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‘नीति निर्माताओं को कृषि पर ध्यान देना चाहिए, इसके साथ ख़ैरात जैसा बर्ताव नहीं करना चाहिए’
भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रोनब सेन इंडिया प्रोग्राम ऑफ द इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर के कंट्री डायरेक्टर हैं। न्यूज़क्लिक के साथ एक साक्षात्कार में वे मध्य वर्ग की अदूरदर्शिता के बारे में बताते हैं। साथ ही उनका कहना है कि जब तक कृषि संकट का समाधान नहीं किया जाता है सरकार के हालिया आर्थिक उपायों से अर्थव्यवस्था के समग्र दिशा में परिवर्तन नहीं होगा।
प्रज्ञा सिंह
30 Aug 2019
Policy Makers
Pronab Sen

सरकार द्वारा हाल ही में घोषित किए गए ‘पैकेजों से अर्थव्यवस्था पर क्या कोई फ़र्क पड़ेगा?

कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। ये योजनाएं विशेष रूप से बैंक री-कैपिटलाइजेशन काफी समय से लंबित हैं। शायद हम काफी परेशानी में थे और अब हम वापस शून्य पर हैं; जो शुरुआत में है जहां से हम काफी परेशानी में आ गए। इसलिए हालिया घोषणाओं से फ़र्क नहीं पड़ा है।

ठीक उसी तरह जैसे वार्षिक बजट के बाद ख़ासकर मध्य वर्ग में खुशी की लहर होती है। नई जीडीपी विकास दर, निम्न राजकोषीय घाटा को लेकर चर्चा है …

मुझे नहीं लगता कि पूरा मध्य वर्ग बहुत ज़्यादा खुश है। मध्य वर्ग के कम से कम दो भाग होते हैं; पुराने मध्य वर्ग के लोग जो हमेशा उस वर्ग में रहे हैं। बहुत बड़ा वर्ग उन लोगों का है जो अब मध्यम वर्ग की तरफ जा रहे हैं। हम उन्हें निम्न-मध्य वर्ग कहते हैं, लेकिन उनमें वे शामिल होते हैं जो मध्य वर्ग में शामिल हो रहे हैं और फिर इसके उच्च वर्गों में प्रवेश कर रहे हैं। यह एक बड़ा वर्ग है जो [आर्थिक] डिस्कोर्स का बड़ा संचालक रहा है। वास्तव में यह आकांक्षी वर्ग है। उनका डिस्कोर्स वास्तव में काफी मायने रखता है।

ये डिस्कोर्स भारत के लिए काफी मायने रखता है क्योंकि ख़ासकर जीडीपी वृद्धि, मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटे को लेकर भारत का जुनून है।

नब्बे के दशक की शुरुआत तक मध्य वर्ग वास्तव में धीरे-धीरे बढ़ता गया जिसके बाद इसमें तेज़ी आई। 2002 या इसके आस पास वास्तव में इसमें काफी वृद्धि हो गई। इन लोगों के लिए जीडीपी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था के आकार को परिभाषित करता है जिसके वे इच्छुक रहे हैं। लेकिन ऐसा इसलिए भी था क्योंकि रोज़गार को जीडीपी से जोड़ा जाता था। जीडीपी रोज़गार के अवसरों के लिए प्रॉक्सी बन गया। याद रहे मध्यम वर्ग की विशेषता यह है कि वह अपने से ज़्यादा अपने बच्चों के आर्थिक विकास के बारे में सोचते हैं। पुराने मध्य वर्ग भी ऐसा ही सोचते हैं। वे अपने बच्चों के लिए अपने स्वयं के मुकाबले आर्थिक स्तर को बेहतर करने की आकांक्षा रखते हैं।

जीडीपी वृद्धि और रोज़गार के अवसरों के बीच संबंध क्यों जोड़ें?

यह स्थापित किया गया है कि जब आय बढ़ रही है तो संभवतः नौकरियां बढ़ रही हैं। चूंकि नौकरी का डेटा पांच साल बाद आएगा, इसलिए वास्तव में कोई नहीं जानता था। फिर भी, इस संबंध ने काम किया। 2002-2011 के उच्च विकास की अवधि में विकास और नौकरियों के बीच काफी अच्छा संबंध प्रतीत होता है। जब नौकरी की उम्मीदें काफी सकारात्मक हो गईं तो लोग खुश थे। लेकिन कॉर्पोरेट इंडिया लगातार प्रौद्योगिकी उन्नयन और अधिक पूंजी-समेकित उत्पादन विधियों की ओर बढ़ रहा है। इस प्रकार जीडीपी वृद्धि और रोज़गार के बीच की कड़ी लगातार कमज़ोर हो रही है। इसे अभी भी शामिल नहीं किया गया है। वे देख सकते हैं कि नौकरी के अवसर आस-पास नहीं दिखते हैं, ऐसा लगता है कि उनके बच्चों को उस तरह की नौकरियां नहीं मिल रही हैं [जिसकी उन्हें उम्मीद है]। यही कारण है कि काफी चिंता बनी हुई है।

मध्यम वर्ग के डिस्कोर्स, मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटा में अन्य तत्वों के बारे में बताएं?

मुद्रास्फीति भारत में हमेशा चिंता का कारण रही है। सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक की शुरुआत में हमारे अध्ययन ने सुझाव दिया था कि भारतीय जनता की मुद्रास्फीति की सीमा लगभग 6% थी।

क्या यह अभी भी मान्य होगा?

हां, 5 से 6% मुद्रास्फीति अभी भी कम्फर्ट ज़ोन है। चूंकि आम तौर पर आय 5-6% सालाना बढ़ती है तो उसी परिमाण की मुद्रास्फीति को आय के रूप में नहीं देखा जाता है। 2004 से 2013 के बीच खाद्य स्फीति दोहरे अंक के साथ जब मुद्रास्फिति 9-10% पर थी तो यह एक मुद्दा बन गया। क्योंकि यह मानते हैं  कि निजी निवेश से विकास बढ़ता है जिसके चलते राजकोषीय घाटा महत्वपूर्ण माना जाता था, तब यह घाटा निजी निवेश के लिए उपलब्ध बचत को बाधित करेगा। सरकार जो ख़र्च करना चाहती है उस खर्च को कम करने को राजकोषीय घाटे के रुप में देखा जाता है।

लेकिन यहां एक दुविधा है। ग़रीबों को सहायता करने के लिए काफी पैसा जो सरकार ख़र्च करती है नैतिक गुण से इतर मध्यम वर्ग इसमें कोई भलाई नहीं देखता है। जहां तक उनका संबंध है, यह ख़र्च कोई मायने नहीं रखता क्योंकि वे अदूरदर्शी है। यह अंततः मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं के साथ जुड़ा है जो अगली पीढ़ी के लिए भी है। वे क़ीमत और घाटा को कम रखने को विकास मानते हैं। इसी तरह की चर्चा है जो आप हर जगह देखते हैं।

जीडीपी वृद्धि 7%, राजकोषीय घाटा निम्न और मुद्रास्फीति 3% के बावजूद मध्यम वर्ग अभी भी नाख़ुश क्यों है?

परेशानी यह है कि अर्थशास्त्री वास्तव में जटिलताओं की व्याख्या किए बिना जीडीपी वृद्धि या मुद्रास्फीति जैसी सरल औसत दर्जे की चीजों की ही व्याख्या करते हैं। मध्यम वर्ग बहुत ख़ुश नहीं है और अर्थशास्त्र की जटिलता यहां होती है। मध्य वर्ग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले किसान और लोगों को नज़रअंदाज़ कर सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि जीडीपी वृद्धि जो वे चाहते हैं उसे उत्पादन के साथ गति में वृद्धि की मांग की ज़रुरत है। अगर आप सिर्फ सूची की पड़ताल करते हैं तो आप नुकसान में होंगे और दुकान बंद कर देंगे।

क्या है जो अब हो रहा है ...?

हां। यह मांग कहां से आएगी? इसकी उच्च आय के साथ मध्यम वर्ग से इसका एक हिस्सा है लेकिन यह भारत की आबादी का केवल 20 से 25% है। इसके नीचे 75-80% आबादी है जिनमें से 40% कृषि क्षेत्र में हैं। यह आपका उपभोक्ता वर्ग है। आप जो उत्पादन कर रहे हैं उसकी खपत के लिए इन लोगों की आय बढ़ाना होगा। इसके बिना आपकी वृद्धि कम हो जाएगी क्योंकि आप अपने उत्पादों को बेचने में सक्षम नहीं होंगे।

क्या यही वजह है कि मारुति की स्थिति अच्छी नहीं है?

मारुति बहुत तेज़ी से विकास कर रही थी लेकिन मारुति के विकास की संरचना इंट्री-लेवल की मारुति 800 मॉडल नहीं थी। इसकी ग्रोथ स्विफ्ट और डिजायर मॉडल से हुई जिसकी क़ीमत 2 से 4 लाख रुपये अधिक है। सबसे पहले मौजूदा मध्यम वर्ग कार ख़रीद रहा था लेकिन कार रखने वालों की संख्या में नए लोगों का प्रवेश धीमा हो गया। अब, हम ऐसी स्थिति में हैं जहां अभी भी कोई नई कार का ख़रीदार नहीं हैं जबकि मौजूदा मध्य वर्ग भरा पड़ा है।

पांच साल पहले कार ख़रीदने वालों को कार अपग्रेड करने या बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए?

हां, लेकिन सोचें कि क्या हो रहा है: कार कंपनियां 7-8% विकास कर रही थीं और फिर अचानक 20% तक बढ़ गई। अब यह 20% प्रतिस्थापन से आता है। यह अभी भी 7-8% पर है। यही कारण है कि ये शीर्ष स्तर नष्ट हो गई है। 2008 और 2012 के बीच उन्होंने उत्पादन बढ़ाया। तब बाज़ार की हिस्सेदारी को हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। अब यह फिर सामान्य हो गया है।

क्या भारतीयों ने कार ख़रीदने वाले सेगमेंट के आकार और क्रय शक्ति को ज़्यादा आंका?

मुझे नहीं लगता कि हमने इसके बारे में सोचा। हमने यह मान लिया कि खपत में बढ़ोतरी जारी थी जैसा कि 2002 और 2011 के बीच हुआ था। और हमने यह ख़्याल किया कि ऐसा तब भी हो रहा है जब यह नहीं था। दरअसल, यह कमी का सबसे बड़ा संकेत है जो किसानों के साथ हो रहा है। कृषि क्षेत्र का जीडीपी में केवल 16% हिस्सा है लेकिन इसमें कुल आबादी का 40% भाग शामिल है और यह कुल खपत का लगभग 45% का योगदान देता है। कृषि क्षेत्र अपने आप में छोटा है लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यह ग़ैर-कृषि सेक्टर एक पूरी श्रृंखला को सहायता करता है जो पूरी तरह से इस पर निर्भर है।

40% लोगों को राष्ट्रीय आय के 16% हिस्से से सहायता मिलने का मतलब है कि इस 40% लोगों का जीवन स्तर काफी निम्न है।

हां, यह बड़ी समस्या है; लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यह वर्ग अपनी आय का बहुत ज़्यादा हिस्सा ख़र्च करता है। उनकी बचत बहुत कम होती है यानी कि आय का लगभग 5% बचत कर पाते हैं जबकि मध्यम वर्ग की बचत आय का 35% है। कृषि में संकट के सबसे स्पष्ट और सबसे अधिक दिखाई देने वाले संकेत दिख रहे हैं, क्योंकि यही वह जगह है जहां कीमतें सबसे अधिक लचीली हैं - आप कृषि की क़ीमतों में गिरावट देख सकते हैं। फिर भी संकट अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों में भी मौजूद है। यह आंशिक रूप से कृषि की समस्याओं के कारण है जिस पर बड़ी मात्रा में अनौपचारिक क्षेत्र निर्भर करता है। और कृषि भारी संख्या में लोग लगे हुए हैं। सभी परेशान हैं। तो परेशानी का ये स्तर 40% नहीं है बल्कि कृषि पर निर्भर लोगों की आय को शामिल करने पर यह शायद आबादी का 60-65% है।

चुनाव परिणामों में संकट का कोई संकेत नहीं है ...

यह वास्तव में काफी आश्चर्यजनक है। स्पष्ट रूप से भारतीय नहीं सोचते कि अर्थशास्त्र इतना महत्वपूर्ण है।

ठीक है, लेकिन एक तरीका है जिससे लोग आर्थिक संबंध बना रहे हैं और वह है सरकारी नौकरियों की मांग।

सरकारी नौकरियों की इच्छा पहले बड़ी मध्यम वर्गीय चीज हुआ करती थी। 2000 के दशक में सरकारी नौकरियां निजी क्षेत्र की नौकरियों की तुलना में उनके लिए कम आकर्षक हो गईं। अब चीजें फिर से बदल रही है - लोग फिर से सरकारी नौकरी की मांग कर रहे हैं। यह भी संकट का संकेत है।

क्या ऐसा हमेशा होता है?

यह हमेशा संकट का संकेत है। साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में ऐसा ही था। यह फिर से वापस आ गया है।

आप जो कह रहे हैं वह ये कि मध्यम वर्ग के अलावा अन्य वर्गों के लिए स्थिति ख़राब है?

हम जो विकास देख रहे हैं वह केवल मध्य वर्ग द्वारा हासिल किया जा रहा है। निचले स्तर पर विकास नहीं है। यही वह जगह है जहां परेशानी मौजूद है। [पुराने] मध्यम वर्ग की आय ठीक है। समस्याएं उनके बच्चों की संभावनाओं को लेकर है। वे बेहतर नहीं हैं। पुराने मध्यम वर्ग में अनिश्चितता का स्तर बढ़ गया है चूंकि कुल मिलाकर मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या बढ़ी है क्योंकि नौकरियों के लिए जो प्रतिस्पर्धा थी वह काफी बढ़ गई है।

पहली असुरक्षा यह है कि पैसा बहुत जल्दी ख़त्म हो जाता है जब आप नहीं कमा रहे होते हैं और आप अगली पीढ़ी के लिए अधिक चाहते हैं। बहुत जल्दी, हां।

अनिश्चितता के समय में मध्यम वर्ग को क्या करना चाहिए? क्या वास्तव में बचत दर कम हो रही है?

वास्तव में इस तरह की स्थिति में आपको वास्तव में अधिक बचत करना चाहिए और हर चीज़ पर विशेष रूप से ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों पर कम ख़र्च करना चाहिए।

आप आवश्यक वस्तुओं को कैसे परिभाषित करते हैं?

निश्चित तौर पर यह मुद्दा है। आय के सोपान पर जब आप जाते हैं तो आवश्यक वस्तुओं की परिभाषा बदलती है। इस पर सिद्धांत काफी सरल है: अगर आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवधान होता है तो घरवाले पहले अपने ख़र्च को कम करने की कोशिश करेंगे। वे अपने जीवन शैली को बरक़रार रखते हैं और बचत में कटौती करते हैं। हालांकि, अगर ऐसा प्रतीत होता है मानो कि परेशानी आने वाली है तो खपत फिर कम कर दी जाती है। इस स्तर पर क्षतिपूर्ति ज़्यादा है क्योंकि तब लोगों को लगता है कि उन्हें भविष्य के लिए और अधिक बचत करने की आवश्यकता है। इसलिए लोगों को जो उनकी आमदनी ख़र्च करने की इजाज़त देती है उससे नीचे नहीं जाते हैं लेकिन बचत करने के लिए वे आमदनी से कम ख़र्च करते हैं।

क्या इसीलिए 5 रुपये वाला बिस्किट का पैकेट नहीं बिक रहा है?

हां। कोई भी पैसा जो आप ख़र्च नहीं करने का फैसला करते हैं तो आप इसका आप क्या करते हैं, आप इसका बचत करते हैं। लेकिन आप यह नहीं कहेंगे कि 'ठीक है, मैं इन पांच रुपयों को बचाता हूं और एक कार ख़रीदता हूं।'

ऐसा होने की संभावना नहीं है।

इसलिए, दैनिक उपभोग के वस्तुओं की कभी कटौती नहीं होती है। लगभग बिल्कुल नहीं। एपिसोडिक कंजम्पशन जैसे कि टिकाऊ वस्तुओं (कार, टीवी आदि) को आप वास्तव में टाल देते हैं। या इसके लिए क़र्ज़ लेते हैं। लेकिन आप क़र्ज़ लेते हैं या नहीं यह आपकी उस उम्मीद पर निर्भर करता है कि आपकी आय फिर से बढ़ने वाली है।

क्या मौजूदा क़र्ज़ में भरोसा दिखता है?

नहीं, यह हताशा व्यक्त करता है। आप देखिए, भारत में नोटबंदी को लेकर बहुत सी घटनाएं हुई हैं।

नोटबंदी वाले वर्ष नवंबर के बाद अगली तिमाही में वृद्धि में काफी उछाल आई थी।

थोड़ी मंदी थी और फिर अगली तिमाही में यह 8% या इससे अधिक हो गई। अनिवार्य रूप से दो चीजों ने इसमें योगदान दिया। सबसे पहले लोगों ने अपने उपभोग की वस्तुओं यहां तक कि रोज़मर्रा की चीज़ों को स्थानीय विक्रेताओं के बदले संगठित क्षेत्र से लिया जो चेक और क्रेडिट कार्ड लेने के लिए तैयार थे। इसलिए कॉर्पोरेट क्षेत्र के उत्पादों की मांग में वास्तव में असाधारण वृद्धि हुई। दूसरी चीज़ यह है कि नोटबंदी के बाद दो साल में परिवारों ने क़र्ज़ लिया। 2017-18 और 2018-19 में घरेलू क़र्ज़ दोगुनी हो गई। इसके अलावा, सिर्फ मध्य वर्ग ही नहीं है जो नोटबंदी की चपेट में आया था। सभी उपभोक्ता इसकी चपेट में थे। लेकिन हर किसी के पास अपने बैंक खातों में डालने के लिए पैसे नहीं थे। जिनके पास पैसा था उनकी समस्या यह थी कि वे पैसे नहीं निकाल पा रहे थे। केवल वे लोग जिनके पास कार्ड थे वे निकाल पा रहे थे और बाकी क़र्ज़ ले रहे थे।

उपभोग को कैसे बढ़ाया जाए?

'पीएम किसान' एक रास्ता है। यह एक छोटा सा योगदान है लेकिन यह योगदान तो ज़रुर है। एक और बुनियादी चीज कृषि बाज़ारों को ठीक करना है। आज, कृषि क़ीमतें बिल्कुल ही कुछ नहीं है। वे नकारात्मक स्थिति में थे और अब वे 1-1.5% के बीच झूल रहे हैं।

कृषि आय कम रखी जा रही है ताकि मध्यम वर्ग ख़रीद सके...

यह अदूरदर्शिता है। भारतीय मध्य वर्ग अपने कुल ख़र्च का केवल 15-16% ख़र्च करता है। इसलिए, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 40% अनिवार्य रूप से ग़रीबों के उपभोग की ज़रूरतों से आ रहे हैं न कि निर्दयी मध्यम वर्ग से। इस तरह, भले ही मध्यम वर्ग के खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में 10% की वृद्धि हो वे इसको लेकर बहुत परेशान हो जाते हैं लेकिन यह उनके उपभोग को केवल 1.5% तक प्रभावित करता है।

यह सरकार को क्यों नहीं दिख रहा है?

यह वह स्थान है जहां हम चीजों की व्याख्या करते हैं जो बहुत अनूठा हो जाता है। लगभग एक वर्ष से खाद्य कीमतें लगभग 1% या इससे कम रही और गैर-खाद्य क़ीमतों में 5% से अधिक की वृद्धि हुई है। मध्यम वर्ग के लिए गैर-खाद्य खपत उनकी कुल खपत का लगभग 80% या इससे अधिक है। इस तरह वे जीवन शैली के अपने ख़र्च में 4% की वृद्धि देख रहे हैं और [भोजन] खाते में शून्य देख रहे हैं। वे 4% के साथ रहने को तैयार हैं लेकिन खाद्य क़ीमतों पर 1.5% खोने के लिए तैयार नहीं हैं। मुझे नहीं पता। मैं उलझ गया हूं। अगर आप अर्थव्यवस्था, भविष्य और विकास के बारे में सोच रहे हैं तो आपको उपभोग के सोपान पर बढ़ने वाले लोगों के बारे में सोचना होगा; ग़रीब से निम्न से निम्न मध्यम वर्ग और निरंतर प्रगति के बारे में सोचना होगा। यही बाजार बनाता है और आपके उत्पादन और आय को कायम रखता है।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि मध्यम वर्ग को राष्ट्र के विकास के लिए क़ीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए।

मुझे ऐसा कोई भी स्थान दिखाई नहीं देता जहां मध्य वर्ग को कुछ भी त्याग करने के लिए कहा गया हो। वे सिर्फ उस मंदी से पीड़ित हैं जिससे हम अभी गुज़र रहे हैं।

लोग मकान नहीं ख़रीद रहे हैं। क्या कार न ख़रीदने को लेकर तर्क ऐसा ही है?

इसका कारण अलग है। ऑटोमोबाइल उद्योग में उत्पादन की अधिक क्षमता है क्योंकि मांग में असाधारण उछाल था और सभी कार कंपनियों ने अपनी क्षमता का विस्तार करके इसे पूरा किया। रीयल स्टेट में लोगों ने वास्तव में लैंड बैंकों को बहुत पहले विकसित किया था और उन्हें या तो इसे विकसित करना होगा या बहुत महंगी संपत्ति को लेकर बैठे रहना होगा जिसे वे बेच नहीं सकते हैं। डेवलपर्स ने तभी यह ज़मीन खरीदी थी जब क़ीमत अधिक थी। यदि वे इसको लेकर बैठे रहते हैं तो उनके सभी पैसे रुक जाते हैं; वे इस पर ब्याज दे रहे हैं और कुछ भी नहीं हासिल कर रहे हैं। उनकी एकमात्र आशा है कि इसे विकसित किया जाए और वे जितना कोशिश कर सकते हैं करें। यही कारण है कि विनिर्माण अभी भी चल रहा है, तब भी जब आपके पास 3 मिलियन घरों की यह विशाल सूची है।

इसके वजह से आज मांग में कमी है।

जिस समय ज़मीन ख़रीदी गई थी उस समय की उम्मीदों की तुलना में मंदी है। कार उद्योग में हाल में संकट काफी ज़्यादा है। [अर्थशास्त्री] रथिन रॉय भी यही बात कह रहे हैं। आपने अपनी कार, अपना घर लिया है लेकिन आने वाले किराये से अगले पांच साल तक दूसरा कार ख़रीदने नहीं जा रहे हैं। इसलिए संतुष्टि है और उपभोक्ताओं का अगला समूह इस मांग को बरक़रार रखने नहीं जा रहे हैं। अगर यह जारी रहा तो मध्यम वर्ग के लिए रोज़गार के अवसर कम होने लगेंगे क्योंकि तकनीक लोगों को प्रतिस्थापित करने जा रही है।

क्या कृषि क्षेत्र चक्रीय गिरावट (साइक्लिकल डिक्लाइन) से गुज़र रहा है?

मेरी समझ से यह चक्रीय घटना नहीं है। कृषि में जो कुछ भी हो रहा है वह नोटबंदी का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसने कृषि व्यापार की कमर तोड़ दी है और आपने इसकी भरपाई नहीं की है। व्यापारियों ने नक़दी का इस्तेमाल किया और आज उन्हें ऐसा करना बहुत मुश्किल है। कॉरपोरेट इंडिया में जो हो रहा है वह निश्चित रूप से चक्रीय है। पिछले कुछ वर्षों में देखा कि मध्यम वर्ग द्वारा असाधारण ख़रीद हुई थी जिससे मारुति में 18-20% की वृद्धि हुई। अब 10% के करीब है। यह परिपूर्णता है।

क्या यह डर है कि कृषि व्यापार में बाधा आ रही है?

शायद यह डर है। अब आप बैंकिंग सिस्टम की नज़र में हैं कि अगर आप 50,000 रुपये या उससे अधिक नकद निकालते हैं तो एक संदेश आयकर [अधिकारियों] के पास जाता है कि इस पैन नंबर ने इतनी राशि की निकासी की है। कर अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए यह एक डर है। दूसरा, यह विचित्र नियम है जो कहता है कि यदि आप 2 लाख रुपये से अधिक नकद के साथ पकड़े जाते हैं तो यह ग़ैरक़ानूनी है। एक व्यापारी के बारे में सोचे। 2 लाख रुपये वे दो टन ख़रीदते हैं तो जब व्यापारी आमतौर पर कम से कम 15-20 टन खरीदते हैं तो क्या होगा।

वे इस प्रतिबंध का क्या उपाय कर रहे हैं?

मुझे नहीं पता। शायद, जुगाड़।

समाधान क्या है?

नीति निर्माताओं को कृषि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और इसे दान की तरह नहीं मानना चाहिए। पूछें कि उन्हें क्या नुकसान दे रहा है और इसकी भरपाई कैसे कर रहे हैं।

क्या कृषि के व्यापारिक भाग पर ध्यान देना है?

किसानों ने हमेशा व्यापारियों को, जिन्हें वे बेचते अपनी तरह ही समझा है, लेकिन वे शोषक हैं। वे अच्छे लोग नहीं हैं। लेकिन इससे पहले कि आप व्यापारियों को ख़त्म कर दें कृपया विपणन की वैकल्पिक प्रणाली स्थापित करें। आप इसके बारे में बात करते रहते हैं लेकिन कुछ नहीं करते। पहले किसानों को मौका दें फिर व्यापारियों पर कार्रवाई करें। लेकिन जहां सरकार केवल 20% खाद्यान्न लेती है जो कुल कृषि उत्पादन का लगभग 8% है जिसका मतलब है कि 90% से अधिक व्यापारियों द्वारा ख़रीदा जा रहा है। आप उन्हें मारते हैं और कृषि को नुकसान पहुंचाएंगे।

व्यापारी इसे किसान की क़ीमत पर हासिल कर रहे हैं।

जहां किसान को 1000 रुपये मिलते थे वहीं व्यापारी उन्हें 800 रुपये दे रहा है क्योंकि नक़दी नहीं है। यह सबसे बड़ी समस्या है जिसका देश सामना कर रहा है। किसान दुर्भाग्य से समस्या के इस पहलू को नहीं पहचानता है और ज़्यादा एमएसपी की मांग करता रहता है जो 20% खाद्यान्न उगाने वाले किसान तक ही पहुंचेगा। अनाज कृषि उत्पादन के 50% से अधिक हुआ करता था, आज यह लगभग 40% के जितना है। इसलिए समग्र कृषि उत्पादन में इसका महत्व लगातार कम होता जा रहा है। एक बिंदु तक एमएसपी मदद करता है लेकिन यह किसान की सभी समस्याओं का समाधान नहीं करेगा। इसके अलावा किसान को उपभोक्ता द्वारा दिए जाने वाले क़ीमत में कमी की तुलना में किसानों को प्राप्त होने वाली क़ीमत में गिरावट काफी अधिक है। इसलिए मध्यम वर्ग को उस सीमा तक कोई फायदा नहीं हो रहा है।

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