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राजनीति
पहले सेब और अब आलूः बर्फबारी से लाहौल के आदिवासी किसान पूरी तरह बर्बाद
कृषि पर निर्भर इस क्षेत्र में, खेत से आलू निकाले जाने ठीक पहले, सिर्फ चार दिनों में आलू की क़ीमत प्रति क्विंटल 1,000 रुपए से अधिक गिर गई है।
मालविका सिंह
19 Nov 2018
Potato farmers in himachal pradesh

ऐसा लगता है कि लाहौल स्पीति के किसानों की परेशानी ख़त्म होने वाली नहीं है। पहले तो उन्होंने 22 सितंबर से 24 सितंबर तक समय से पहले हुई बर्फबारी के चलते अपनी सेब फसल पूरी तरह गँवा दी। अब गुरुवार को फिर हुई बर्फबारी ने आलू की फसल को चौपट कर दिया जो कि खेत से निकाले जाने को पूरी तरह तैयार था। कुछ दिन पहले कुछ किसानों ने आलू निकालना शुरू कर दिया था, लेकिन ख़राब मौसम ने उन्हें यह प्रक्रिया रोकने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हें नहीं पता था कि वे इसे भी पूरी तरह गँवा सकते हैं।

लाहौल में त्रिलोकनाथ के रहने वाले बुद्धि चंद कहते हैं कि, "ख़राब मौसम उनके काम में बाधा डाल रहा है। हम पहले ही बर्फबारी के कारण बहुत कुछ खो चुके हैं और अब चीज़ें बेहतर होती नहीं दिख रही हैं। लाहौल में सेब बगानों को 100 फीसदी नुकसान का सामना करना पड़ा।"

हालांकि पूरे इलाक़े में आलू निकालने की प्रक्रिया पूरी तरह से शुरू नहीं हुई है, आलू की नई फसल की क़ीमत चार दिनों में 1,000 रुपए प्रति क्विंटल तक गिर गई है। इससे किसानों को भारी नुकसान होगा। आलू की क़ीमत बाजार में 3,500 रुपए से सीधे 2,300 रुपए तक पहुँच गई है।

हर साल लाहौल स्पीति घाटी का संपर्क विश्व के बाक़ी हिस्सों से लगभग 6 महीने तक कटा रहता है और यहाँ के 99 प्रतिशत आबादी के लिए कृषि आय का मुख्य स्रोत है। भारी बर्फबारी के चलते वे एक समय में केवल ही फसल उगा सकते हैं और इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली मुख्य दो फसलें आलू और सेब हैं। हालांकि इस क्षेत्र में सेब की खेती हाल ही में शुरू हुई है, लेकिन लंबे समय से इस क्षेत्र में आलू की खेती की जाती रही है।

भ्रष्टाचार और निजी व्यापारी का किसानों को कठिन स्थिति में डालना

आलू से सेब की खेती तरफ अधिक तेज़ी से हुए बदलाव में कई कारकों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिनमें मुख्य रूप से आदिवासी ज़िले के किसानों के प्रति सरकार की उदासीनता शामिल है। मिसाल के तौर पर लाहौल के शांशा इलाक़े के एक स्थानीय किसान राजू ने न्यूज़क्लिक को बताया, "हमारे पास मंडी नहीं है। हम अपनी फसल का उत्पादन करते हैं और बाहर से व्यापारी आते हैं और हमारी फसलों को सीधे हमसे खरीदते हैं। अगर वे नहीं आते हैं, तो हम इसे आस पास की जगहों पर बेचते हैं, कुछ अपने लिए रखते हैं और बाकी को फेंक देते हैं।"

लाहौल किसान घाटी मंच के संयोजक सुदर्शन जस्पा न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहते हैं, "कोई सरकारी व्यापारिक सोसायटी नहीं है। लंबे समय से लाहौल पोटैटो सोसाइटी (एलपीएस) एकमात्र सोसायटी था जिसे सरकार द्वारा गठित किया गया था और यही वह जगह है जहां हम अपनी फसलों को बेचते थे। गुज़रते वर्षों में एलपीएस की स्थिति ख़राब हो गई है। एलपीएस के अधिकारियों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों ने किसानों को कठिन स्थिति में छोड़ दिया।"

प्राइवेट सोसायटी स्थानीय लोगों द्वारा बनाए गए हैं जो किसानों से फसलें ख़रीदते हैं और उन्हें बेचने के लिए अलग-अलग बाजारों में ले जाते हैं। ज़गतार सिंह, पवन सैनी, शशि कुमार, दरबार सिंह और प्रकाश चंद जैसे स्थानीय किसानों ने कहा कि आलू की क़ीमतों में गिरावट के चलते उन्हें लाखों रुपए के नुकसान का सामना करना पड़ेगा और इसके कारण किसान चिंतित हैं।

सिर्फ यही नहीं, हाल ही में, पोटैटो सिस्ट नेमाटोड की मौजूदगी के चलते हिमाचल प्रदेश से "सीड पोटैटो" (इस ज़िले में उगाई जाने वाली दो किस्मों में से एक) के प्रतिबंध को बताते हुए किसानों को सरकारी अधिसूचना का सामना करना पड़ा। ये अधिसूचना तब आई जब खेत से आलू निकाले जाने को तैयार था। परेशान किसानों ने इसके लिए कृषि मंत्री राम लाल मर्कांडा से मिलने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल भेजा जिसके बाद लाहौल स्पीति का नाम इस अधिसूचना से हटा दिया गया।

'न सरकार और न ही प्रकृति ने किसानों को बख्शा'

हालांकि इस क़दम उनके दुख को ख़त्म नहीं किया। जसपा ने न्यूजक्लिक को बताया, "हालांकि भेजे गए हमारे नमूने को मंज़ूरी मिलने के बाद अधिसूचना से लाहौल का नाम हटा दिया गया था फिर भी बाज़ार में यह पता चल गया था कि हमारे आलू में वायरस है और ख़रीदारों ने उन आलू को खरीदने से इंकार कर दिया। व्यापारी यहां आते हैं और किसानों को कुछ पेशगी रक़म देते हैं, फसल लेते हैं और उन्हें बाजार में बेचते हैं। उसके बाद वे वापस आते हैं और बाकी रक़म का भुगतान करते हैं। ये निजी व्यापारी हैं और मुख्य रूप से पंजाब के हैं। अब बर्फबारी के कारण, सड़कें अवरुद्ध हैं और वे नहीं आ सकते हैं, इसलिए यह कोई विकल्प नहीं है। दूसरा विकल्प स्थानीय स्तर पर मनाली और कुल्लू में फसल को बेचना है लेकिन अब बदनामी हो गयी है, इसलिए कोई मांग नहीं है और इसलिए प्राइवेट सोसायटी भी इन आलू को नहीं ख़रीद रहे हैं। सरकार को इसके लिए मुआवज़ा देना चाहिए क्योंकि न तो स्थानीय व्यापारी का दोष है और न ही किसान का।"

हालांकि कुछ किसानों ने अपने आलू को खेत से निकाला और उन्हें उचित मूल्य पर बेच दिया, मुख्य रूप से मयाद घाटी और तोध घाटी के सुदूर क्षेत्र (पत्तन क्षेत्र) के किसानों ने अपना फसल खेत से नहीं निकाला है। किसानों ने बताया है कि असामयिक हिमपात के कारण उनकी फसल पहले ही ख़राब हो चुकी है। पूरा पत्तन बेल्ट राज्य में कुल आलू की फसल का 25-30 प्रतिशत उत्पादन करता है और उस क्षेत्र में उगाए जाने वाले आलू की क़िस्म सीड पोटैटो नहीं होती है।

जसपा ने न्यूज़क्लिक को बताया, "इस बार किसानों को किसी ने नहीं बख्शा। न तो प्रकृति ने और न ही सरकार ने। सेब की खेती करने वाले किसानों को भी ऐसी ही चीज़ों का सामना करना पड़ा। सितंबर महीने में कम से कम 99 प्रतिशत सेब की फसल नष्ट हो गई थी और अब आलू के फसल के साथ भी यही बात हुई है। जिन लोगों ने पहले तैयार सीड पोटैटो खेत से निकाल लिया था उसे कोई भी ख़रीद नहीं रहा है, जो लोग अन्य किस्मों को खेती करते हैं उनके फसल नष्ट हो जाते हैं। सरकार इस तरह के एक बड़े ज़िले की उपेक्षा करती है जहां पूरे 5-6 महीनों तक ज़िंदा रहने के लिए पूरी तरह से कृषि पर निर्भर हैं जब हम बाकी दुनिया से कट जाते हैं, ये किसी के भी समझ से परे है।"

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