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शिक्षा
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नीति आलोचना की आड़ में निजी हित!
गीता गांधी अपनी सोच में बच्चों को केन्द्र में न रखने की बड़ी भूल करती हैं और उन्हें पढ़ने का समान मौका मिले इसके लिए न्याय, बराबरी, गुणवत्ता, पहुंच व खर्च जैसे मुद्दों को नजरअंदाज करती हैं।
संदीप पाण्डेय, प्रवीण श्रीवास्तव
03 Aug 2019
school students
Representational Image. Image Courtesy: Hindustan Times

गीता गांधी किंग्डन, जो यूनिवर्सिटी कालेज, लंदन में प्रोफेसर और लखनऊ के सिटी मांटेसरी स्कूल की प्रबंधक हैं,ने हाल ही में नई शिक्षा नीति की आलोचना की है जो 24 जून, 2019 को अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इण्डिया में छपी है। उन्होंने विद्यालय व शिक्षकों की जवाबदेही में कमी को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई की दुर्दशा का मुख्य कारण माना है। वे अभिभावकों को सीधे आर्थिक मदद देने के पक्ष में है ताकि वे विद्यालयों को अपने प्रति जवाबदेह बना सकें।

गीता गांधी प्राथमिक विद्यालय के स्तर पर छात्र-शिक्षक के शाही अनुपात 12 तथा प्रत्येक बच्चे पर शिक्षकों के वेतन का 51,917 रुपये बोझ पड़ने की वजह से मानती हैं कि सरकार को सरकारी विद्यालयों का बजट नहीं बढ़ाना चाहिए। वे निश्चित तौर पर सरकरी विद्यालयों की अपेक्षा निजी विद्यालयों को बढ़ावा दे रही हैं जो समझा जा सकता है क्योंकि वे लखनऊ के सबसे बड़ी निजी विद्यालयों की श्रृंखला सिटी मांटेसरी स्कूल,जिसकी शहर में 17 शाखाएं हैं, की अध्यक्षा हैं। किंतु एक प्रोफेसर के रूप में उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे जनहित में अपनी राय रखेंगी। उनकी दोनों भूमिकाओं में विरोधाभास है।

लाभार्थी को सीधे धन हस्तांतरण कर देने को एक आकर्षक विकल्प माना जा रहा है क्योंकि कुछ योजनाओं में ऐसा कर केन्द्र सरकार प्रचार कर रही है कि इससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। किंतु क्या प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में यह तरीका अपनाया जा सकता है? वर्ष 2018 में पूर्वी दिल्ली में 800 निम्न आय वाले परिवारों में किए गए अध्ययन से यह पता चलता है कि सीधे धन हस्तांतरण से बच्चों के सीखने के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं अथवा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। पूर्व में हुए अध्ययनों में भी इस किस्म के परिणाम सामने आए हैं। गीता गांधी का सुझाव कमज़ोर है क्योंकि वह आस-पास के सामाजिक-आर्थिक हालात को नज़रअंदाज करता है। हमारी प्राथमिक शिक्षा की समस्या यह है कि हमने विभिन्न पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्था की है, यानी बच्चों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर हम शिक्षा में भेदभाव करते हैं।

गीता गांधी अपनी सोच में बच्चों को केन्द्र में न रखने की बड़ी भूल करती हैं और उन्हें पढ़ने का समान मौका मिले इसके लिए न्याय, बराबरी, गुणवत्ता, पहुंच व खर्च जैसे मुद्दों को नजरअंदाज करती हैं। वे और राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी यह बात बताना भूल गई कि पूरी दुनिया में प्राथमिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण हेतु एक ही तरीका सफल रहा है और वह है समान शिक्षा प्रणाली जिसके तहत सरकार ही विद्यालय संचालित करती है, उसका वित्तीय पोषण करती है तथा उसका नियमन भी करती है।

भारत में 1968 में कोठारी आयोग द्वारा समान शिक्षा प्रणाली को लागू करने की सिफारिश की गई थी। गीता गांधी का मानना है कि सरकार ही सारी भूमिकाएं - नीति निर्माता,संचालनकर्ता, मूल्यांकनकर्ता, नियमनकर्ता - नहीं निभा सकती। किंतु यही सरकार केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय अथवा उच्च शिक्षा के स्तर पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय व भारतीय विज्ञान शिक्षा शोध संस्थान जैसे अच्छी गुणवत्ता वाले शैक्षणिक संस्थानों का संचालन तो करती ही है। अतः एक भ्रमित करने वाले तर्क के माध्यम से वे सरकारी विद्यालयों को कमतर साबित करना चाह रही हैं। अभी भी 65 प्रतिशत बच्चे सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ रहे हैं।

एक ऐसा समाधान प्रस्तुत करना जिसमें ऐसे अभिभावकों जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भर्ती करने को तैयार हों, को ही ध्यान में रखा जाए, विभिन्न स्तरों पर अपरिपक्व साबित होगा। निजी विद्यालयों, जो सिर्फ सम्पन्न अभिभावकों को सेवा प्रदान करते हैं, के हितों को संरक्षण देने की उनकी मंशा पर सवाल भी खड़ा होता है। जबकि सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा के लिए सीधे निजी विद्यालयों को दोषी ठहराया जा सकता है क्योंकि इनकी वजह से समाज के शासक वर्ग ने अपने बच्चों को सरकारी से निजी विद्यालयों में स्थानांतरित कर दिया है।

एक अन्य तथ्य जिसका जिक्र न तो गीता गांधी करती हैं और न ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति वह है 2015 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला जिसमें न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने आदेश दिए हैं कि सभी सरकारी वेतन पाने वालों के बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालय में ही पढ़ें और जो अपने बच्चों को निजी विद्यालय में पढ़ाना चाहें वे जितना खर्च अपने बच्चे की पढ़ाई पर कर रहे हैं उतना धन जुर्माने के रूप में सरकारी खाते में जमा करा दें। उत्तर प्रदेश सरकार भी इस निर्णय के प्रति अनभिज्ञता जाहिर करती है लेकिन यह आदेश समान शिक्षा प्रणाली की दिशा में एक कदम हो सकता है और गीता गांधी जिस सरकारी विद्यालयों का दुर्दशा की बात कर रही हैं उसका समाधान भी हो सकता है। किंतु इससे उनके यहां पढ़ने वाले कुछ बच्चे निकल जाएंगे। 

उत्तर भारत के शहर के कुछ संभ्रांत वर्ग के विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर ग्रामीण विद्यालयों में व्यापक पैमाने पर नकल की परम्परा है। बच्चे कुछ पैसे के बदले बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं जो विद्यालय प्रबंधन व शिक्षा विभाग के अधिकारियों में बंट जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी बड़े पैमाने पर नकल की बात को नज़रअंदाज किया गया है और इसका कोई समाधान नहीं सुझाया गया है।

गीता गांधी सीधे लाभार्थी के खाते में पैसे हस्तांतरण की पक्षधर हैं तो फिर शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 12(1)(ग) के तहत कक्षा 1 से 8 तक निःशुल्क शिक्षा के लिए वे अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के न्यूनतम 25प्रतिशत बच्चों का दाखिला क्यों नहीं लेतीं जिनकी शुल्क प्रतिपूर्ति सरकार सीधे विद्यालय के खाते में करती है?सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर बच्चों एवं उनके विद्यालयों के बंटवारे को समाप्त करने के लिए शिक्षा के अधिकार अधिनियम में प्रारम्भिक स्तर पर यह प्रावधान किया गया है।

सिटी मांटेसरी स्कूल में अधिनियम की उक्त धारा के तहत 2015-16, 2016-17, 2017-18 व 2018-19 में क्रमशः जिन 31, 55, 296 व 270 बच्चों के दाखिले का आदेश बेसिक शिक्षा विभाग से हुआ था उसमें से 2015-16 में न्यायालय के आदेश से 13 व 2018-19में विद्यालय ने दो बच्चों का दाखिला अपने से लिया। यानी जितने बच्चों के दाखिले का आदेश शिक्षा विभाग ने किया था उसमें से 2.3 प्रतिशत बच्चों का ही दाखिला हुआ। उपर्युक्त दाखिलों के आदेश की संख्या न्यूनतम 25प्रतिशत के आस-पास भी नहीं है। और गीता गांधी सरकारी विद्यालयों की जवाबदारी में कमी की बात करती हैं! यदि सिटी मांटेसरी स्कूल में उपर्युक्त सभी दाखिले लिए गए होते तो 2018-19 में उसे सरकार से बच्चों के शुल्क प्रतिपूर्ति के रूप में सीधे 35,20,800 रुपये प्राप्त होते। जाहिर है कि सिटी मांटेसरी स्कूल की रुचि सिर्फ सीधे पैसों के हस्तांतरण में नहीं है। वह नहीं चाहता कि गरीबों के बच्चे अमीरों के बच्चों के साथ बैठकर पढ़ें। यह सीधा सीधा समाज में भेदभाव को बनाए रखने का मामला है।

सिटी मांटेसरी स्कूल के अन्य भी उदाहरण हैं जिसमें जवाबदेही में कमी साफ साफ झलकती है। ऐसी भी शिकायतें हैं कि इसकी कुछ शाखाओं के भवन अवैध रूप से कब्जा कर बनाए गए हैं जिनके पास न तो राजस्व विभाग का भूमि प्रमाण पत्र है व न ही शिक्षा विभाग का अनापत्ति प्रमाण पत्र। इंदिरा नगर एवं महानगर शाखाओं के भवनों के खिलाफ लम्बित ध्वस्तीकरण आदेश हैं तथा जॉपलिंग रोड शाखा के भवन पर 25 वर्षों से ज्यादा लम्बे समय से मुकदमा चल रहा है। रिपोर्ट है कि चौक शाखा से एक अवैध बैंक चलाया जा रहा था जिसमें 12-13प्रतिशत ब्याज पर पैसा जमा कराया जाता था।

सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता एक चिंता का विषय होगी किंतु निजी विद्यालयों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण कई बार बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसा भी आरोप सामने आया कि गोमती नगर शाखा की कक्षा 9 की एक लड़की अस्मि यादव ने 9 फरवरी 2019 को सिटी मांटेसरी स्कूल की एक शिक्षिका द्वारा उत्पीड़न किए जाने की वजह से आत्महत्या कर ली। निजी विद्यालयों में घोर प्रतिस्पर्धा का कारण इन विद्यालयों में निजी कोचिंग संस्थानों की घुसपैठ भी है और सिटी मांटेसरी स्कूल इससे अछूता नहीं रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कोचिंग संस्थानों के प्रकोप का भी कोई समाधान प्रस्तावित नहीं किया गया है।

शायद ही कोई सरकारी विद्यालय होगा जो इतने सारे नियमों-कानूनों का उल्लंघन कर चलता होगा जितनी कि सिटी मांटेसरी स्कूल की शाखाएं।

भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 4.6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है जबकि वैश्विक पैमाना, खासकर जिन देशों ने प्राथमिक शिक्षा का लोकव्यापीकरण हासिल कर लिया है, और कोठारी आयोग की सिफारिश भी 6प्रतिशत खर्च की थी। अतः सरकार द्वारा शिक्षा पर खर्च को न बढ़ाने का सुझाव देना गरीब आबादी, खासकर ग्रामीण इलाकों की, के एक बड़े हिस्से को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा या किसी भी प्रकार की शिक्षा से वंचित रखने की साजिश है। छात्र-शिक्षक अनुपात या प्रति बच्चा शिक्षक के वेतन पर खर्च के औसत आंकड़़े प्रस्तुत कर गीता गांधी बड़ी संख्या में ऐसे विद्यालयों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही हैं जहां शायद एक ही शिक्षक शिक्षा के अधिकार अधिनियम के मुताबिक छात्र-शिक्षक अनुपात का उल्लंघन करते हुए पूरा विद्यालय सम्भाल रहा हो।

एक शोधकर्ता की आड़ में गीता गांधी द्वारा ऐसी अवधारणा का बचाव करना जो बहुत कमजोर धरातल पर खड़ी हो का प्रयास औंधे मुंह गिरा है। वे सैद्धांतिक रूप से एक ही समय में लंदन, जहां वह प्रोफसर हैं, और लखनऊ,जहां वह एक निजी विद्यालय की मालकिन हैं, में नहीं रह सकतीं।

(संदीप पाण्डेय एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और प्रवीण लखनऊ के क्वींस कालेज में शिक्षक। इस लेख में भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद के शोधकर्ता ईशु गुप्ता ने महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। इस लेख में लगाए गए किसी भी आरोप की न्यूज़क्लिक स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं करता है। आलेख में व्यक्त विचार लेखकों के निजी विचार हैं।) 

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