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भारत
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भारत के विकास की दिशा की ख़ामियों को महामारी ने उधेड़ कर सामने रख दिया है
अगर भारत अपने संधारणीय विकास लक्ष्यों के पास पहुंचना और मौसम परिवर्तन, आय और लैंगिक असमानताओं की चुनौतियों का सामना करना चाहता है, तो देश को अपने तरीकों में बदलाव करना होगा।
टिकेंदर सिंह पंवार
31 May 2021
भारत के विकास की दिशा की ख़ामियों को महामारी ने उधेड़ कर सामने रख दिया है

कोविड-19 महामारी ने संधारणीय विकास लक्ष्यों (SDGs) को पाने की भारत की खोखली विकास रणनीति को सबके सामने ला दिया है। महामारी के चलते, ना केवल प्रकृति के साथ समन्वय वाली समतावादी दुनिया बनाने की हमारी रणनीति पर फिर से सोचने की जरूरत आन पड़ी है, बल्कि महामारी ने साफ़ कर दिया है कि यह नीतियां लक्ष्यों तक पहुंचाने में सक्षम नहीं हैं।

हम आपदा के गवाह बन रहे हैं। आगे व्याख्या करने के लिए कुछ अहम क्षेत्रों पर प्रकाश डालना जरूरी है। इनके ऊपर तुरंत ध्यान देने और इनमें जरूरी हस्तक्षेप करने की जरूरत है। 

मौसम परिवर्तन: मौसम परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी अहमियत मौजूदा वक़्त में लगातार बढ़ती जा रही है। इस विषय में पूरी दुनिया को अच्छी मंशा के साथ हस्तक्षेप करने की जरूरत है। इस मौन आपदा की संरचना, दुनिया के सामने भविष्य में आने वाले ख़तरों को बताती है। अब तक दुनिया में जितनी भी मानव निर्मित कार्बन डॉइऑक्साइड उत्सर्जित हुई है, उसका 50 फ़ीसदी हिस्सा पिछले 30 सालों में उत्सर्जित हुआ है। इस अवधि में 20 कंपनियों ने कुल उत्सर्जन का 33 फ़ीसदी उत्सर्जन किया है। सीमेंट और ऊर्जा में लगी यह कंपनियां अब भी काम कर रही हैं। इस दौरान इन कंपनियों ने जीवाश्म ईंधन के लिए सब्सिडी लेना भी जारी रखा है।

जैव विविधता: जैव विविधता और जीवों की प्रचुरता में जिस दर से नुकसान हो रहा है, वैसा नुकसान 660 लाख वर्ष पहले क्रेटेशियस युग में हुए विलुप्तिकरण से अब तक नहीं देखा गया है। ऊपर से हमारे सामने पूंजीवाद से प्रेरित वैज्ञानिक हैं, जो कहते हैं कि हमें जैव विविधता के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। 

जब यह चिंता जताई गई कि अगर दुनिया से मधुमक्खियां गायब हो गईं, तो इंसान भी विलुप्त हो जाएंगे। तो इन वैज्ञानिकों ने कहा कि चिंता करने की जरूरत नहीं है, तब हम रोबोटिक मधुमक्खियां बना लेंगे! आप ऐसे लोगों से क्या अपेक्षा रख सकते हैं?

नाइट्रोजन: उर्वरकों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली नाइट्रोजन से जलीय आकृतियां और मिट्टी प्रदूषित हो रही है। इससे ऑक्सीजन की कमी से होने वाले विलुप्तिकरण का ख़तरा बढ़ जाता है।

ज़मीन के उपयोग करने का तरीका: औद्योगिक विकास के लिए ज़मीन के उपयोग का तरीका बदला जा रहा है, जिससे जलस्तर में कमी आ रही है। मौसम परिवर्तन पर मुख्यधारा के तर्क को अक्सर 'न्यूनीकरण (रिडक्शनिज़्म)' के सिद्धांतों द्वारा खंडित कर दिया जाता है और बदलाव लाने वाली जटिल व्यवस्था के कई हिस्सों को नज़रंदाज कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए अंडमान एवम् निकोबार द्वीप समूह में रियल एस्टेट विकास के लिए ज़मीन के उपयोग में लाया गया परिवर्तन; या लक्ष्यद्वीप में लागू किए जाने वाले नए कानून, जिनसे रियल एस्टेट का विकास करने की मंशा है; या फिर जम्मू-कश्मीर में किए गए बदलाव; या सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट या पर्यावरण प्रभाव विश्लेषण में पर्यावरण को हास्यास्पद वस्तु तक सीमित कर देना। यह सारी चीजें मौसम परिवर्तन से जुड़ी हैं।

अमेरिका में नए हरित समझौते को बल मिल रहा है, वहीं ब्रिटेन में श्रमिक दल के सांसदों के नेतृत्व में कंपनियों के लोकतांत्रिक नियंत्रण के लिए बनता दबाव बताता है कि अब पर्यावरण को सिर्फ़ न्यूनीकरण तक सीमित नहीं किया जा सकता। बल्कि सिर्फ़ उत्पादन बढ़ाने पर आधारित, मौजूदा नव-उदारवादी तंत्र से अलग एक दूसरे तंत्र की जरूरत होगी। 

इसका प्रतिपादन 2016 में क्विटो में आयोजित यूएन हैबिटेट III में जॉन क्लॉस ने किया था। उन्होंने कहा था कि हमारी दुनिया की योजना बनाने और निर्माण करने वाला 'लैसेज फेयर सिस्टम (दो निजी समूहों के लेनदेन में बीच में हस्तक्षेप ना करने वाली व्यवस्था)' अब कायम नहीं रह सकता। हमें योजना बनाने और एक समतावादी व मुक्त दुनिया के निर्माण के लिए हमारी बुनियाद की तरफ वापस लौटना पड़ेगा।

मौसम परिवर्तन, पर्यावरण न्याय की मांग और लोगों की धारणीयता, असमानता और लैंगिक समता के बीच मजबूत संबंध है। नवउदारवादी पूंजीवाद के पिछले चार दशक, जिसमें निजीकरण एक अहम कारक रहा है, वह दुनिया में बढ़ती असमानता का बड़ा कारण है।

ऐसी चीजें और सुविधाएं, जो लोगों और समाज के लिए बुनियादी मांग रखती थीं, उन्हें धीरे-धीरे आपसी लेन-देन की चीजों में बदल दिया गया। पहले जनहित में जिन चीजों का बहुत बड़ा योगदान होता था, उनका वस्तुकरण कर दिया गया। उदाहरण के लिए पानी। क्या पानी अधिकार है या जरूरत? अमेरिका इस तर्क का सबसे बड़ा प्रायोजक था कि पानी एक जरूरत है और बाज़ार में कोई भी इसे उपलब्ध करवा सकता है। 24*7 जल आपूर्ति जैसे नारे गढ़े गए और यह उन अभियानों का मूलमंत्र बन गया, जिनके ज़रिए सार्वजनिक व्यवस्था/राज्य को लोगों को पानी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से रोक दिया गया और पानी उपलब्ध कराने की सुविधा के लिए निजीकरण का रास्ता खोल दिया गया। 

यही रवैया स्वास्थ्य, शिक्षा और दूसरी सुविधाओं के साथ अपनाया गया, जिनकी आपूर्ति राज्य की बुनियादी ज़िम्मेदारी मानी जाती थी। धीरे-धीरे इन्हें निजी कॉरपोरेट हाथों में सौंप दिया गया। 

हमारे ऊपर सबसे बुरी मार करने वाली कोरोना महामारी ने हमें याद दिलाया है कि स्वास्थ्य का निजीकरण विकास का सही मॉडल नहीं हो सकता। इन क्षेत्रों से राज्य को हटाकर, निजी खिलाड़ियों के लिए जगह बनाकर हजारों करोड़ रुपया कमाया गया।

अर्थशास्त्री उर्सुला ह्यूज़ के मुताबिक़ करीब 20 बड़े बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशन ने अपना पोर्टफोलियो वित्त से जनसुविधाओं की तरफ़ मोड़ दिया है। उन्हें समझ में आ गया है कि इन क्षेत्रों में कितना मुनाफ़ा है। 

बड़े पैमाने पर संपदा निर्माण का दूसरा तरीका शहरी प्रशासन में बदलाव है। जिसे अब प्रबंधकों से आगे उद्यमी के तौर पर पेश किया जाता है। शहरी दुनिया में जो असमानता बढ़ रही है, उसके ऊपर शहरी प्रशासन की इस नई प्रवृत्ति का गंभीर असर पड़ा है। शहरों को एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए कहा गया और उनके भूमि कानूनों को निजी पूंजी के प्रवेश और बड़ा मुनाफ़ा बनाने के लिए लचीला बनाया गया। रियल एस्टेट एक बड़ा क्षेत्र रहा है। पूंजी पर कर नहीं लगाया गया। बल्कि सार्वजनिक संपत्तियों की कीमत पर, पूंजी को बड़ा मुनाफ़ा बनाने दिया गया। 

शहरी क्षेत्रों की सार्वजनिक चीजों का उदाहरण लीजिए। भारत में इसका मतलब होगा खुली जगहें, जलाकृतियां, पार्क आदि। इन्हें सस्ती दरों पर रियल एस्टेट पूंजी के हवाले कर दिया गया। आवासीय संकट को दूर करने के बजाए, हम इसके बीच में फंस चुके हैं।

योजनागत तरीके से शहरों से उनकी योजना प्रक्रिया को बदलने के लिए कहा गया। पहले भी यह बमुश्किल ही नगर प्रशासन के हाथों में थी। अब इस पर बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट-कंसल्टेंट कंपनियों का कब्ज़ा हो गया। यह कंपनियां नगर विकास, यातायात, स्वच्छता, सौर ऊर्जा, स्मार्ट सिटी और पता नहीं क्या-क्या बनाने के नाम पर मोटी रकम वसूलती हैं। इनका परीक्षण करने पर पता चलता है कि यह कंपनियां समाधान पाने के लिए धारणीयता पर ध्यान केंद्रित करने के बजाए, पूंजी की अधिकता वाली तकनीकों को प्रोत्साहन देते हैं। यह कुख्यात गठजोड़ ऊपर से लेकर नीचे तक चलता है। 

यह सतत विकास के तरीके नहीं हैं और इन गिरोही प्रोत्साहन वाली रणनीतियों से भारत किसी भी तरह अपने SDG लक्ष्यों को नहीं पा सकता। 

यह व्यवस्था ऐसी स्थिति का निर्माण भी करती है, जहां लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में अधिशेष का निर्माण किया जाता है। इन लोगों से ना केवल इनकी संपदा, बल्कि इनकी संघर्ष की क्षमता भी छीनी जा रही है। भारत के शहरों का आकार बड़े पैमाने पर बदल चुका है। 75 फ़ीसदी अनौपचारिक क्षेत्र अब 93 फ़ीसदी पर आ गया है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण भारत में सबसे ज़्यादा संपदा का स्वामित्व रखने वाले शुरुआती 10 फ़ीसदी लोगों और सबसे कम स्वामित्व रखने वाले आखिरी 10 फ़ीसदी लोगों का अंतर 500 गुना तक बढ़ चुका है। जबकि शहरी क्षेत्रों में यह अंतर 50,000 गुना तक बढ़ा है। 

ऊपर से, बड़े अनौपचारिक क्षेत्र में जहां 85 फ़ीसदी लोगों के पास सेवा समझौता पत्र नहीं होता और 90 फ़ीसदी लोग महीने के 8500 रुपये से कम पर काम करते हैं। समझ सकते हैं कि इस क्षेत्र में महामारी से जिंदगियों और रोजी-रोटी का कितना नुकसान हुआ होगा। महिलाओं पर सबसे बुरा असर पड़ा है।

एक दूसरी बड़ी असमता डिजिटल अंतर है। बड़ी तकनीकी कंपनियों ने शिगूफा फैलाया है कि सेवाओं के डिजिटलिकरण से यह अंतर पट जाएगा। उनका यह दावा पूरी तरह झूठा है। हम इस अंतर को कई सेवाओं, जैसे-ऑनलाइन क्लास लेते छात्र, वैक्सीनेशन के लिए आवेदन देते लोग, जिन्हें स्लॉट ही नहीं मिल रहे हैं और भी कई दूसरी चीजों में देख सकते हैं। आखिर संचार तकनीकी को एक उद्योग की तरह देखा जाता है, ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ इंटरनेट की दुनिया 5 ट्रिलियन डॉलर का बाज़ार है। इसलिए बड़ा सवाल उठता है कि हम तकनीक से मिले फायदे का लोकतांत्रिकरण कैसे करें।

यह चीज इस लेख के तीसरे तर्क पर पहुंचाती है। वह है- शहरी प्रशासन का धारणीय ना होना। क्योंकि शहरी प्रशासन अब भी नवउदारवादी पूंजीवाद से निर्देशित हो रहा है, जहां कोई भी मौजूदा चुनौतियों के समाधान की कल्पना नहीं कर सकता। चुनाव के लोकतांत्रिक ढांचे से शहरीकरण की इस दौड़ को गंभीर ख़तरा है, इसलिए चुनकर आई हुई परिषदों को बॉयपास करने के नए तरीके खोजे जा रहे हैं। इसके लिए स्मार्ट सिटीज़ में 'स्पेशल पर्पज़ व्हीकल्स (विशेष उद्देश्य के वाहन- SPV)' का सहारा लिया जा रहा है। इन SPV के ज़रिए ही तय होता है कि विकास के कौन से तरीके को प्राथमिकता दी जाए। इतना कहना पर्याप्त होगा कि यह ना केवल अलग-थलग काम करने की प्रवृत्ति है, बल्कि इससे क्षेत्रों और लोगों के बीच असमानता भी बढ़ती है।

आखिर में लैंगिक असमानता पर आते हैं। यह उपरोक्त सभी चीजों से जुड़ी हुई है और अब अपनी सबसे बदतर स्थति में है। भारत में दो तरह की लैंगिक असमानताएं सामने आती हैं- एक वह है, जिसमें सामंती मानसिकता के चलते महिलाओं के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार होता है। दूसरी वह है, जिसमें मौजूदा आर्थिक विकास शामिल है, जिसमें महिलाओं से किसी वस्तु की तरह का व्यवहार किया जाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि क्यों विश्व आर्थिक मंच की 156 देशों को शामिल करने वाले 'ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, 2021' में भारत 28 पायदान नीचे खिसककर 140 वें पायदान पर पहुंच गया है। भारत दक्षिण एशिया में तीसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है। इस गिरावट में कई कारक शामिल हैं। जैसे आर्थिक भागीदारी में 3 फ़ीसदी की गिरावट आई है। वहीं राजनीतिक सशक्तिकरण के मोर्चे पर भारत की स्थिति में 13.5 फ़ीसदी अंको की गिरावट है। श्रम भागीदारी दर में भी कमी आई है, जहां महिलाओं की हिस्सेदारी 24.8 फ़ीसदी से गिरकर 22.3 फ़ीसदी पर आ गई है। भारत में महिलाओं की आय का अनुमान पुरुषों की तुलना में सिर्फ़ 20 फ़ीसदी ही है। इस पैमाने में हम दुनिया के सबसे आखिरी के 10 देशों में शामिल हैं। महिलाओं के साथ भेदभाव, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता के मोर्चे पर भी दिखाई देता है। भारत इस पैमाने पर भी दुनिया के सबसे आखिरी के पांच देशों में शामिल है।

यह सारे आंकड़े दिखाते हैं कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था जड़त्व को नहीं तोड़ सकती। जैसा हम 'ईज़ ऑफ लिविंग इंडेक्स' में देखते हैं, यह फिर दर्शाता है कि पूंजीवाद को भी एक मानवीय चेहरे की जरूरत होती है। लेकिन हम देख चुके हैं कि यह विचार कितना त्रुटिपूर्ण है।

इसका विकल्प, राजनीति, सहभागिता की राजनीति, प्रशासन के मॉडल (नागरिकों को उनका अधिशेष वापस कर, सार्वजनिक सुविधाओं के लिए संघर्ष, सामूहिकीकरण, यातायात और शहरी विकास की वैक्लपिक योजना आदि), विकेंद्रीकरण और योजना बनाने व फ़ैसले लेने की प्रक्रिया के लोकतांत्रिकरण संबंधी हस्तक्षेपों के ज़रिए बनता है।

जब तक भारत अपना रास्ता नहीं बदलता, हम, प्रकृति, पृथ्वी, मानवीयता और जैव विविधता के क्षेत्र में असफल होते रहेंगे। हम मानव जाति के सामने आसन्न इन ख़तरे को लेकर ना तो उदासीन रह सकते हैं और ना ही आत्मसंतुष्टि भरा रवैया अख़्तियार कर सकते हैं।

लेखक हिमाचल प्रदेश के शिमला में डेप्यूटी मेयर रह चुके हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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