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‘न्याय’ की पहली जीत : चुनाव फिर बुनियादी मुद्दों की तरफ़ लौट रहा है
न्यूनतम आय योजना को लेकर कई सवाल हैं लेकिन इस घोषणा से बड़ा फायदा यह हुआ कि चुनाव फिर से जनता से जुड़े आधारभूत मुद्दों की तरफ लौट आया है। अच्छा है कि चुनाव में चर्चा का विषय भूख, गरीबी, बेरोज़गारी बने। न कि झूठे, भावुक और नफ़रत फैलाने वाले मुद्दे।
अजय कुमार
26 Mar 2019
MAZDUR

विपक्ष खासकर कांग्रेस के पास भले और कुछ न हो लेकिन मोदी सरकार की आत्मघाती आर्थिक नीतियों और (कु) शासन का सहारा था , जिसकी वजह से वह चुनावी मैदान में जनता को अपनी तरफ आकर्षित करने में कामयाब दिख रही थी। लेकिन अचानक पुलवामा की दर्दनाक घटना हुई  और सत्तापक्ष ने पाकिस्तान विरोध और उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर पूरा डिस्कोर्स बदलने की कोशिश की। लेकिन समय बीतता चला गया और अपने बुनियादी मुद्दों की तरफ फिर से लौटने लगा। अभी हाल में आये कई प्रतिष्ठित डेवलपर का भी साफ कहना है कि भारत की जनता बेरोजगारी को अपनी सबसे बड़ी चिंता मानती है। यानी इशारा साफ है कि लोग यह चाहते हैं कि  राजनीतिक   दल उन मुद्दों से   सरोकार करने की कोशिश करें ,  जिनसे उनके जीवन की दशा बदलती रहती है।) 

ऐसे माहौल में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से  ' न्याय स्कीम ' की  घोषणा के सहारे लोगों तक पहुंचने की कोशिश की गयी है। न्याय यानी न्यूनतम आय योजना।

राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर घोषणा की कि अगर वे   सत्ता में आते हैं तो भारत के   20  फीसदी सबसे गरीब परिवारों को कम से कम 72  हजार सलाना आय करेंगे। यह पैसा कहां से आयांगे ,  गरीब परिवारों की पहचान कैसे की जाएगी ,  किस तरह से परिवार तक पैसे पहुंचेंगे से बहुत सवालों पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ नहीं कहा गया। यानी योजना का पूरा मैकनिज्म क्या होगा , इस प्रकार कोई सफाई प्रस्तुत नहीं की गई। इसलिए इस योजना की घोषणा करने के बाद से बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं। यह भी आवश्यक है कि ऐसी किसी भी योजना पर सवाल उठे। लेकिन इस योजना की घोषणा करने के बाद सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि चुनाव फिर से जनता से जुड़े आधारभूत मुद्दों की ओर लौट आए हैं। इस घोषणा के सहारे सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि चुनाव में चर्चा का विषय गरीब लोग और उनकी जिंदगी बनेगी। न कि झूठ ,  भावुक और नफ़रत फैलाने  वाले  मुद्दे।  

इस योजना की वजह से सकारात्मक माहौल बनने के बाद भी यह जरूरी है कि न्याय स्कीम की प्रकृति से उठने वाली बहुत सारे सवालों पर चर्चा की जाए। राहुल गाँधी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि इस योजना की घोषणा करने से सभी राजकोषीय यात्राओं को ध्यान में रखा गया है।   लेकिन इसके साथ यह नहीं कहा कि इस योजना   को लागू करने के बाद किसी तरह की जनकल्याण की तय ख़त्म की जाएगी और किसी तरह की जनकल्याण की योजना को समाप्त किया जाएगा। इसलिए सब कुछ छोड़कर केवल  72  हजार सलाना वाले   बच्चों को आधार बनाकर निष्कर्ष निकाला जाए तो इस   योजना की वजह से कुल  5  करोड़ परिवारों पर यानी  25  करोड़ गरीब लोगों पर जीडीपी का  1.9  प्रतिशत खर्चा होगा। और यह खर्चा अभी हाल-फिलहाल भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में कुल जीडीपी के  1.4  फीसदी  होने वाले खर्चे से अधिक है।  

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में तकरीबन 24.95 करोड़ परिवार हैं। अगर सबसे गरीब 20 फीसदी आबादी पर न्याय स्कीम के तहत पैसा खर्च किया जाता है तो यह तकरीबन 3.6 लाख करोड़ रुपये सलाना होगा। साल 2019 के महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के कुल 55000 करोड़ रुपये खर्च के तकरीबन छह गुने से अधिक।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी कहते हैं कि न्याय स्कीम का खर्चा आसानी से पूरा किया जा सकता है। हमारे देश में तकरीबन 2करोड़ 30  लाख सरकारी नौकरों पर जीडीपी का तकरीबन 11.4 फीसदी खर्चा किया जाता है।  इनकी आय में महंगाई बढ़ने के साथ समय समय पर बढ़ोतरी भी की जाती है और आय  बढ़ोतरी के समय जेटली यहां तर्क देते हैं कि इससे अर्थव्यवस्था में लोगों की मांग बढ़ेगी यानी लोग टीवी, फ्रेजिरेटर, लैपटॉप जैसे सामान खरीदेंगे जिसका अंतिम फायदा अर्थ-व्यवस्था को ही पहुंचेगा। अभी भी तकरीबन6 लाख करोड़ रुपये भारत सरकार टैक्स फॉर गॉन (टैक्स तो बनता है लेकिन सरकार किन्हीं कारणों के वजह से टैक्स नहीं लेती हैं) के तौर पर कॉर्पोरेट सेक्टर का छोड़ देती है। अभी भी भारतीय टैक्स डिपार्टमेंट क्षमता के तहत टैक्स हासिल नहीं कर पाता है। अभी भी टैक्स क्षमता का तक़रीबन 50 से 60 फीसदी टैक्स हम हासिल नहीं कर पाते हैं।  हमारे टैक्स एडमिनिस्ट्रेशन को अपनी गवर्नेंस में सुधार करनी चाहिए। बहुत बड़ा परिवर्तन करने की जरूरत नहीं है। मौजूदा शासन का ढांचा ही सही से काम करे तो इसका खर्चा आसानी से पूरा किया जा सकता है।  

इस तरह से यह बात तो साफ़ है कि इस तर्क में कोई दम नहीं है कि इतना बड़ा खर्चा कैसे पूरा होगा? यह खर्चा आसानी से पूरा किया जा सकता है।  वरिष्ठ  कृषि अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा अपने एक लेख में लिखते हैं कि जब सातवां वेतन आयोग लागू हुआ और जिसकी वजह से 45 लाख केंद्र सरकार के कर्मचारियों को सलाना तकरीबन 1.2 लाख करोड़ रुपया अधिक देना तय किया गया तब कोई आवाज नहीं उठती है कि यह पैसा कहां से आएगा।  इनके इस वक्तव्य से यह साफ़ है कि पैसा कहाँ से आएगा इसका जवाब मिलना आसान है, बस जरूरी यह है कि हमारी राजकोषीय नीति कॉर्पोरेट उन्मुख होगी या गरीब उन्मुख।  बस यही तय करना ज़रूरी है।  और इसे तय करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। अगर यह है तो यह योजना आसानी से लागू हो सकती है।   

“मिनिमम इनकम गारंटी योजना में पैसा कहाँ से आएगा”, इस सवाल से बड़ा सवाल यह है कि ऐसी योजनाओं को लागू करते हुए क्या दूसरी जनकल्याण से जुडी योजनाओं और सब्सिडियों को बंद कर दिया जाएगा। या यह मिनिमम इनकम गारंटी योजना इन योजनाओं के साथ ही लागू की जाएगी।  इस विषय पर न्यूज़क्लिक से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार सुबोध वर्मा कहते हैं ''भारत जैसे देश में मिनिमम इनकम गारंटी एक विचार के तौर पर तब बहुत अच्छा विचार है, जब सरकार इसे लागू करने के बारे में सोचते हुए यह न सोचे कि इसे लागू करने के बाद राज्य की तरफ से नागरिकों को दी जाने वाले दूसरे सहयोग छीन लिए जाएंगे। यानी  मिनिमम इनकम गारंटी का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि नागरिकों को एक तरफ पैसे दिए जाएं और दूसरी तरफ से फ़ूड सिक्योरिटी स्कीम, गैस सब्सिडी, खाद सब्सिडी जैसी योजनाएं हटा ली जाएं। अभी जिस तरह की सरकारें पूरी दुनिया में काम कर रही हैं उनका रवैया समाजवादी किस्म का नहीं है। वह बाजार के सहारे जनता की भलाई का सपना देखने वाली सरकारें हैं। इनको सलाह देने वाले अर्थशास्त्री उदारवादी धड़े से आते हैं। इनके मुँह से मिनिमम  इनकम जैसी अच्छी बातें सुनकर यह लगता है कि यह एक तरफ से पैसा देंगी और दूसरी तरफ यह कहेंगी कि अब हम सभी नागरिकों को पैसा दे रहे हैं इसलिए आरक्षण जैसी व्यवस्था ख़ारिज की जाती है। सिद्धांत में मिनिमम इनकम शब्द जितना अच्छा लगता है, हमारी व्यवहारिक राजनीति इसे इतना ही खौफनाक बनाती है। अगर केवल इस सोच के आधार पर इसे लागू किया जाए कि जन्म से ही हर इंसान अपनी बुनियादी जरूरतों का हकदार होता है तो यह सही है लेकिन इसके पीछे अगर यह मंशा हो कि सरकार का मतलब केवल बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी को पैसा देना है तो यह बिलकुल गलत है। फिर भी इस समय के राजनीतिक परिवेश में  यह एक अच्छी पहल है, जिसपर पुरजोर तरीके से चर्चा की जानी चाहिए।  

वरिष्ठ पत्रकर नितिन सेठी अपने ट्ववीट में कहते हैं कि इस घोषणा के सामने इस बार बजट में किसानों को दी जाने वाली आय जैसी योजना कुछ भी नहीं है। ऐसी घोषणाओं की इस समय सबसे बड़ी खासियत यह भी है कि गरीबों के लिए योजनाएं बनाने को लेकर ऐसी योजनाएं एक सीमा तय कर देती हैं यानी   इस समय की मौजूदा सरकार से लेकर आने वाली कोई भी सरकार गरीबों के लिए इनकम ट्रांसफर से जुड़ी अब जब भी कोई योजना बनाएगी तो इससे अधिक की ही बनाएगी।  

इस तरह से इस योजना ने अभी हाल फिलाहल विपक्ष की तरफ से गरीबों के लिए एक तरह से  उम्मीद जगाई है।  चुनावी राजनीति में ऐसी उम्मीदों की बहुत जरूररत होती है। जहाँ जनता को लगे कि चुनाव के बाद उसे  कुछ मिलेगा। नरेंद्र मोदी यह काम करने में माहिर रहे हैं।  किसानों को दो गुनी आय, किसानों को अपनी उपज की लागत का 50 फीसदी से अधिक देने जैसे वादे भले इस समय जुमले जैसे लगते हों लेकिन असलियत यह है कि वही वह वादे होते हैं जिनसे आम जन किसी राजनितिक दल से जुड़ाव महसूस करता है। अभी हाल फ़िलहाल  नरेंद्र मोदी की बिना गणित के वायदे या चुनावी जुमले  से ज्यादा बेहतर राहुल गांधी की न्याय स्कीम लग रही है। अंत में यह कहा जा सकता हैं कि  यह बात भी सही है कि आगे इस योजना को लागू करने में भी बहुत परेशानियां आएँगी जो किसी विकृत योजना को लागू करने से होती है।   जैसे कि किन लोगों को लाभ मिलेगा और लाभ समय देगा और   अधिक लूट का सामना करना पड़ेगा।   लेकिन हकीकत यही है कि ऐसी ही गरीब उन्मुख योजना से लोककल्याण के चेस को थोड़ा सा घुमाया जाता है।   इसलिए ज़रूरी है कि ऐसी योजना पर गंभीर चर्चा की जाए।

 

 

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