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न्याय की आस में 27 वर्षों से लड़ रहे ग्रेफ़ाइट माइंस मजदूर : राजभवन पर अनिश्चितकालीन धरना
सुप्रीम कोर्ट ने भी  ग्रेफ़ाइट माइंस की सभी बकाया मजदूरी के भुगतान और छंटनी किए गए सभी मजदूरों को फिर से बहाल करने का लिखित आदेश दिया था। जिसे लागू कराने में पूरा प्रशासनिक अमला चुप्पी साधे रहा। कई बार धरने प्रदर्शन के बाद भी अभी इसे लागू नहीं किया गया है।
अनिल अंशुमन
23 Sep 2019
graphite labour

'' 66 में भीषण अकाल पड़ा था। पूरे इलाके के गावों में भूखमरी पसर गयी। अकाल से बदहाल घरवालों के लिए दो जून की रोटी की जुगाड़ में गाँव के पास वाले ग्रेफ़ाइट खदान में मैं काम करने लगी। छोटी उम्र की होने पर भी हर दिन सबेरे 8 बजे से रात 9 बजे तक खटना पड़ता था। दोपहर में खदान मालिक की ओर से हर मजदूर को दी जानेवाली 12 रोटियाँ और कोहंड़े की सब्जी हर दिन मुझे भी दी मिलती थी। जिसमें से हम सभी 8–10 रोटियाँ बचाकर लाते थे तो घर के लोगों को अनाज नसीब होता था। वरना चंकवड़ का साग इत्यादि ही खाकर गुजारा करना पड़ता था । सारे मजदूरों को हर हाल में प्रतिदिन 300 तगाड़ी ( खनन से निकाले गए ग्रेफ़ाइट की छोटी ट्रॉली ) भरनी होती थी।

मजदूरी मांगने पर अक्सर टाल दिया जाता था। बहुत इमरजेंसी होने पर कभी कभार कुछ रुपये मिलजाते थे वरना बाकी समय में मालिक लठैतों द्वारा धमका दिया जाता था । कई महीने बीत जाने पर भी जब किसी को मजदूरी नहीं मिली तो सभी बेचैन हो गए।  कुछ लोगों ने मांगने की हिम्मत जुटायी भी तो कह दिया गया कि ठीक है मिल जाएगा । लेकिन मजदूरी अभी नहीं मिली और मांगने और टालने का सिलसिला चलता रहा। उकताए मजदूर जब मजदूरी के बकाए पैसों के लिए अड़ने लगे तो गुस्से में आकर  खदान मालिक ने 1982 में मुझे समेत 455 मजदूरों की छंटनी कर नौकरी से निकाल दिया। तब से लेकर आजतक बकाया मजदूरी और बहाली के लिए हम लड़ते ही आ रहें हैं ...” -  हर किसी को यह आपबीती सुनानेवाली पलामू जिले के चैनपुर प्रखण्ड से आई 70 वर्षीय सुनीता कुमारी ‘न्याय की आशा’ में पिछले कई दिनों से झारखंड राजभवन पर सैकड़ों मजदूरों के साथ अनिश्चितकालीन धरना में बैठी हुई हैं।

पलामू के सुकरा ग्रेफ़ाइट माइंस के ये छंटनीग्रस्त मजदूर अपनी यूनियन ‘झारखंड खान मजदूर सभा '  के बैनर तले पिछले 5 सितंबर से राजभवन के समक्ष अनिश्चितकालीन धरना दे रहें हैं।

सुनीता कुमारी के साथ धरना पर बैठे 65 वर्षीय मजदूर परमवीर सिंह की कहानी भी अन्य मजदूरों जैसी ही है । रुँधे गले से वे बताते हैं कि कैसे 1978 में वे खदान में काम करने आए। जहां मजदूरी के नाम पर केवल 12 रोटियाँ और कोंहड़े की सब्जी ही दी गयी । इन्हें भी मजदूरी मांगने पर धमकाकर कहा गया कि बाद में मिलेगा। वे बताते हैं कि उन दिनों तीन पालियों में काम होता था और हर पाली में 5000 मजदूर काम करते थे। खदान से निकाले गए ग्रेफ़ाइट को दर्जनों गाड़ियों में भरकर हर दिन भेजकर लाखों, करोड़ों की कमाई करने के बावजूद मजदूरी नहीं देने से मजदूरों में क्षोभ बढ़ने लगा।

पहले तो उन्होंने भी यही सोचा था कि मजदूरी का पैसा मालिक के पास जमा हो रहा है और एक ही बार में अधिक राशि मिलेगी । लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। थक हार कर हमलोगों ने अपनी यूनियन बनाई और बकाया मजदूरी की मांग उठायी । क्रुद्ध होकर मालिक ने जब सबकी छंटनी कर काम से निकाल दिया तो हम भी मजदूरों के संघर्ष में शामिल हो गए।  
ग्रेफ़ाइट मजदूर 2.jpg
1982 से ही सुकरा ग्रेफ़ाइट माइंस मज़दूरों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे 78 वर्षीय यूनियन महामंत्री सुदेश्वर सिंह कि जुबानी तो पूरे शासन और तंत्र के मजदूर विरोधी रवैये और अमानवीयता की जीवंत गाथा ही है। जो पिछले कई दशकों से सत्ता-संरक्षण में जारी संस्थाबद्ध खनन लूट को खुलकर उजागर करती है। साथ ही यह भी दर्शाती है कि इस संस्थाबद्ध लूट चौकड़ी की सुनियोजित मनमानी के आगे देश का सुप्रीम कोर्ट भी कितना असहाय है।

ग्रेफ़ाइट माइंस मजदूर यूनियन द्वारा जारी प्रपत्र और खुद सुदेश्वर सिंह के दिये बयान के अनुसार 1982 में उनकी यूनियन ने जब बकाया मजदूरी और छंटनीकर हटाये गए सभी मजदूरों की बहाली की मांग उठाई गयी तो खदान मालिक हमलावर हो गए। वे तत्कालीन बिहार सरकार के कद्दावर नेता भीष्म नारायण सिंह के समधि थे, इसलिए स्थानीय प्रशासनिक अमला ने भी स्थिति को नज़रअंदाज़ किया। तब हमारी गुहार पर संज्ञान लेते हुए रांची से क्षेत्रीय श्रम आयुक्त डाल्टनगंज आए और मालिक से बोले कि अभी बरसात का मौसम है इसलिए मजदूरों को खेती के लिए बकाए का जल्द भुगतान कर दें।

लेकिन 17 नवंबर  1982 को मालिक ने सभी मजदूरों को चिट्ठी भेजकर बकाया राशि देने के नाम पर खदान में बुलाया और गेट बंद कर औरंगाबाद से बुलाये गए 200 बंदूकधारी लठैतों के साथ मिलकर अंधाधुंध फायरिंग कर दी। जिससे निहत्थे मजदूरों में भगदड़ मच गयी और 2 मजदूर मारे गए तथा दर्जनों गंभीर रूप से घायल हो गए। गुस्साये मजदूरों ने वहाँ से निकलकर स्थानीय चैनपुर थाना का घेराव कर दिया तो मजबूरन पुलिस को खदान मालिक व उनके कुछ गुर्गों को गिरफ्तार करना पड़ा। पीड़ित आंदोलनकारी मजदूरों ने रांची पहुँचकर क्षेत्रीय श्रमायुक्त से फिर गुहार लगायी तो खदान मालिक के खिलाफ केस दायर हुआ।

चीफ लेबर कमिश्नर दिल्ली ने इस पर संज्ञान लेते हुए मामले को सुनवाई के लिए धनबाद लेबर कोर्ट भेज दिया। 1989 में लेबर कोर्ट ने मजदूरों के पक्ष में फैसला सुनाया तो मालिक ने इसके खिलाफ बिहार हाई कोर्ट में पिटीशन दायर कर दिया। हाई कोर्ट ने भी लेबर कोर्ट का फैसला बहाल रखा तो वे सुप्रीम कोर्ट चले गए । सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसले को बहाल रखते हुए एक माह के अंदर सभी बकाया मजदूरी के भुगतान और छंटनी किए गए सभी मजदूरों को फिर से बहाल करने का लिखित आदेश दिया। जिसे लागू कराने में पूरा प्रशासनिक अमला चुप्पी साधे रहा। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करवाने के लिए सैकड़ों बार धरना – प्रदर्शन किए गए लेकिन हर बार सिर्फ आश्वासन देकर मामले को लटकाए रखा गया। उधर स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से खदान मालिक सबकुछ समेत कर फरार हो गया और खदान हमेशा के लिए बंद हो गयी ।  

 मामले में नया मोड़ तब आया जब 14 नवंबर 1990 को तत्कालीन बिहार राज्यपाल के अध्यादेश से सुकरा ग्रेफ़ाइट माइंस का सरकार द्वारा अधिग्रहण करने का घोषणा हुई। इसके बाद कुछ दिनों तक खदान में जैसे तैसे काम भी हुआ लेकिन छांटनीग्रस्त मजदूरों समेत हजारों पुराने मजदूरों में से किसी को भी काम पर नहीं लगाया गया। 2001 में झारखंड अलग राज्य गठित होते ही नयी सरकार पर दबाव देने के लिए झारखंड विधान सभा का घेराव किया गया तो प्रदेश की सरकार ने संज्ञान लेकर माइंस निरीक्षण हेतु पलामू के अफसरों की जांच टिम के गठन की घोषणा की।

उक्त टीम द्वारा दी गयी रिपोर्ट भी कई वर्षों तक ठंडे  बस्ते में पड़ी रही तो यूनियन को फिर से राजधानी आकर धरना प्रदर्शन करने पर मजबूर होना पड़ा। 3 दिसंबर 2015 को विभागीय मंत्री के आदेश से 1, 2700000 रुपये माईंस मजदूरों को भुगतान की अधिसूचना जारी हुई। उसी समय तत्कालीन सरकार के बदल जाने के कारण निर्गत रुपये का भुगतान नहीं हो सका और मामला फिर से लटक गया। इस दौरान आती-जाती सभी सरकारों और उनके मुख्यमंत्रियों से मजदूर गुहार लगाते रहे लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला।

अंततोगत्वा सभी मजदूर एकबार फिर रांची पँहुचे और ‘करो या मरो' का नारा देकर 14 मई 2018 से राजभवन के समक्ष अनिश्चितकालीन धरना पर बैठ गए। 31 दिनों के बाद राज्यपाल महोदया ने धरना पर बैठे मजदूरों की मांगों पर अविलंब संज्ञान लेने सरकार को पत्र लिखा तो पलामू विधायक के नेतृत्व में एक टी ने मजदूरों के प्रतिनिधि मण्डल को लेकर मुख्यमंत्री रघुवर दास और संबन्धित विभागीय सचिव से मुलाक़ात की। जहां से ये आश्वाशन मिला कि जल्द ही सरकार की एक जांच टीम जाएगी और वस्तुस्थिति का अध्ययन कर माइंस को  फिर से चालू करवाने और बकाया मजदूरी का भुगतान का काम कराएगी । लेकिन जाने क्यों यह कार्य भी नहीं हुआ तो मजबूरन सारे मजदूर 5 सितंबर  20 19 से राजभवन के सामने अनिश्चितकालीन धरना पर बैठ गए हैं।

सनद हो कि ग्रेफ़ाइट एक उच्चस्तरीय कार्बन समूह के एक कीमती खनिज–धातु माना जाता है। इसलिए यह बहुत उपयोगी धातु है। विज्ञान की दुनिया के लिए यह अनंत संभावनाओं वाली धातु है। उदहारण के तौर पर समझे तो इसका उपयोग लिखने वाले पेंसिल की लीड बनाने से लेकर उच्च ताप पर चलनेवाली मशीनों में धातुओं को पिघलाने और न्यूक्लियर रियेक्टर में मोडेरेटर के रूप में किया जाता है ।

इसके आलवे हर प्रकार के बैटरी निर्माण में भी यह उपयोगी है। यह देश के कई पहाड़ी राज्यों के आलवे झारखंड प्रदेश के पलामू प्रमंडल के डाल्टनगंज ज़िले के चैनपुर , विश्रामपुर व सातबरवा प्रखंडों के आलवे गढ़वा ज़िले के कुछेक प्रखंडों और संतालपरगना के इलाके में पाया जाता है। पलामू को एशिया फेम ग्रेफ़ाइट इलाका कहा जाता है । यहाँ निकलनेवाला ग्रेफ़ाइट सबसे उत्तम क्वालिटी का माना जाता है तथा अकेले पलामू जोन से लगभग 37% ग्रेफ़ाइट खनन होने की बात कही जाती है। फिर भी प्रदेश में उद्योग - धंधे के विकास का दावा करनेवाली वर्तमान सरकार से लेकर पूर्व की भी किसी सरकार ने आज तक ग्रेफ़ाइट खनन का कोई व्यवस्थित और नियमित सरकारी उपक्रम नहीं विकसित किया है।

बताया जाता है कि 1990 के पहले ग्रेफ़ाइट खनन का अधिकांश काम सरकारी लीज़ पर निजी कंपनियों–मालिकों द्वारा ही होता था। लीज़ अवधि समाप्त होने तथा लीज़ राशि नहीं चुकाने के कारण ही सुकरा समेत कई अन्य निजी खदानों का सरकार ने अधिग्रहण किया। अलबत्ता अवैध ग्रेफ़ाइट खनन कारोबार मजे से फल फूल रहा है। सूचना है कि कई स्थानों पर दिखावे के तौर पर दिन में तो लीज़ क्षेत्र में खनन होता है लेकिन शाम होते ही आस पास के सभी पहाड़ों से ग्रेफ़ाइट पत्थर निकालने का धंधा आज भी बदस्तूर जारी है। कभी कभार कुछेक अवैध ग्रेफ़ाइट लदी गाड़ियों की धर पकड़ कर की जाती है तो वह भी रसूख  पहुँच से छुड़ा ली जाती है ।

खबर लिखे जाने तक सुकरा ग्रेफ़ाइट माइंस के सैंकड़ों महिला, पुरुष मजदूर आज भी राजभवन के सामने टूटे-फूटे तम्बू में धरना दिये हुए हैं। इनकी मांगें हैं कि राज्य सरकार विधान सभा चुनाव से पहले ही अपनी घोषणा पर अमल करते हुए 1928 से बकाया मजदूरी की भुगतान और सभी मजदूरों की बहाली कर माइंस को चालू कराये। हालांकि इस दौरान देश के चमत्कारिक प्रधानमंत्री और गृहमंत्री समेत कई केंद्रीय आला मंत्रीयों का चुनावी तैयारी का दौरा शुरू हो चुका है । उधर प्रदेश कि सरकार भी ‘ घर घर रघुवर ’ का चुनावी मंत्रोच्चार पूरे प्रदेश में फैलाने की कवायद कर रही है। लेकिन किशोर से बूढ़े हो गए सुकरा ग्रेफ़ाइट माइंस मजदूरों की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है । गोया ‘ सब मुमकीन करनेवाली ’ सरकार की नज़र में ये चुनावी लाभ का मुद्दा नहीं हैं।  वहीं मजदूरों के लिए भी ‘ ये सरकार, वो सरकार’  में कोई फर्क नहीं है।  

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