अक्सर जब हम उच्च शिक्षा की बात करते हैं, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की बात करते हैं तो हमारे ख्याल में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस जैसे मशहूर नाम आते हैं। इसलिए जाने-अनजाने में उच्च शिक्षा से जुड़े कई सारे पहलुओं पर जांच-परख करने का पैमाना इन्हीं मशहूर संस्थानों तक सिमट कर रह जाता है।
देश में नामी गिरामी और बड़े शहरों को छोड़कर अगर दूसरों शहरों की तरफ चला जाए तो यह तस्वीर सामने आती है कि इन शहरों में मौजूद ज्यादातर कॉलेज और प्राइवेट स्कूल के मालिक शिक्षा से जुड़े कोई पेशेवर लोग नहीं बल्कि पॉलीटिशियन और पॉलिटिशियन के सगे संबंधी हैं। यानी नई शिक्षा नीति को लागू करने में सबसे बड़ा रोड़ा ये राजनेता ही बन सकते हैं। इन नेताओं के हितों पर ही सबसे अधिक हमला होने जा रहा है। अब देखने वाली बात यही होगी कि क्या सरकार इन बाधाओं को पार कर पाती है या नहीं? क्या ऐसा तो नहीं होगा कि नई शिक्षा नीति के सुझाव धरे के धरे रह जाएंगे..
नई शिक्षा नीति में प्राइवेट कॉलेजों के बारे में क्या कहा है?इसे समझने का सबसे बढ़िया उदाहरण है टीचिंग एजुकेशन से जुड़ा सुझाव। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मुताबिक 4 साल का इंटीग्रेटेड टीचर एजुकेशन प्रोग्राम बनाने का ऐलान किया गया है। किसी प्रोग्राम के तहत टीचर एजुकेशन की पढ़ाई की जाएगी। इसकी डिग्री केवल इंटीग्रेटेड इंस्टिट्यूशन से ही ली जा सकती है। यह जब लागू होगा तो इस एक फैसले की वजह से डिप्लोमा इन एलिमेंट्री एजुकेशन और बैचलर इन एजुकेशन जैसी डिग्रियां एक ही झटके में खत्म हो जाएगी। हाल फिलहाल देशभर में तकरीबन 20,000 से अधिक प्राइवेट बीएड कॉलेज है। कहने का मतलब यह है अगर सरकार यह प्रावधान लागू करती है तो एक ही झटके में 20,000 से अधिक कॉलेजों की मान्यता पर ख़तरा आ जाएगा।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो राहुल वर्मा ने अपने रिसर्च पेपर में बताया कि साल 2010 से 2015 के बीच भारत में हर दिन औसतन 6 कॉलेज खोले गए। अगर तुलना करने के लिए भारत से अधिक अमीर देश अमेरिका की तरफ चलें तो यह दिखता है कि इसी दौरान अमेरिका में हर हफ्ते केवल एक कॉलेज खोला गया। भारत में यह परिघटना तब घटी, जब भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों को रेगुलेट करने वाली संस्था का जाल बहुत अधिक फैला हुआ था। इसका साफ निष्कर्ष है कि सभी तरह के रेगुलेशन को ताक पर रखकर पैसा लिया गया और धड़ल्ले से कॉलेज खोले गए। शिक्षा के नाम एक शानदार धंधा चलने लगा।
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश से निर्वाचित तकरीबन 30 फ़ीसदी सांसद और विधायकों के कॉलेज और प्राइवेट स्कूल हैं। राहुल वर्मा का विश्लेषण बताता है की राजनीति में 20 साल से अधिक का समय गुजार चुके नेताओं की कॉलेज और स्कूलों के मालिक होने की संभावना दूसरों के मुताबिक तकरीबन तीन गुनी अधिक होती है।
कई नेताओं ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर अपने कॉलेजों और स्कूलों का ब्योरा लिखा है। भारतीय जनता पार्टी के एक नेता ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर यह दर्ज किया है कि उनके द्वारा जिले में 45 कॉलेज खोले गए हैं। यह ‘उपलब्धि’ केवल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की नहीं है बल्कि उत्तर भारत के सभी दलों के ज्यादातर नेताओं की है। और ऐसा भी नहीं है कि ऐसा केवल उत्तर भारत में होता है बल्कि दक्षिण भारत में 1990 और 2000 के दशक में ऐसे ऐसे कई प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खोले गए जिनके मालिक राजनीतिक लोग थे। यानी दक्षिण भारत में अपनी परिघटना पहले ही घट चुकी थी।
अब सवाल उठता है कि आखिरकर पॉलीटिशियन एजुकेशन सेक्टर में इतना अधिक पैसा क्यों लगते हैं? अपने रिसर्च पेपर "पावर बेस ऑफ़ पोलिटिकल फैमिली" में राहुल वर्मा ने उन कारणों का जिक्र किया है जिनकी वजह से पॉलीटिशियन एजुकेशन सेक्टर में बहुत अधिक पैसा लगाते हैं।
पहला, कुछ पॉलीटिशियन को सच में ऐसा लगता है कि राज्य उनके क्षेत्र में स्कूल और कॉलेज पहुंचाने में नाकामयाब रहा है। इस कमी को दूर किया जाना चाहिए और स्कूल कॉलेज खोलने चाहिए।
दूसरा, स्कूल और कॉलेज खोलने से नेताओं का सामाजिक रसूख बढ़ता है। राहुल वर्मा ने अपने रिसर्च के दौरान यह अनुभव किया कि ज्यादातर स्कूल और कॉलेज अवैध जमीनों पर खोले गए थे। ऐसे अवैध जमीनों पर जिस पर मालिकाना हक का झगड़ा लंबे समय से चला आ रहा था। या ऐसे जमीनों पर जिसको अवैध तरीके से नेताओं ने ही कब्जे में कर रखा था। ऐसे जमीनों पर स्कूल और कॉलेज खुलवाने से नेताओं को फायदा हुआ। समाज के बीच उनका रसूख बढ़ा और जमीन का झगड़ा भी आसानी से खत्म हो गया।
तीसरा, स्कूल और कॉलेजों के मालिक होने के चलते नेताओं को किसी का एडमिशन करवाने में आसानी होती है। किसी को टीचिंग जॉब दिलवाने में आसानी होती है। इस तरह के कई ऐसे काम होते हैं, जिनसे नेताओं द्वारा अपनी शरण स्थली बढ़ाई जाती है। स्कूल और कॉलेज नेताओं की शरणस्थली बढ़ाने में बढ़िया औज़ार की तरह काम करते हैं।
चौथा, स्कूल और कॉलेज के दम पर पॉलीटिशियन अपने मनी, मसल, पावर तीनों को बढ़ाते रहते हैं। कॉलेजों से आसानी से पैसा मिल जाता है। कॉलेज ट्रस्ट के तहत चलते हैं। कंपनी की तरह न होने की वजह से इसमें पारदर्शिता नहीं होती है। इसलिए यहां नेताओं का गलत पैसा लगता भी है और नेताओं को गलत तरीके से पैसा कमाने का साधन भी मिल जाता है। सामाजिक रूप से कॉलेजों की प्रतिष्ठा होती है, इसलिए इनकी जांच पड़ताल भी नहीं होती है। यहां के विद्यार्थियों का इस्तेमाल चुनावी प्रचार में जमकर किया जाता है। इस तरह से कॉलेज किसी राजनेता के लिए एक बढ़िया संसाधन की तरह काम करते हैं। जिसकी मदद से उसे पैसे मिल जाते हैं और अपने चुनाव प्रचार के लिए लोग भी।
पांचवां, नेताओं के यह कॉलेज और स्कूल केवल पढ़ाई की बिल्डिंग नहीं होती हैं बल्कि इनका इस्तेमाल एग्जामिनेशन सेंटर की तरह भी किया जाता हैं। इस परीक्षा केंद्र का इस्तेमाल धड़ल्ले से चीटिंग के लिए किया जाता है। यह कॉलेज प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए केंद्र भी बनते हैं। नेताओं और नौकरशाही के बीच का गठजोड़ यहीं पर खुलकर सामने आता है। हर बार अखबारों में खबरें छपती हैं कि किसी दूरदराज इलाके मैं क्वेश्चन पेपर लीक हो गया या किसी दूरदराज इलाके में धड़ल्ले से cheating हुई।
अब आप ही सोचकर देखिए कि किसी नेता के लिए अगर प्राइवेट कॉलेज इतनी फायदेमंद है, तो वह नई शिक्षा नीति में राह का रोड़ा क्यों नहीं बनेंगे? और जो सरकार करोड़ों रुपये के दम पर चलती है, दूसरे दल के नेताओं को करोड़ों रुपये के दम पर खरीदने की फिराक में रहती है वह सरकार ऐसे नेताओं को क्यों नाराज करेगी? और ऐसे में क्या आपको नहीं लगता की नई शिक्षा नीति के शब्द धरे के धरे रह जाएं।