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पानी की समस्या और प्रधानमंत्री का ‘जल संरक्षण’ आंदोलन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में पानी की समस्या से जुड़ी चुनौती की जिक्र करते हुए लोगों से ‘जल संरक्षण’ आंदोलन चलाने की अपील की है लेकिन क्या इस विकट समस्या के लिए यह पर्याप्त है।
अमित सिंह
03 Jul 2019
पानी की समस्या और प्रधानमंत्री का ‘जल संरक्षण’ आंदोलन
सांकेतिक तस्वीर। सौजन्य: बीबीसी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रांडिंग में माहिर हैं। किसी समस्या से निपटने के लिए भी वह ब्रांडिंग का सहारा लेते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में ‘मन की बात’ के पहले कार्यक्रम में कहा, ‘मेरा पहला अनुरोध है, जैसे देशवासियों ने स्वच्छता को एक जन आंदोलन का रूप दे दिया। आइए, वैसे ही जल संरक्षण के लिए एक जन आंदोलन की शुरुआत करें।’ 

उन्होंने कहा कि दूसरा अनुरोध यह है कि देश में पानी के संरक्षण के लिए जो पारंपरिक तौर-तरीके सदियों से उपयोग में लाए जा रहे हैं, उन्हें साझा करें। प्रधानमंत्री ने लोगों से अपील की कि जल संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले व्यक्तियों का, स्वयंसेवी संस्थाओं का और इस क्षेत्र में काम करने वाले हर किसी की जानकारी को #जलशक्ति4जलशक्ति के साथ शेयर करें ताकि उनका एक डाटाबेस बनाया जा सके। 

प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद चहुंओर उनकी तारीफ होने लगी। प्रधानमंत्री ने खुद इसे स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के बाद का अगला चरण बताया, हालांकि स्वच्छ भारत अभियान कितना सफल और फायदेमंद रहा, इस पर भी चर्चा ज़रूरी है। लेकिन यह मुद्दा आगे के लिए छोड़ते हुए आज पीने के पानी और भूमिगत जल से जुड़ी समस्याओं पर बात कर लेते हैं। 

पिछले ही हफ्ते लोकसभा से साझा किए केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार इस सरकारी संस्थान ने 6,584ब्लाक, मंडलों, तहसीलों के भूजल के स्तर का मुआयना किया है। इनमें से केवल 4,520 इकाइयां ही सुरक्षित हैं। जबकि1,034 इकाइयों को अत्यधिक दोहन की जाने वाली श्रेणी में डाला गया है। इसमें करीब 681 ब्लाक, मंडल, तालुका के भूजल स्तर में (जो कुल संख्या का दस फीसद है) अर्द्ध विकट श्रेणी में रखा गया है। जबकि 253 को विकट श्रेणी में रखा गया है। 

देश के चार फीसद इलाकों में भूमिगत जल का स्तर इतना गिर चुका है कि इसे 'विकट स्थिति' बताया जा रहा है। हद से ज्यादा भूजल का दोहन करने वाले राज्य हैं-: पंजाब (76 फीसद), राजस्थान (66 फीसद), दिल्ली (56 फीसद) और हरियाणा (54 फीसद) है।
यह आंकड़े सरकार के वर्ष 2013 के मूल्यांकन के आधार पर हैं। यानी पिछले छह सालों में जल की स्थिति क्या है इसके आंकड़े अभी सरकार के पास भी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता से अभियान चलाने का अनुरोध कर लेते हैं लेकिन उन विभागों पर सवाल नहीं उठाते हैं जिनके जिम्मे पानी मुहैया कराने और भूमिगत जल के रिचार्ज का काम हैं। 

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि जल संरक्षण के तौर-तरीकों को अमल में लाने के मामले में सरकारी तंत्र की भूमिका काफी निराशाजनक है। सरकारी तंत्र की ही ढिलाई के कारण देश के एक बड़े हिस्से में आम जनता चाह कर भी जल संरक्षण के काम में हिस्सेदार नहीं बन पाती। परिणाम यह होता है कि बारिश का अधिकांश पानी व्यर्थ चला जाता है।

हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि जल संरक्षण को लेकर तमाम नियम-कानून पहले से ही मौजूद हैं, लेकिन देखने में यही आता है कि वे कागजों तक ही अधिक सीमित हैं। 

ऐसे में प्रधानमंत्री जी, यदि आपको जल संरक्षण के कार्यक्रम को जन आंदोलन बनाना है तो सबसे पहले यह सुनिश्चित करना ही होगा कि बारिश के जल को संरक्षित करने, पानी के दुरुपयोग को रोकने और उसे प्रदूषित होने से बचाने की जो योजनाएं जिस विभाग के तहत आती हैं वे अपना काम मुस्तैदी से करें। यह तभी सुनिश्चित हो पाएगा जब इन विभागों को जवाबदेह बनाने के साथ ही उनके कामकाज की सतत निगरानी भी की जाएगी। यह सक्रियता सतत नजर आनी चाहिए ताकि न केवल बारिश के जल का संरक्षण हो सके, बल्कि पानी की बर्बादी को भी रोका जा सके।

वैसे भी भारत आज भूमिगत जल पर आश्रित अर्थव्यवस्था बन गया है। दुनिया भर में जितना भूमिगत जल इस्तेमाल होता है उसका 25 प्रतिशत भारत में उपयोग होता है। भूमिगत जल के दोहन में हम अमेरिका और चीन से आगे हैं। 

नीति आयोग ने भी कहा कि भारत जिस ढंग से भूमिगत जल का उपयोग कर रहा है, उससे हम इतिहास के सबसे बड़े जल संकट की तरफ बढ़ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह है पानी का सही प्रबंधन न होना और पर्यावरण की सुध न लेना भूमिगत जल का लगातार गहरे में उतरते जाना पर्यावरणीय कारणों से ज्यादा मनुष्यों के क्रियाकलापों का नतीजा है। 

एक समस्या यह भी है कि विभिन्न जल स्रोतों की सही तरह से देखभाल भी नहीं हो रही है। परंपरागत जल श्रोतों को बचाने का जो कार्यक्रम शुरू हुआ था वह कुछ ही स्थानों पर जैसे-तैसे आगे बढ़ता दिख रहा है। नि:संदेह इसकी वजह भी सरकारी तंत्र की शिथिलता ही है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नागपुर ने चेताया है कि नदी जल का 70 प्रतिशत बड़े स्तर पर प्रदूषित हो गया है। भारत की मुख्य नदी व्यवस्था जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, यमुना आदि बड़े पैमाने पर प्रभावित हो चुकी हैं। 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले कार्यकाल में भी गंगा की सफाई को लेकर तमाम वादे और दावे किए थे लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा है। 

दरअसल आज हालात बदतर हो गए हैं। जल प्रदूषण एवं पीने लायक जल की घटती मात्रा एक बड़ी चुनौती बन चुका है। धरती पर जीवन के लिये जल सबसे जरूरी वस्तु है। पीने, नहाने, ऊर्जा उत्पादन, फसलों की सिंचाई, सीवेज के निपटान,उत्पादन प्रक्रिया आदि बहुत उद्देश्यों को पूरा करने के लिये स्वच्छ जल बहुत जरूरी है। लेकिन पर्यावरण में असंतुलन के चलते हमें चेन्नई में सूखा और मुंबई में बाढ़ जैसे हालात का सामना करना पड़ रहा है। 

वैसे भी अपने देश में साल भर में वर्षा से जो जल प्राप्त होता है उसका केवल आठ प्रतिशत ही संरक्षित हो पाता है। एक ऐसे समय जब पानी की कमी से प्रभावित होने वाले इलाकों की संख्या बढ़ती जा रही है तब इसके अलावा और कोई राह नहीं कि पानी बचाने और उसे संरक्षित करने के हरसंभव उपाय किए जाएं। इसे वाकई में जनअभियान बनाया जाए। पिछली तमाम योजनाओं और घोषणाओं की तरह यह सिर्फ सोशल मीडिया अभियान बनकर न रह जाए। 

इसके अलावा एक बड़ा सवाल हमारे विकास के मॉडल को लेकर भी है। अभी हमारे विकास में पानी के दोहन के साथ ही साथ बड़े पैमाने पर जल प्रदूषित भी किया जा रहा है। जनता के विशाल समर्थन के जरिये सत्ता में आई मोदी सरकार को एक ऐसे मॉडल पर भी विचार करना चाहिए जो पर्यावरण के लिए हितकारी हो।

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