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राजनीति
क्षणिक सफलता नहीं: लोजपा का बंटवारा बिहार में दलित राजनीति को बना या बिगाड़ सकता है
बिहार में रामविलास पासवान की विरासत पर हिंदुत्व-समर्थक और दलितों के एकांतिक दावे।
मोहम्मद सज्जाद
24 Jun 2021
क्षणिक सफलता नहीं: लोजपा का बंटवारा बिहार में दलित राजनीति को बना या बिगाड़ सकता है
छवि सौजन्य: न्यू इंडियन एक्सप्रेस 

बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते हैं कि स्वर्गीय रामविलास पासवान अपनी पसंद के जिस चुनावी गठबंधन में होते या उसका समर्थन करते, उसको पांच से छह फीसदी अधिक वोट तो दिला ही देते थे। अपनी पार्टी लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के मतों को पसंदीदा दलों या गठबंधन को स्थानांतरित कर देने की उनकी अमोघ क्षमता ने बिहार के चुनावी परिणामों पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाला था। और इसी क्षमता ने पासवान को प्रदेश एवं देश की राजनीति में समय-समय पर बनने वाले अलग-अलग सत्ताधारी गठबंधनों के साथ सौदेबाजी की ताकत दी थी। यही वजह है कि लोजपा में हालिया पड़ी फांक-पासवान के निधन के महज आठ महीने बाद-होने के खास मायने हैं। बिहार की कुल आबादी में दलितों की तादाद 16 फीसदी हैं और पासवान या दुसाध समुदाय, जो लोजपा के कोर वोटर हैं, वे राज्य की कुल दलित आबादी के लगभग 30 फीसदी हैं। 

लोजपा में दरार

कुछ विश्लेषक कहेंगे कि रामविलास पासवान ने अपने जीवनकाल में ही बेटे चिराग पासवान को अपने उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत कर दिया था। वे कहेंगे कि पशुपति पासवान अपने राजनीतिक सौभाग्य के लिए अपने बड़े भाई रामविलास के प्रति एहसानमंद हैं। इसीलिए चिराग को अंतोतगत्वा अपने समुदाय में स्वीकार्यता मिल जाएगी और पारस विश्वासघाती माना जाएगा। अनेक विश्लेषकों का तर्क है कि न तो चिराग और न पशुपति का ही सरजमीनी कार्यकर्ताओं के साथ मायनेखेज जुड़ाव है। यदि ऐसा है, तो इसका मतलब यही होगा कि पशुपति ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मदद से ही लोजपा में तख्तापलट किया है। 2008 में नीतीश ने राज्य में 22 दलित समुदायों को लेकर महादलितों की एक श्रेणी बनाई थी। इनमें केवल पासवान के सामाजिक समूह दुसाध को ही महादलित की दहलीज से बाहर रखा गया था, उसको एक दशक बाद ही इसमें शामिल किया जा सका। हालांकि,  इसका सारा श्रेय भाजपा के संजय पासवान ने ले लिया। उनका कहना है कि महादलित की श्रेणी में पासवान समुदाय को शामिल करने की मांग को लेकर बिहार में की गई उनकी पदयात्रा ने ही नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को ऐसा करने पर विवश कर दिया था। इसके बाद यह होगा कि पशुपति को “पासवान-विरोधी” जनता दल (यूनाइटेड) के साथ गठबंधन करने वाले के रूप में देखा जाएगा। स्वाभाविक है, यह पासवान समुदाय के सामूहिक हितों के द्रोही की उनकी छवि को और मजबूती ही प्रदान करेगा।

 हालांकि, इसमें और भी बहुत सारी बातें हैं। लोजपा के दो धड़े बनना चाहनेवाले किस अनुपात में पासवान वोट एक दूसरे से छीन ले जाएंगे, उसी मात्रा में, वे एक दूसरे की निर्वाचन ताकत को चोटिल करेंगे। यह समुदाय की सौदेबाजी की क्षमता को कमजोर करेगी, दो अलग होने वाले धड़े को बेअसर बनाएगी, और यह स्थिति सिर्फ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ही मदद करेगी, जो बिहार में जदयू की एक सहयोगी है। ऐसे परिदृश्य में, पासवान सामाजिक समूह राज्य की राजनीति में अपने अपेक्षाकृत महत्व को गंवा देगा, कम से कम अगले चुनाव में। 

हम अभी तक यह नहीं जानते कि, अगर स्थापित दलित सेना रामविलास पशुपति (जो वर्तमान में इसके कर्ता-धर्ता हैं) के प्रति निष्ठावान रहेगी या फिर चिराग सभी पासवान वोटों को एकमुश्त ही हड़प कर जाएंगे। 2020 में हुए बिहार विधान सभा चुनाव में, यकीकन उनके उम्मीदवारों को चौतरफा समर्थन मिला था, जिन्होंने चुनावी घुड़दौड़ में नीतीश कुमार और उनकी जद यू को काफी हद तक चोटिल कर दिया था।

चिराग अभी तीसेक की अवस्था में हैं और वे काफी जवान हैं। लंबा सफर तय करने के लिए उनके पास लंबा समय भी है। हालांकि उनके लिए समर्थकों के बीच जा कर अपनी साख स्थापित करना तथा अपनी करिश्मा का प्रदर्शन करना अब लाजमी हो गया है। उन्हें अपनी काबिलियत साबित करनी है, और यह काफी विकट चुनौती है। सिर्फ अपने पिता की गैरहाजिरी ही नहीं, चिराग के पास केंद्र की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) वाली नरेन्द्र मोदी सरकार में कोई मंत्री पद नहीं रहने से उनकी क्षमता सीमित हो गई है, जबकि लोजपा और भाजपा 2014 से ही परस्पर सहयोगी हैं। चिराग के पास वितरण करने की उदारता नहीं होगी और जब सत्ता की लूट में उनकी कोई भागीदारी नहीं है तो उन्हें संरक्षक-ग्राहक संबंध बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

दलित राजनीति के इतिहास में सूत्र 

आजादी के बाद, बिहार के दलित का पहला महत्वपूर्ण राजनीतिक उभार 1967 में किया गया था। उनकी अभिव्यक्ति सशस्त्र संघर्ष की एक अतिरिक्त-संसदीय राजनीति नक्सलवाद के माध्यम से हुई थी। इसके तत्तकाल बाद, रामविलास पासवान 1969 में अलौली (खगड़िया) चुनाव जीत कर बिहार विधानसभा में दाखिल हुए थे। इस नक्सली आंदोलन ने दलितों में खेतिहर मजदूरों को लामबंद करने में मदद की थी औऱ इसने कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टियों द्वारा अपनाई जा रही दलितों की मध्यवर्गीय संसदीय राजनीति के समानांतर एक धारा बनानी दी थी। नक्सली आंदोलन ने कमजोर वर्गों को समग्र रूप से समाज के लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया से जोड़ने की मांग में भी मदद की थी। “गैर-सीमित” मसलों, जैसे बिहार प्रेस बिल, 1982 से अपनी सहभागिता के जरिए इसने दलित आंदोलन के बाहर अपने लिए एक बेहद मजबूत सामाजिक-राजनीतिक ताकत का निर्माण किया।

1971 की जनगणना के मुताबिक बिहार की कुल आबादी का लगभग 39 फ़ीसदी खेतिहर-मजदूर का था, जिनमें बड़ा हिस्सा दलितों का था। बिहार में, 1970 और 1980 के दशकों में हुए दलितों के श्रृंखलाबद्ध संहार की स्पष्ट वजह असमानता थी। 27 मई 1977 को बेलची में कुर्मी भू-स्वामियों ने दलितों का संहार किया था, जिसकी कंपकंपा देने वाली कहानी की याद आज भी बिहार के दलितों में जेहन में है। नीतीश कुमार कुर्मी सामाजिक समूह से ताल्लुक रखते हैं, हालांकि उन्होंने हिंसकों के विरुद्ध खुला रुख अख्तियार किया था। 

1990 के दशक में जैसे ही सियासी बयार बदली, बिहार के दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित हो गई। रामविलास पासवान 1977 से लेकर अपने जीवनपर्यंत बिहार की राजनीति में सर्वाधिक प्रमुख दलित चेहरा बने रहे थे। उन्होंने कांग्रेस विरोधी समाजवादी राजनीति का कड़ाई से अनुसरण किया, किंतु वे नक्सली बने ग्रामीणों के प्रति भी सहानुभूतिशील बने रहे थे।

पासवान/दुसाध समुदाय के प्रति हमारी समझ 

पासवान समुदाय लामबंदी के अपने इतिहास पर गर्व करता है। 1857 के बाद, इस समुदाय के लोगों को चौकीदार के रूप में भर्ती की गई थी। वे जमींदारों के लिए, जो मुख्य रूप से कर समायोजन का काम करते थे, के लठैत का काम भी करते थे। इसीलिए कहा जाता है कि उर्दू लहजे में उस समूह को पासबान (नजदीकी सहायक या संरक्षक) की पदवी दी गई थी। 

1981 में पासवान ने एक जाति संगठन खड़ा किया था, जिसने खुद को क्षत्रिय का दर्जा देने की मांग की थी। अपने गहन अनुसंधान पर आधारित एक किताब “स्वर्ग पर दावा : बिहार में दलित आंदोलन 1912-2000” में प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत ने 1913 से 1915 के बीच दुसाधों द्वारा निकाली गई कई जाति रैलियों के बारे में लिखा है। इसमें दुसाध होने आत्मसम्मान से जुड़े मसले को उठाया था और जनेऊ पहनने का अधिकार दिए जाने की मांग की थी, श्रम की गरिमा का उत्सव मनाया था, अपनी जाति के नायकों का स्मरण किया था, इसी तरह की कुछ और बातें थीं। अप्रैल 1937 में, प्रांतीय मंत्रियों के गठन के ठीक आसपास, दुसाध स्वयं को “राजपूत” का दर्जा दिए जाने के दावे पर दो धड़ों में बंट गए थे। 

क्या आज बिहार के दलितों में इस तरह का ताकतवर दावा या आंदोलन चल रहा है?  निश्चित रूप से नहीं। और तो और, ऐसा प्रतीत होता है कि नव-हिंदुत्व ने अधिकतर दलित नेताओं को अपने में सहयोजित कर लिया है। हालांकि इन नेताओं को किसी भी वास्तविक अर्थ में दलित-उन्मुखी राजनीति की पहल करने का कोई अवसर या स्थान नहीं दिया गया है। जुलाई 2016 में हुई एक घटना इसका गवाह है, जब मुजफ्फरपुर जिले के पारो प्रखंड में भूमिहारों द्वारा पासवान दलितों के प्रति ढाये गए जुल्म पर लोजपा ने चुप्पी साध ली थी। 

आज के दौर में, दलित मध्यवर्ग का एक अच्छा खासा अनुपात केसरिया रंग में रंगा हुआ प्रतीत होता है। इसके सदस्य स्वयं को हिंदू समाज के विरोधी संदर्भ में परिभाषित करने की बजाय को हिंदू घेरे में अपने लिए अधिक सम्मानजनक स्थान की चाह रखते हैं। संक्षेप में, ब्राह्मणवादी और मनुवादी ताकतों के खिलाफ दलितों की लामबंद करने की पुराने जमाने की भाषणबाजी का वह मकसद नहीं रहा क्योंकि नव-हिंदुत्व के पास राज शक्ति और सामाजिक-राजनीतिक आधिपत्य है। [उदाहरण के लिए, चिराग लगभग अपने समवयस्कों; राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव एवं पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के जैसी वाकपटुता का प्रदर्शन बहुत ही कम करते हैं।) 

पिछड़े या दलित सामाजिक ताकतों की राजनीतिक गतिशीलता के बारे में हिंदुत्व मिथक-निर्माण और स्मृति-निर्माण मुस्लिम सत्ता से लड़ने के उनके "इतिहास" पर आधारित है। यह मुसलमानों के खिलाफ दलित ऊर्जाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता है और हिंदुओं को एकजुट करने तथा मुस्लिमों के खिलाफ अदावत पैदा करने की हिंदुत्व के प्रोजेक्ट को ताकत देता है। 

आखिरकार, बिहार में कई दलित समूहों के अब अपने नेता हैं, जिनका आज की दखलकारी राजनीतिक ताकतों में किसी एक या दूसरे के साथ गठबंधन है। उदाहरण के लिए, दलितों के मुशहर समुदाय के नेता राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं। धोबी समुदाय के नेता राजद के श्याम रजक हैं। वैसे ही, रमई राम, जो अब बुजुर्ग एवं लगभग चुकी हुई ताकत हैं, वे रविदास समुदाय के नेता हैं, जिसका पिछले अनेक दशकों से पासवान समुदाय के साथ प्रतिद्वंद्वतापूर्ण चुनावी-राजनीतिक संबंध है। 

इसलिए, चिराग अगरचे बिहार के 23 दलित समुदायों का स्वीकार्य नेता नहीं भी बनते हैं तो भी उनके सामने पासवान राजनीति के एक सर्वाधिक प्रमुख चेहरा बन कर उभरने की चुनौती है। कोविड-19 वैश्विक महामारी के बावजूद, उन्होंने अपने पिता की पुण्यतिथि 5 जुलाई से बिहार में रोड शो करने और आशीर्वाद यात्रा की योजना बनाई है। सवाल है कि ऐसे “हथकंडों” से क्या कुछ हासिल कर पाएंगे?  अभी तक तो वह अपनी शख्सियत और सियासत में वह खिंचाव पैदा करने में कामयाब नहीं रहे हैं। वह बिहार की भाषाओं और बोलियों में मुश्किल से बात कर पाते हैं। फिर भी, तेजस्वी के साथ उनके बीच संवाद होने के संकेत मिले हैं किंतु क्या वे उनकी राजनीति में सहयोगी होंगे, और क्या यह उनके खुद के नेतृत्व पर सान चढ़ाने में मदद कर सकता है? यह कहना जल्दबाजी होगी। 

चिराग ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए अपने “स्नेह” का नियमित रूप से इजहार किया है, यहां तक कि वे खुद को मोदी का हनुमान बुलाते रहे हैं। हिंदुत्व के प्रति उनके इस अनुराग को देखते हुए, क्या तेजस्वी उनके साथ गलबहियां करने में खुद को मुफीद महसूस करेंगे? यह एक अहम सवाल है, क्योंकि मिथकों को कायम करने की राजनीति में, जो “स्मृतियों” के निर्माण एवं लोकप्रियता की मांग करती है, दलित समुदायों को प्राय: ही पूर्व-आधुनिक या औपनिवेशिक युग में मुस्लिम ताकतों के विरुद्ध प्रतिरोधक शक्ति के रूप में प्रोजेक्ट किया जाता रहा है। उदाहरण के लिए, भाजपा नेताओं ने दावा किया है कि दुसाध राजस्थान के गहलौत राजपूत हैं, जो मुगलों के साथ जंग करते हुए बिहार आ गए थे और यहीं के होकर रह गए थे! यह भी दावा किया गया है कि दुसाधों ने 1757 में पलासी के युद्ध में सिराज ऊद दौलाह के खिलाफ ब्रिटिश का साथ दिया था। 

नंदिनी गोप्तू [दि पॉलिटिक्स ऑफ अर्बन पुअर, 2001] और चारु गुप्ता [सेक्सुअलिटि, अब्सेनिटि, कम्युनिटी,2001] जैसे इतिहासकारों ने 1920 और 1930 के दशकों में उत्तर भारत में, ऐसे बहुसंख्यक मिथक-निर्माण और राजनीतिक गतिशीलता के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। प्रत्येक में, दलित समूह को मुस्लिम समुदायों के विरुद्ध खड़ा किया गया है, भले ही राजनीतिक लामबंदी उपनिवेश विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के तेजी से बढ़ते आधार के संदर्भ में क्यों न हुई हो।

 यह भी गौर करने वाली बात है कि अखिलेश और तेजस्वी ने अपनी पार्टियों के आधार को व्यापक और विविधतापूर्ण बनाने के लिए स्पष्ट प्रयास किए हैं। अभी उन्होंने एक ऐसे नेता को उपमुख्यमंत्री के लिए तैयार नहीं किया है और न उन्हें सामने लाया है, जो समाज के नए धड़े का या व्यापक समाज का प्रतिनिधित्व कर सके, यह काम अभी बाकी है। बेलाग कहें तो, कई गैर-हिंदुत्व क्षेत्रीय राजनीतिक संरचनाओं को सामंजस्य की भावना का प्रदर्शन करना बाकी है। किंतु सियासत सहसा करवट बदल सकती है, और इसीलिए, चिराग-तेजस्वी के बीच गठबंधन की संभावना को देखना दिलचस्प होगा। 

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आधुनिक एवं समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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