहीं हैं। पूरे देश में बीजेपी के सहयोगी दलों शिवसेना, तेलगु देशम पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) ने भी सार्वजनिक रूप से इस विधेयक के ख़िलाफ़ विरोध व्यक्त किया।

लेकिन अपने राजनीतिक और वैचारिक लक्ष्यों के साथ बीजेपी अटल रही। आगामी लोकसभा चुनावों पर नज़र रखते हुए 31 दिसंबर 2018 से एक सप्ताह के भीतर इसने पूरे विपक्षी दलों को बाध्य कर दिया और जेपीसी में अपने बहुमत का इस्तेमाल करते हुए इस विधेयक को लोकसभा में पेश कर दिया। लोकसभा ने इसे 8 जनवरी 2019 को ध्वनि मत से पारित कर दिया। लेकिन रणनीतिक रूप से सरकार ने 9 जनवरी को राज्यसभा में इस विधेयक को पेश नहीं किया जहां इस सरकार का बहुमत नहीं है। इसके बाद बीजेपी नेता विजय गोयल ने राज्यसभा में घोषणा की कि संसद के आगामी बजट सत्र में इसे उच्च सदन में पारित किया जाएगा।

इस विधेयक की प्रतिक्रियाओं को समझने के लिए इस पर नज़र डालना ज़रूरी है:

नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016

नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन करने वाला विधेयक

इसे भारतीय गणतंत्र में 67 वर्ष बाद संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है जो निम्न है-

1. i. इस अधिनियम को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2016 कहा जा सकता है।

ii यह केंद्र सरकार द्वारा आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित होने की तिथि से लागू होगा।

2. नागरिकता अधिनियम, 1955 (इसके बाद से मूल अधिनियम के रूप में व्यक्त किया जाएगा) में निम्नलिखित नियम सम्मिलित किया जाएगा, अर्थात्: -

"अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित व्यक्ति जैसे कि हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा या पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 के खंड 3 की उप-धारा (2) के खंड (सी) या विदेशियों अधिनियम, 1946 के प्रावधानों या इसके तहत किए गए किसी आदेश के लिए आवेदन के तहत छूट दी गई है इस अधिनियम के उद्देश्य के लिए अवैध प्रवासियों के रूप में नहीं माना जाएगा।"

3. मूल अधिनियम के खंड 7 डी के खंड (डी) के अनुसार निम्नलिखित खंड को शामिल किया जाएगा, अर्थात्: -

" भारत के ओवरसीज सिटीजन कार्डधारक ने इस अधिनियम के किसी भी प्रावधान या किसी अन्य क़ानून के प्रावधानों का उल्लंघन किया है। या "

4. मूल अधिनियम के तीसरी अनुसूची के खंड (डी) में निम्नलिखित नियम सम्मिलित किया जाएगा, अर्थात्: -

'अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों जैसे कि हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई से संबंधित व्यक्तियों के लिए इस खंड के तहत भारत में सरकार की सेवा या निवास की कुल अवधि इस खंड की आवश्यकता के अनुसार होगी जो इस तरह पढ़ा जाएगा "ग्यारह वर्ष से कम नहीं" के स्थान पर "छह वर्ष से कम नहीं"।

इस विधेयक का विरोध क्यों?

समझने के लिए इस विधेयक पर नज़र डालने से पता चलता है कि ये विधेयक संविधान की मूल भावना के विपरीत है जो अपने स्वभाव में धर्मनिरपेक्ष होने के नाते किसी को भी धर्म के दृष्टिकोण से नागरिकता के सवाल पर विचार करने की अनुमति नहीं देता है। संविधान के स्वभाव से बुनियादी सिद्धांत को हटाते हुए ये विधेयक अपनी धार्मिक पहचान के आधार पर नागरिकता के लिए अनुरूप अवैध प्रवासियों के एक निश्चित वर्ग पर विचार करना चाहता है। संसद द्वारा पारित होने के बाद यह विधेयक बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सभी गैर-मुस्लिम प्रवासियों को भारतीय नागरिकता के योग्य मानेगा।

दूसरा ये कि यह 1985 के असम समझौते के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाला प्रस्ताव है जो अवैध रूप से प्रवेश करने वाले विदेशियों का पता लगाने के लिए समय सीमा निर्धारित करता है। जो लोग असम के हालिया इतिहास को करीब से देखते हैं वे जानते हैं कि 1979-1985 के दौरान असम में 1951 के बाद बांग्लादेश (तब का पूर्वी पाकिस्तान) से असम में प्रवेश किए अवैध प्रवासियों का पता लगाने और निर्वासन के लिए असम में एक बड़ा आंदोलन हुआ था। राज्य के लोकतांत्रिक वर्गों के साथ वामपंथी ताक़तों ने इस मांग का विरोध किया और उनका इस बात पर दृढ़ मत था कि विदेशियों का पता लगाने की निर्धारित तारीख़ 24 मार्च 1971 होनी चाहिए क्योंकि 1971 में बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश के रूप में बना था। इसके बाद वामपंथियों पर काफी हमले हुए। इसके परिणाम स्वरूप सिर्फ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) ने अपने 48 साथियों को गंवा दिया।

आख़िर में असम आंदोलन के नेताओं, असम सरकार के प्रतिनिधियों तथा केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के बीच 15 अगस्त 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जहां 24 मार्च 1971 निश्चित तारीख़ पर सहमति बनी। इसे 16 अगस्त 1985 को संसद के समक्ष रखा गया था। इस तिथि के आधार पर संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन किया और खंड 6 (ए) इसमें जोड़ा गया जो 7 दिसंबर 1985 से प्रभावी हो गया। इस खंड में कहा गया है कि वे सभी जो 25 मार्च, 1971से पहले विशिष्ट क्षेत्र (अर्थात पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश है) से 1 जनवरी, 1966 को या बाद में असम में प्रवेश कर चुके हैं और आमतौर पर असम के निवासी रहे हैं उन्हें कुछ शर्तों के साथ भारतीय नागरिकता दी जाएगी। नागरिकता विधेयक 2016 के प्रस्तावित अधिनियम से असम समझौते और नागरिकता अधिनियम 1955 के प्रावधानों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन किया जाएगा।

तीसरा यह कि ये विधेयक अगर पारित हो जाता है तो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) को अपडेट करने का काम निरर्थक हो जाएगा। देश के एकमात्र राज्य असम में एनआरसी है जो स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 1951 में तैयार किया गया था। अब इसे सुप्रीम कोर्ट की निगरानी और निर्देश में अपडेट किया जा रहा है। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतें मुख्य रूप से दो कारणों से इसका समर्थन कर रही हैं- (i) एनआरसी अगर 24 मार्च 1971 की निश्चित तारीख़ के आधार पर अपडेट किया जाता है तो सीमा पार अनियंत्रित घुसपैठ को लेकर असमिया और आदिवासी की शंकाओं को दूर करेगा। (ii) अगर सभी भारतीयों को नए एनआरसी में शामिल किया जाता है तो धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को उन पर बांग्लादेशी होने के ठप्पे से उत्पीड़न और अपमान से उन्हें बचाया जाएगा।

चौथा ये कि ये विधेयक निश्चित रूप से सीमा पार से घुसपैठ को प्रोत्साहित करेगा जिसका असम के सामाजिक-सांस्कृतिक, जनसांख्यिकीय और राजनीतिक क्षेत्रों और उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

परिणाम

केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार बनने के बाद से असम जल रहा है और राज्य ने नागरिकता विधेयक पारित करने का फैसला किया है। समाज के सभी वर्गों के लोग सड़कों पर हैं। बीजेपी राजनीतिक रूप से अलग-थलग हो गई है क्योंकि एजीपी ने गठबंधन से नाता तोड़ लिया है। आंदोलन अब पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में फैल गया है।

ये विधेयक बीजेपी द्वारा हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को वैध बनाने की एक सुनियोजित रणनीति है जहां नागरिकता के सवाल पर भी मुसलमानों के साथ भेदभाव होगा। पूरे पूर्वी भारत में इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं जो विभिन्न देश और राष्ट्रीयता की भाषा के ईर्द गिर्द केंद्रित एकता के आधार को नष्ट करने का प्रयास करता है और धर्म के आधार पर तथाकथित सांस्कृतिक एकता द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये विधेयक अगर क़ानून बन जाता है तो देश की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संरचना को कमज़ोर करते हुए यह पूर्वोत्तर में एकता और शांति को नुकसान पहुंचाएगा। बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के नेताओं की जहां तक बात है तो इस विधेयक से वहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर फिर से हमले हो सकते हैं और इसके परिणामस्वरूप भारत और बांग्लादेश के बीच रिश्ते तनावपूर्ण हो सकते हैं।

(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और लेफ्ट डेमोक्रेटिक मंच के सदस्य हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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