NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
नोटबंदी:आलोचना ही आलोचना
हालांकि मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी के खिलाफ सभी आलोचनाओं का स्वागत है, लेकिन यहा नवउदारवादी और वामपंथी आलोचनाओं के बीच अंतर करना जरूरी है क्योंकि वामपंथी आलोचना के हिसाब से नोटबंदी ने कामकाजी लोगों पर विनाशकारी प्रभाव डाला है।

प्रभात पटनायक
28 Dec 2018
Translated by महेश कुमार
नोटबंदी

हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आई.) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में दिए गए एक भाषण में नवंबर2016 में भारत सरकार द्वारा मुद्रा नोटों के विमुद्रीकरण के  फैसले के खिलाफ खुलकर सामने आए। चूँकि राजन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री हैं और देश में एक महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णय लेने वाले पद पर रहे हैं, इसलिए उनके द्वारा की गई नोटबंदी की आलोचना का स्वागत किया जाना चाहिए. यह उन उठी आवाज़ों के वजन को काफी हद तक बढ़ाती है, जो नरेंद्र मोदी सरकार के इस सख्त और लंपट निर्णय के खिलाफ उठी हैं। उसी समय, हालांकि,यह एक महत्वपूर्ण अंतर करने के लिए भी प्रोत्साहित करने अवसर प्रदान करता है। चूंकि सिद्धांत के मामलों में कोई अवसरवाद या रणनीतिक एकजुट मोर्चा नहीं हो सकता है (जैसा कि खुलेपन का विरोध, और अन्य विचारों का रचनात्मक उपयोग, जैसे कि लेनिन ने जेए होब्सन के विचारों का इस्तेमाल किया था) फिर भी किसी दमनकारी फैसले के खिलाफ जो एक पक्ष में होते हैं उनके विचारों में भी महत्वपूर्ण अंतर होता है.

 नोटबंदी के फैसले  के खिलाफ आलोचना के दो अलग-अलग पहलू हैं। एक वामपंथियों की आलोचना है, जिसने किसानों, छोटे उत्पादकों, और मजदूरों के लिए इसके विनाशकारी परिणामों पर प्रकाश डाला है, संक्षेप में, विशाल कामकाज़ी जनता पर इसका असर। अन्य आलोचना जो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई व्यक्तियों से आई हैं, जो कि नव-उदारवाद मॉडल के भीतर की कहानी है. इसमें देश की जीडीपी विकास दर पर इसके घातक प्रभाव को उजागर किया है।

 यह सुनिश्चित कर ले कि पहले वाली आलोचना नोटबंदी की वजह से आर्थिक बढ़ोतरी पर पड़ने वाले इसके  नकारात्मक प्रभाव पर चुप नहीं है. और यह छोटे उत्पादन क्षेत्र पर इसके हमले को उजागर करती है । और बाद की आलोचना से ऐसा लगता है जैसे नोटबंदी की वजह से छोटे उत्पादकों पर पड़ने वाले प्रभाव को छिपाया जा रहा है. दोनों के बीच इस पर ध्यान देने और उसके फोकस का अंतर है, एक लोगों पर सीधे प्रभाव को उजागर करता है और दूसरा जीडीपी बढ़ोतरी के प्रभाव पर एक लोगों की स्थिति पर ध्यान केंद्रित करता है, और दूसरा इसके ढेर के आकार पर बातें करता है।

राजन की आलोचना स्पष्ट रूप से दूसरी श्रेणी की है। उन्होंने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि जब विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ रही थी, भारत की विकास दर, जिसे कि, नव-उदारवादी व्यवस्था से जोड़ा जा रहा था, को भी बढ़ाना चाहिए था,लेकिन यह इसके विपरीत धीमी हो गयी थी और उन्होंने इस धीमेपन के लिए नोटबंदी के प्रभाव और गुड्स एंड सर्विस टैक्स की शुरूआत को जिम्मेदार ठहराया । आर्थिक बढ़ोतरी की दर में कमी के साथ रोजागर की समस्या उत्पन्न हुई. इस समस्या से निजात पाने के लिए तकरीबन 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से अधिक विकास दर होनी चाहिए थी, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी की वजह से यह आर्थिक विकास दर नहीं पाया जा सका. यह सुझाव भारत को एक नवउदारवादी अर्थव्यस्था की तरह देखने से उपजा था.

लेकिन रोजगार का तर्क, जिसके आधार पर नवउदारवादी जीडीपी विकास पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे  हैं, इसकी वैधता इस मामले में बहुत कम है। तथ्य यह है कि पूर्व-उदारीकरण, वर्षों के दौरान, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर लगभग 3.5 से 4 प्रतिशत प्रति वर्ष थी और रोजगार के विकास की दर लगभग 2प्रतिशत प्रति वर्ष थी, जबकि नवउदारवादी युग में, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 7 प्रतिशत से अधिक की रही है लेकिन  रोजगार की वृद्धि दर में 1 प्रतिशत की गिरावट आई है, बस उनके तर्क को मान्यता प्राप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में, भले ही यह दावा किया जाता है कि जीडीपी वृद्धि के पीछे की चिंता लोगों के बारे में है, यह वास्तव में प्रति सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के बारे में है, अर्थात बड़े ढेर के आकार के बारे में है।

जीडीपी वृद्धि की यह बहस पहले से नवउदारवाद के युग की विचारधारा का एक अनिवार्य घटक है। और यह बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत ही उपयोगी वर्ग-उद्देश्य का कार्य करता है। अगर जीडीपी वृद्धि राष्ट्र का सबसे प्राथमिक उद्देश्य बन जाता है, तो जो लोग इस तरह के विकास को बढ़ावा देते है वे राष्ट्र के वास्तविक रक्षक बन जाते है, और जो कोई ऐसा नही करता है, वह इस तरह के विकास को बाधित करने वाला “देशद्रोही” बन जाता है।

चूँकि एक बुर्जुआ समाज में पूंजीपति और विशेष रूप से बड़ा पूंजीपति, जो पूंजी संचय का कार्य करता हैं, जो सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि को रेखांकित करते हैं, बड़ा पूंजीपति राष्ट्रवाद का वास्तविक अवतार बन जाता है। दूसरी तरफ, सभी उत्पीड़ित कामकाजी लोग, जो उच्च मजदूरी के लिए हड़ताल करके या उच्च खरीद कीमतों के लिए प्रदर्शन करके अपने जीवन स्तर की रक्षा करना चाहते हैं, उनके हिसाब से वे अर्थव्यवस्था को "बाधित" कर रहे होते हैं और जीडीपी विकास को कम कर रहे होते हैं। इसलिए, वे "राष्ट्र-विरोधी" तरीके से कार्य करते दिखाई देते हैं।

 विडंबना यह है कि, जीडीपी विकास पर जोर देते हुए, बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसरों को पैदा करने के नाम पर लोगों के हित को बढ़ावा देने की बात की जाती है, और यह आम लोगों के संघर्षों को गैर-कानूनी घोषित करने की कोशिश की जाती है और इसके विपरीत निवेश करने के लिए पूंजी की पेशकश की जा रही होती है वह भी सभी प्रकार की रियायतों को वैध बनाने के काम के साथ। कॉरपोरेट हित का सबसे ज़बरदस्त प्रचार तब उचित प्रतीत होता है जबकि सभी लोगों के संघर्ष को नाजायज बताया जाता हैं! यहां तक कि बड़ी पूंजी को रियायतें देना एक "राष्ट्रीय परियोजना" एक "राष्ट्र-निर्माण" का हिस्सा बन जाता और वैधता पाता है!

यदि इसे कोई कहे तो इसे "जीडीपी राष्ट्रवाद" भी कहा जा सकता है. हालांकि आम तौर पर नवउदारवादी युग में इसे स्वीकार किया जाता है और इसे अतिरिक्त बढ़ावा देने के लिए नवउदारवाद के संकट की अवधि में इसे एक सांप्रदायिक हिंदुत्व परियोजना के जूए से बांध दिया जाता है, जिसका एक लंबा लम्बा इतिहास है। वास्तव में यह बुर्जुआ "राष्ट्रवाद" का एक अभिन्न अंग है जो यूरोप में 17 वीं शताब्दी में पैदा हुआ था और 18 वीं शताब्दी में यह आगे बढ़ गया था। व्यापारी लेखक (जिनमें से कई अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े हुए थे) और साथ ही साथ उत्कृष्ट राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रस्तावक भी इससे पीड़ित थे, हालांकि उनके पास भी इसके बारे में बहुत अलग विचार थे कि इसे कैसे बढ़ाया जा सकता है।

जब एडम स्मिथ ने द वेल्थ ऑफ नेशंस  लिखा, तो उनका उद्देश्य स्पष्ट रूप से इस रहस्य को उजागर करना था कि राष्ट्र धन को कैसे बढ़ाया जा सकता है ताकि राष्ट्र के उद्द्देश्यों का पूरा किया जा सका.  हालांकि उनके स्वयं के विश्लेषण से पता चलता है कि राष्ट्र के धन की मात्रा में बढ़ोतरी के बाद भी  कामकाजी लोगों की स्थिति  बेहतर नहीं होती है. डेविड रिकार्डो ने इस संबंध में स्मिथ के समान ही बात कही है। दूसरे शब्दों में धन की वृद्धि को वांछनीय माना जाता था। यह वही है जो आज के "जीडीपी राष्ट्रवाद" को प्रभावी ढंग से प्रचारित करता है। यह एक विशेष वर्ग-रणनीति,अर्थात, काम करने वाले लोगों पर हमला और कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के तुष्टिकरण की वकालत करता है जिसके साथ यह जुड़ा हुआ है।

कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि यह "जीडीपी राष्ट्रवाद" शासक वर्गों की ओर से एक मात्र साजिश है, या यह कि हर कोई जो इसका समर्थक है, वह इस साजिश में एक जागरूक भागीदार है। बुर्जुआ समाज वास्तव में ऐसी स्थिति बनाता है जहाँ लोगों के बीच संबंधों पर ध्यान देने के बजाय चीजों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।  उत्पादन के साधन अपने आप में एक अतिरिक्त मुल्य उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं, जोकि उत्पादन के साधनों में अंतर्निहित होता है, जो बुर्जुआ अर्थशास्त्र हमें आज तक सिखाता आया है।

 इसलिए यह शायद अचरज की बात लगती है कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर से चीजों के मात्र जमा होते रहने और ढेर लगते रहने से गरीबी, बेरोजगारी जैसी और सभी तरह की सामाजिक समस्याएं दूर हों.

 पूंजीपतियों का मुनाफा उत्पादन के साधनों के निहित गुणों के कारण उत्पन्न होता है, उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिकों की श्रम-शक्ति का उपयोग करके अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाया जाता है। ठीक उसी तरह, "जीडीपी राष्ट्रवाद" बड़े बुर्जुआ वर्ग के लिए बहुत ही अनुकूल तरीके से समाज को आदेश देने के लिए एक वैचारिक औचित्य प्रदान करता है।

हालांकि मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी के खिलाफ सभी आलोचनाओं का स्वागत है, लेकिन यहा नवउदारवादी और वामपंथी आलोचनाओं के बीच अंतर करना जरूरी है क्योंकि  वामपंथी आलोचना के हिसाब से नोटबंदी ने कामकाजी लोगों पर विनाशकारी प्रभाव डाला है।

 

 

 

demonetisation
Modi government
RBI
Narendra modi
GST
GDP growth-rate
GDP nationalism

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़


बाकी खबरें

  • CORONA
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 15 हज़ार से ज़्यादा नए मामले, 278 मरीज़ों की मौत
    23 Feb 2022
    देश में 24 घंटों में कोरोना के 15,102 नए मामले सामने आए हैं। देश में कोरोना संक्रमण के मामलों की संख्या बढ़कर 4 करोड़ 28 लाख 67 हज़ार 31 हो गयी है।
  • cattle
    पीयूष शर्मा
    यूपी चुनाव: छुट्टा पशुओं की बड़ी समस्या, किसानों के साथ-साथ अब भाजपा भी हैरान-परेशान
    23 Feb 2022
    20वीं पशुगणना के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि पूरे प्रदेश में 11.84 लाख छुट्टा गोवंश है, जो सड़कों पर खुला घूम रहा है और यह संख्या पिछली 19वीं पशुगणना से 17.3 प्रतिशत बढ़ी है ।
  • Awadh
    लाल बहादुर सिंह
    अवध: इस बार भाजपा के लिए अच्छे नहीं संकेत
    23 Feb 2022
    दरअसल चौथे-पांचवे चरण का कुरुक्षेत्र अवध अपने विशिष्ट इतिहास और सामाजिक-आर्थिक संरचना के कारण दक्षिणपंथी ताकतों के लिए सबसे उर्वर क्षेत्र रहा है। लेकिन इसकी सामाजिक-राजनीतिक संरचना और समीकरणों में…
  • रश्मि सहगल
    लखनऊ : कौन जीतेगा यूपी का दिल?
    23 Feb 2022
    यूपी चुनाव के चौथे चरण का मतदान जारी है। इस चरण पर सभी की निगाहें हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में हर पार्टी की गहरी हिस्सेदारी है।
  • Aasha workers
    वर्षा सिंह
    आशा कार्यकर्ताओं की मानसिक सेहत का सीधा असर देश की सेहत पर!
    23 Feb 2022
    “....क्या इस सबका असर हमारी दिमागी हालत पर नहीं पड़ेगा? हमसे हमारे घरवाले भी ख़ुश नहीं रहते। हमारे बच्चे तक पूछते हैं कि तुमको मिलता क्या है जो तुम इतनी मेहनत करती हो? सर्दी हो या गर्मी, हमें एक दिन…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License