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कोविड-19: जब खंडन-मंडन की कला विज्ञान का विकल्प बन जाए
ब्राजील में मरीज़ों की बढ़ती संख्या इस बात का सुबूत पेश कर रही है कि प्रोफ़ेसर बेदा एम स्टैडलर के लगभग कुछ भी नहीं किये जाने का हल तो इसका बिल्कुल भी हल नहीं है।
सत्यजीत रथ
14 Jul 2020
covid-19

प्रोफ़ेसर बेदा एम स्टैडलर (बर्न विश्वविद्यालय में इंस्टीट्यूट फ़ॉर इम्यूनोलॉजी के पूर्व निदेशक) ने अपने ब्लॉग, मीडिया में लिखा है: "कोरोनावायरस धीरे-धीरे पीछे हट रहा है...विशेषज्ञ इसके बुनियादी संपर्क को असल में समझ नहीं पाये। इस वायरस के ख़िलाफ़ जितनी इम्युनिटी को लेकर हमने सोचा था,इम्युनिटी दरअस्ल उससे कहीं ज़्यादा मज़बूत है।” बेदा लॉकडाउन, मास्क के ख़िलाफ़ भी तर्क देते हैं, और ऐसा लगता है कि वह कुछ भी नहीं किये जाने की नीति की वक़ालत करते हैं और उन्हें लगता है कि यह महामारी बस यों ही ख़त्म हो जायेगी। वह तो यहां तक लिखते हैं कि SARS-CoV-2 वैश्विक रूप से ग़ायब हो रहा है। 2 जुलाई, 2020 के अपने एक लेख में वे लिखते हैं, 'वायरस पीछे हट रहा है' और 'अब ख़त्म हो गया है', अगर यह दुखद रूप से इतना ग़लत नहीं होता, तो उनका ऐसा लिखना हास्यास्पद है।

अफ़सोस की बात है कि स्टैडलर जो मुद्दे उठा रहे हैं,उनमें से जो कुछ उचित भी हैं, उन्हें जब विवादास्पद बना दिया जाता है, तो ऐसे में ये मुद्दे जिस तर्कशीलता के साथ शुरू होते हैं,वे भी खो जाते हैं। इस प्रक्रिया में एक बिजूका तैयार कर देते हैं, उन्हें मारकर नीचे गिरा देते हैं, और उस तरह के निष्कर्षों पर चले जाते हैं,जिसका आधार आंकड़ें या तर्क नहीं हैं।

आइए हम उनकी कुछ दलीलों पर नज़र डालें

स्टैडलर दावा करते हैं, "Sars-Cov-2, इस तरह के सभी वायरस नये बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि सिर्फ़ एक मौसमी ठंडा वायरस है,जो गर्मियों में रूपांतरित हो जाता है और ग़ायब हो जाता है, इसी तरह की प्रकृति उन सभी ठंडे वायरस की होती है,जिन्हें कि हम अभी विश्व स्तर पर देख रहे हैं।"

उनके दावे के विपरीत, कोई भी इस बात को कहने का साहस नहीं कर रहा है कि SARS-CoV-2 अपने पूरे अनुक्रम में एक 'नया वायरस' है! लेकिन इसका मतलब यह नहीं है, जैसा कि उनका तात्पर्य है कि सभी ‘ठंडे वायरस’ कोरोनावायरस ही हैं और सभी ठंडे वायरस 'गर्मियों में रूपांतरित और ग़ायब' हो जायेंगे; ऐसा तो बिल्कुल नहीं है, क्योंकि वे सभी गर्मियों में ग़ायब नहीं होते हैं, और न ही रूपांतरित होते हैं।

स्टैडलर का दावा है कि लोगों ने "इम्युनिटी नहीं होने की परी कथा का दुष्प्रचार किया है, यह भी एक दुष्प्रचार ही है कि यह वायरस विशेष रूप से ख़तरनाक है, क्योंकि इसके ख़िलाफ़ कोई इम्युनिटी नहीं है, क्योंकि यह एक नया वायरस है।" असल में स्टैडलर का पूरा वाक्य ही किसी मनगढ़ंत बिजूके के ऊपर लक्ष्य साधने जैसा है; अभी तक किसी ने ऐसा नहीं कहा है या नहीं कह रहा है। वास्तविक संभावना,जिसके बारे में सबका विचार लगभग एक ही है,और वह ठीक भी है कि इस क्षेत्र के ज़्यादातर लोग इस बात पर चर्चा करते रहे हैं कि SARS-CoV-2 के ख़िलाफ़ पहले से मौजूद किसी भी तरह के प्रभावी सुरक्षात्मक इम्युनिटी के होने की कोई भी संभावना नहीं दिखती है।

SARS-CoV-2 के पहले से संपर्क की मौजूदगी नहीं होने की स्थिति में ऐसी इम्युनिटी दूसरे सम्बन्धित 'कोरोनावायरसों' के संपर्क से आयेगी। लेकिन,ऐसा मामला दिखता नहीं है, और इसलिए, हमारे पास पहले से संपर्क से विकसित होने वाली कोई अतिरिक्त इम्युनिटी नहीं है। जब हम SARS-CoV-2 (और फिर SARS-CoV-2 रोधी इम्युनिटी विकसित करते हैं) उनके संपर्क में आते हैं,तो हममें से अधिकांश के संक्रमित होने की आशंका होती है। इसलिए, इस वायरस के संचरण की दर काफी ज़्यादा है, इससे इसके संक्रण में तेज़ी से फैलने में मदद मिलती है। ऐसे में गंभीर बीमारियों के मामलों का एक छोटा सा हिस्सा भी तब अस्पताल की सुविधाओं पर भारी पड़ सकता है। इसलिए, यह वायरस समुदाय स्तर पर बेहद ख़तरनाक बन जाता है, हालांकि व्यक्तियों के स्तर पर इतना ख़तरनाक नहीं होता है।

इसके अलावा, स्टैडलर का दावा है, 'फ़्लू वायरस काफ़ी ज़्यादा रूपांतरित होते हैं, और वैसे कोई भी कभी भी यह दावा नहीं करेगा कि एक नया फ़्लू वायरस की यह नस्ल पूरी तरह से नयी थी', वास्तव में इस तरह का दावा व्यावहारिक टीकाकरण नीतियों के संदर्भ में ग़लत है। उदाहरण के लिए, हम वास्तव में प्रत्येक आने वाले मौसम में फ़्लू वायरस की नयी 'नस्ल' को खोजने / भविष्यवाणी करने की कोशिश करते हैं, और उस नस्ल के अनुरूप नये वैक्सीन समूह का निर्माण करते हैं।

जैसा कि स्टैडलर दावा करते हैं कि SARS-CoV-1 और SARS-CoV-2 के बीच आपसी प्रतिरोध का कुछ स्तर है? हां है। लेकिन,ख़ास तौर पर SARS-CoV-1 व्यापक रूप से नहीं फैला है, (शुक्र है, क्योंकि इसकी घातकता दर बहुत अधिक है !) इसलिए SARS-CoV-1 संपर्क के कारण उस इम्युनिटी का SARS-CoV-2 के वैश्विक प्रसार की दर को समझाने का कोई बहुत अहमियत नहीं है

उनका अस्पष्ट दावा है कि ग़ैर-सार्स बीटा-कोरोनवायरस ( मिसाल के तौर पर 'कोल्ड वायरस' ,जिसके बारे में वह हमेशा चर्चा करते रहते हैं), SARS-CoV-2 के ख़िलाफ़ परस्पर-प्रतिक्रियाशील(cross-reactive) इम्युनिटी प्रदान करते हैं, हालांकि इसकी तलाश होने के बावजूद इसका कोई सबूत नहीं हैं। तो क्या वास्तव में ऐसी कोई क्रॉस-रिएक्टिविटी बिल्कुल ही नहीं है? ज़रूर है। लेकिन, सबूत (उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र के बिना समीक्षा वाला थिएल और ड्रोस्टन का शोध ,जिसका हवाला स्टैडलर देते हैं, और सेल में एलेसेंड्रो सेट्टे के पेपर से) बताते हैं कि इसकी परस्पर-स्वीकृती(cross-recognition) काफ़ी मामूली स्तर वाली है। यहां बुनियादी बात यही है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि परस्पर-स्वीकृति का यह मामूली स्तर किसी भी क्रॉस-प्रोटेक्शन की गुंज़ाइश बनाता है। और यही कारण है कि SARS-CoV-2 प्रतिरक्षा सुरक्षा के मामले में मनुष्यों के लिए यह एक नया वायरस है।

जो दावा SARS-CoV-2 के ख़िलाफ़ सेरोप्रिवलेंस (जो SARS-CoV-2 के संपर्क में आने का संकेत देता है) करता है,वह पहले की तुलना में सोचे गये (जो कि स्टैडलर की आयोनिडिस वाली  कहानी में निहित है) दावे से कहीं बहुत ज़्यादा है, ठीक उसी तरह, जिस तरह से उन्होंने उसके बारे में सोचा था,उससे कहीं ज़्यादा यह अनिश्चित है।

यह सच है कि लॉस एंजिल्स काउंटी (जय भट्टाचार्य के स्टैनफोर्ड अध्ययन, जिसे स्टैडलर,जॉन पी ए इयोनिडिस को एक सह-लेखक के रूप में संदर्भित करते हैं) के एक समीक्षा नहीं किये गये प्रारंभिक प्रकाशन से पता चलता है SARS-CoV-2 के लिए सामुदायिक संपर्क संभवतः लक्षणहीन संक्रमण के रूप में एक बड़े पैमाने पर हो सकता है। यही वह तथ्य है,जिसके बारे में अप्रेल 2020 से भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) अपने अनियोजित सिरेप्रिवलेंस डेटा के ज़रिये कहती रही है। गणितीय स्तर पर कई तकनीकी समस्याओं और संभावित चयन पूर्वाग्रहों के प्रश्न को स्टैनफोर्ड अध्ययन में बड़ी संख्या में पोज़िटिव माने गये लोगों को लेकर उठाये गये हैं। इसके अलावे कोई शक नहीं कि ऐसा लगता है कि वास्तव में आईसीएमआर डेटा को किसी ने देखा नहीं है।

इन मुद्दों को छोड़ते हुए दो बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। सबसे पहले तो दोनों में से किसी रिपोर्ट में इस बात का कोई संकेत या सुझाव नहीं था कि ग़ैर-सार्स-सीओवी-2 वायरस के संपर्क में होने के कारण सर्पोप्रवलेंस था, जिसके संदर्भ में स्टैडलर उन्हें संदर्भित करते हैं।

दूसरा कि अब अधिक सिरेप्रिवलेंस के अध्ययन सामने आ रहे हैं- एक अध्ययन स्टैडलर के स्विट्जरलैंड में जिनेवा कैंटन से, दूसरा अध्ययन स्पेन से (दोनों ही अध्ययनों की समीक्षा की जा चुकी है और दोनों ही प्रकाशित हैं)। स्टैनफोर्ड अध्ययन से जिस तरह की हमें उम्मीद रही होगी,और जिसका उल्लेख स्टैडलर ने किया था, यह अध्ययन उससे कहीं कम स्तर के सेरोप्रिवलेंस को दर्शाता है।

डेटा अनिश्चित हैं और धीरे-धीरे सामने आते हैं। लेकिन, उनसे अब संकेत मिलना शुरू हो गया है कि SARS-CoV-2 की संक्रमण दर, मौसमी फ़्लू या सामान्य जुकाम के विषाणुओं की तुलना में  0.5% ज़्यादा हो सकती है। यह सिर्फ एक साधारण फ़्लू या एक ठंडा वायरस नहीं है, हालांकि यह सौभाग्य से SARS-CoV-1 या MERS-CoV-1 जैसा कुछ भी नहीं है। इसीलिए स्थिति ऐसी है कि यह वायरस समुदायों के लिए ख़तरनाक है, हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर यह इतना ख़तरनाक नहीं है, इस समय उपलब्ध साक्ष्य से अच्छी तरह से परिपुष्ट भी है।

स्टैडलर सबसे निराशावादी महामारी विज्ञान मॉडल की नाकामी के सच होने (अब तक!) की तरफ़  इशारा करते हैं, क्योंकि वह बताते हैं कि महामारी विज्ञानी आबादी में मौजूदा इम्युनिटी को नहीं समझ पाए हैं, और क्योंकि 'कोरोनवायरस मौसमी तौर पर ठंडे वायरस हैं, जो गर्मियों में ग़ायब हो जायेंगे'। दोनों में से कोई भी सच नहीं है; ऐसा सिर्फ़ इसलिए है,क्योंकि महामारी विज्ञान के मॉडल बहुत वृहत नहीं हैं।

इसके अलावे स्टैडलर टिप्पणी करते हुए कहते हैं,'मुझे अभी तक यह समझ नहीं आया है कि जितने लोगों को बचाया जा सकता है,उसके बजाय महामारी विज्ञानियों को मौतों की संख्या में इतनी ज़्यादा दिलचस्पी क्यों थी, दुख की बात है, एक हद तक घोर अपमान की बात है कि कोई महामारी वैज्ञानिक लायक नहीं है, वास्तव में कोई शोधकर्ता भी लायक नहीं है।

स्टैडलर का कहना है कि कोच (डैनियल कोच, स्विस फ़ेडरल पब्लिक हेल्थ ऑफ़ कम्यूनिकेबल डिजीज ऑफ़िस के पूर्व प्रमुख) का दावा है कि बच्चे महामारी के संचालक कारक नहीं हैं, यह बात सही है। स्टैडलर का दावा है, 'दस साल से कम उम्र का लगभग कोई भी बच्चा बीमार नहीं हुआ है, सभी के सामने यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि बच्चे स्पष्ट रूप से प्रतिरक्षात्मक होने चाहिए।'

लक्षणहीन होने और संचालक कारक होने के बीच यहां एक बड़ी ग़लतफ़हमी है। किसी भी संक्रमण में यदि सभी संक्रमित व्यक्तियों (केवल किशोर नहीं) की एक बड़ी संख्या लक्षणहीन हैं, फिर भी कुछ दिनों के लिए उचित मात्रा में वायरस फैलाते हैं, तो वे संचरण का एक संभावित स्रोत हैं। इसलिए, ऐसे लोग,जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, दूसरों को संक्रमण पहुंचायेंगे, जिनमें से कुछ सह-रुग्णता के कारण अधिक जोखिम वाले लोग होते हैं। बच्चों में (सौभाग्य से) बहुत कम सह-रुग्णता (Co-morbidity) होती है। 'बीमारी' (लक्षण और संकेत) और एक 'संक्रमण' (जरूरी नहीं कि पर्याप्त लक्षणों और संकेतों के साथ) एक दूसरे से सम्बन्धित हैं, लेकिन ये अलग-अलग मामले हैं, और एक-दूसरे के साथ समानता स्थापित नहीं की जा सकती है। 

कोई शक नहीं कि स्टैडलर के पास इन बारीकियों में से कोई बारीकी नहीं होगी। अस्ल में वे कहते हैं:

'लेकिन लगता है कि यह सामान्य बोध भी कई लोगों के हाथ नहीं आता, उन्हें महज मज़ाक के लिए "इम्युनिटी को नकारने वाला" कहा जाय। इन्कार करने वाले इस नई नस्ल को यह देखना चाहिए था कि इस वायरस के परीक्षण में पोज़िटिव पाये जाने वाले अधिकांश लोगों के गले में यह वायरस मौजूद था, मगर वे बीमार नहीं हुए। "मूक वाहक" जैसा शब्द जादू की एक टोपी से बाहर निकाल लिया गया और यह दावा किया गया कि बिना लक्षण के भी कोई बीमार हो सकता है।'

मुझे खेद है, लेकिन अब उसने मुझे पूरी तरह से भुला दिया है, क्योंकि संक्रामक रोगाणुओं के मूक वाहक के चिकित्सा पाठ्यपुस्तकों में पहले से ही कई उदाहरण हैं। यहां तक कि 'लक्षणहीन वाहक' के लिए एक विकिपीडिया पृष्ठ भी है ! टाइफ़ॉयड मैरी को याद करें?

SARS-CoV2 के लिए qRT-PCR परीक्षणों की स्टैडलर की आलोचना इसी तरह तर्कसंग से चलते हुए त्रुटिपूर्ण हो जाती है। वे इस बात को लेकर बहुत हद तक सही हैं कि ये परीक्षण 'जीवित' संक्रामक वायरस और वायरल मलबे के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं। लेकिन, यदि सभी वायरल मलबे के साथ पोजिटिविटी का परीक्षण नहीं करते हैं,तो वे सबसे बराबरी करते रहते हैं। उनकी समझ के साथ परेशानी यही है कि अगर वायरस के कण क्षतिग्रस्त हो जाते हैं (और ग़ैर-संक्रामक बनाते हैं), तो उनमें काफ़ी तेज़ी से गिरावट आती है, क्योंकि वे खुद को दुरुस्त नहीं कर सकते हैं। तो वायरल आरएनए और संक्रामक वायरस का पता लगाने के बीच का संबंध, जो कि पूर्ण तो नहीं है, लेकिन काफ़ी मज़बूत है। यह ख़ास तौर पर सच है, क्योंकि qRT-PCR-SARAR-CoV-2 वायरल आरएनए स्तरों का पता लगाया जाता है, जो कि अधिकांश कथित 'पोज़िटिव' नमूनों में अहम हैं।

स्टैडलर दावा करते हैं, 'लेकिन, एक खराब आहार वाले या कुपोषित लोगों में भी कमज़ोर इम्युनिटी प्रणाली हो सकती है, यही वजह है कि यह वायरस न केवल किसी देश की चिकित्सा समस्याओं, बल्कि सामाजिक मुद्दों को भी सामने ला देता है।' यह इस समस्या का एक अनुचित अतिसरलीकरण है। वास्तविक सबूत किसी भी व्यापक पैमाने पर आम तौर पर 'कमज़ोर इम्युनिटी प्रणाली' के तर्कों को पुष्ट नहीं करते हैं। यहां तक कि हल्के प्रोटीन-कैलोरी की कमी वाला पोषण भी इम्युनिटी प्रतिक्रियाओं को कम नहीं करता है।

स्टैडलर इस बात को लेकर दावा करते हैं कि एंटीबॉडी का अपर्याप्त स्तर टी सेल की माध्यमिक साइटोकिन तूफानों को जन्म देता है, यह इसमें शामिल प्रणाली की सामान्य समझ और कोविड-19-विशिष्ट प्रमाण,दोनों से अपुष्ट है। वास्तव में हल्के लक्षणों वाले लोगों की तुलना में गंभीर बीमारी वाले रोगियों में एंटी-एसएआरएस-सीओवी-2 एंटीबॉडी का स्तर अधिक होता है।

उनका निहितार्थ यह है कि प्लाज़्मा थिरेपी विशेष रूप से SARS-CoV-2-कावासाकी सिंड्रोम वाले बच्चों के लिए अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन तथ्य उससे अलग है,जो कुछ डेटा बताता है। वास्तव में सभी गंभीर कोविड-19 बीमारी को लेकर प्लाज़्मा थिरेपी का मूल्यांकन अभी भी किया जा रहा है, और हालांकि कुछ अध्ययनों में प्लाज़मा थिरेपी की कुछ उपयोगिता ज़रूर दिखी है, लेकिन किसी तरह का आकस्मिक इलाज का पता नहीं चल पाया है (इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, लेकिन इसकी व्याख्या हमें स्टैडलर से बहुत दूर कर देगी)।

इसके अलावे अब स्टैडलर कहते हैं, 'जो युवा और स्वस्थ लोग इस समय अपने चेहरे पर मास्क लगाकर घूमते हैं, उनके बजाय उनका हेलमेट पहनना बेहतर होगा, क्योंकि उनके सिर पर किसी चीज़ के गिरने का ख़तरा कोविड-19 के ख़तरे से कहीं गंभीर मामला है। इस बात से वह एक और गहरी ग़लतफ़हमी को सामने रख देते हैं। SARS-CoV-2 महामारी में फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग (वास्तविक डिस्टेंसिंग, मॉस्क पहनना , हाथ धोने जैसे कार्य) जैसे अहम विषय संक्रमण को धीमा करने को लेकर एक सामाजिक ज़िम्मेदारी है, न कि यह ख़ुद के डर को लेकर किया जाने वाला कोई व्यक्तिगत उपाय है। इन सब चीज़ों के इस्तेमाल से हम एक दूसरे की हिफ़ाज़त करते हैं, और इसी तरह हम अपनी भी हिफ़ाज़त करते हैं। यही कारण है कि यह महज़ हेलमेट पहनने जैसा मामला नहीं है। यह वास्तव में स्टैडलर ख़ुद को जोखिम वाले लोगों (सह-रुग्णता वाले लोग, हालांकि वह उन्हें बुजुर्ग के रूप में चिह्नित करते हैं) की सुरक्षा की रणनीति के रूप में जो कुछ सुझाते हैं, उसी का एक घटक है।

स्टैडलर यह भी कहते हैं:

'सामान्य स्थिति की वापसी पर हम नागरिकों के लिए अच्छा होगा अगर कुछ डरा देने वाले लोग माफ़ी मांग लें। जैसे कि वे डॉक्टर, जो 80 साल के कोविड रोगियों के इलाज से वेंटिलेटिंग को हटा लेने के लिए गम्भीर रोगियों को पहले चिकित्सा देने की विधि (triage) को अहमियत देना चाहते हैं। साथ ही मीडिया, जो उस स्थिति का वर्णन करने के लिए इतालवी अस्पतालों के अलार्म वीडियो को दिखा रहा है, जो स्थिति धरातल पर है ही नहीं। सभी राजनेता "परीक्षण, परीक्षण, परीक्षण" का आह्वान करते जा रहे हैं, मगर यह जाने बिना वे परीक्षण की मांग किये जा रहे हैं कि परीक्षण से वास्तव में होता क्या है। इसके अलावा उस ऐप को लेकर वह संघीय सरकार भी हाय-तौबा मचाती है, जो कभी भी काम नहीं करता है, मगर वह ऐप मुझे इस बात को लेकर चेतावनी ज़रूर देगा कि मेरे आस-पास कोई व्यक्ति पोज़िटिव है, भले ही कोई संक्रामक न हों।

वास्तव में यहां जो कुछ स्थिति बनायी जा रही है, वह है क्या? यह कथित खलनायकों का एक बेमेल समूह है। अव्वल तो यह कि किसी ने अपने 'डराने वालों' से यह उम्मीद की होगी कि वे 'नये वायरस' और 'कोई प्रतिरक्षा नहीं' इत्यादि का दावा करेंगे। लेकिन नहीं, बिल्कुल नहीं; उपरोक्त में से कोई भी उस श्रेणी में नहीं आता है!

इटली और स्पेन के चिकित्सक और पत्रकार, जिन्होंने बताया कि मामलों की बढ़ती संख्या के साथ अस्पताल की सुविधाएं बहुत तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं, ये दोनों धरातल पर तथ्यों की रिपोर्टिंग कर रहे थे, मगर वे ऐसी स्थितियों का ज़िक़्र नहीं कर रहे थे,जिसका कोई 'वजूद’ ही नहीं था'। वे राजनेताओं से जुड़े हुए लोग तो नहीं हैं, जो भीड़ इकट्ठा करे, उन्हें अभी तक कम सूचना पाने को लेकर सतर्क किया जा रहा है, और उन उपायों (जैसे कि ऐप) को लेकर आह्वान किया जा रहा है,जो संभव है कि काम ही नहीं करता हो।

फिर भी, स्टैडलर बिल्कुल सही है, क्योंकि बार-बार 'लॉकडाउन' का लगाया जाना अनुचित हैं। लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि लॉकडाउन एक हताशापूर्ण रणनीति है, जिसमें कहा जा रहा है कि सामाजिक एकजुटता के साथ, वंचितों और कमज़ोंरों,संक्रमितों और असंक्रमितों, दोनों ही तरह के लोगों का ख़याल रखते हुए अपने समुदायों में SARS-CoV-2 के प्रसार को धीमा करने को लेकर स्थायी समाधान देने के सिलसिले में हम समाज और सरकारों दोनों के रूप में नाकाम रहे हैं।

अफ़सोसनाक है कि ब्राजील में मरीज़ों की बढ़ती संख्या इस बात का सुबूत पेश कर रही है कि प्रोफ़ेसर बेदा एम स्टैडलर के लगभग कुछ भी नहीं किये जाने का हल तो इसका बिल्कुल भी हल नहीं है।

 लेखक पहले नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इम्यूनोलॉजी, नई दिल्ली के साथ-साथ ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट, फ़रीदाबाद के साथ जुड़े हुए थे। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Covid-19: When Polemics Substitutes for Science

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