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भारत
राजनीति
प्रतिमाएं खड़ी होती और गिरती हैं, श्रीमान मोदी, केवल लोग ही रह जाते हैं
कई करोड़ों की 'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी' परियोजना 'उच्च वर्ग के लिए एक स्मारक' है जिसने उन ग़रीब आदिवासियों से भारी क़ीमत वसूला है जिनके घर और ज़मीन डूब गए हैं।
प्रबीर पुरकायस्थ
05 Nov 2018
statue of unity

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा "विश्व की विशालतम प्रतिमा" का अनावरण करने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण में सरदार पटेल के योगदान पर एक बड़ा अभियान चलाया गया। बेशक, हम जानते हैं- और मोदी ने बार-बार यह स्पष्ट कर दिया है- कि पटेल की यह पहचान देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत को समाप्त करने के अभियान का एक हिस्सा है। महापुरूष जोड़ों का विरोध करने वाले खेल में कभी-कभी नेताजी सुभाष चंद्र बोस बनाम नेहरू, कभी बाबासाहेब अम्बेडकर बनाम नेहरू और अक्सर पटेल बनाम नेहरू का मामला चलता ही रहता है। मोदी और आरएसएस-बीजेपी के लिए तो नेहरू अक्सर दुश्मन ही बने रहे।

आख़िर नेहरू ही दुश्मन क्यों बने हुए है? प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने राष्ट्रीय आंदोलन के विचार को प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय लोगों की ग़रीबी दूर करने के लिए विकास के साधन के रूप में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की। यह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य पहल था। दो तत्व- धर्मनिरपेक्षता तथा विकास- राष्ट्रीय आंदोलन के सभी नेताओं, चाहे पटेल, बोस, अम्बेडकर, नेहरू या अन्य कोई हों उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से अलग करता है। आरएसएस के लिए अंग्रेज़ दुश्मन नहीं थें जबकि राष्ट्रवादी, धर्मनिरपेक्षतावादी और मुस्लिम थें।

आरएसएस एकमात्र राजनीतिक संरचना है जो धार्मिक पहचान के आधार पर भारत चाहता था; इसने विकास के बारे में कुछ भी नहीं कहा। आरएसएस के लिए, भारतीय और विदेशी पूंजी को भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास करना चाहिए, राज्य का काम केवल एक सुविधा देने वाले की भूमिका निभाना है। यह रफ़ाल सौदे में मोदी के प्रबंधन के समान ही है। आरएसएस की विचारधारा में राज्य का यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसने स्वतंत्रता संग्राम और इससे जुड़े अन्य आंदोलनों से आरएसएस को दूर रखा। और यही कारण है कि आज देश की धर्मनिरपेक्ष संस्थानें और सार्वजनिक क्षेत्र आरएसएस-बीजेपी को बड़ी दुश्मन के रूप में दिखाई देती है। ये ऐसे संस्थान हैं जिन्हें जवाहरलाल नेहरू के साथ समाप्त करने की ज़रूरत है।

पटेल की "एकता" प्रतिमा को 2,989 करोड़ रुपए की लागत से बनाई गई। इस पर सरदार पटेल के 91 वर्षीय परपोते धीरूभाई पटेल ने कहा कि पटेल इस प्रतिमा की मंज़ूरी कभी नहीं देते। वह पैसे के क़ीमत को जानते थें। सरदार पटेल को अक्सर भारत के लिए उनकी प्राथमिकताओं को उद्धृत किया गया है: "मेरी एक इच्छा है कि भारत एक उत्पादक राष्ट्र बने; कोई भी भोजन के लिए आंसू न बहाए और भूखा न रहे।" पटेल निश्चित रूप से एक प्रतिमा पर 2,989 करोड़ रुपए बर्बाद करने की मंज़ूरी नहीं देते जो कुछ भी उत्पादन न कर पाए पर प्रधानमंत्री मोदी के लिए तो फ़ख़्र की बात है।

इस पैसे के बेहतर से बेहतर इस्तेमाल के लिए कई लोगों ने सूची तैयार की है। या वे पैसे जिसको हमारे प्रधानमंत्री ने निरंतर अपने विदेशी दौरे पर ख़र्च किया है। प्रधानमंत्री को उनके व्यर्थ ख़र्च की "अनुमति" दी जाती है। हम रफ़ाल विमान को सबसे अधिक क़ीमत यानी आठ बिलियन यूरो में ख़रीदते हैं, और वह भी बिना किसी तकनीकी हस्तांतरण और स्वदेशी विकास के। इसलिए, शायद 182 मीटर ऊंची विश्व की विशालतम प्रतिमा के लिए हमें 400 मिलियन डॉलर के "छोटे" क़ीमत के टैग को नज़रअंदाज़ करना चाहिए!

भारतीय उच्च वर्ग का स्मारक

इस पर विचार करें कि इस शानदार स्मारक को किसके लिए बनाया गया और किसने इसके लिए क़ीमत चुकाई है। अगर हम इस स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की वेबसाइट पर देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि यह भारतीय उच्च वर्ग के लिए है, जो एक समृद्ध होटल (प्रतिमा के परिसर का एक हिस्सा) में रह सकते हैं, और सरदार सरोवर झील को देख सकते हैं। वेबसाइट पर लिखा है, "... सार्वजनिक तल के ऊपर दो अतिथि कमरे हैं जिसमें भोजन सेवाएं, एक बॉलरूम और अन्य बैठक और कार्यक्रम के लिए स्थान है। सम्राट कक्ष और कमरे इस इमारत के नदी की ओर है, जहां बालकनी में जाने का रास्ता है।"

इसके अलावा, "आकर्षक दृश्य वाला भार-युक्त ओपन लिफ्ट स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के साथ बनाया जाएगा। आगंतुक प्रतिमा के भीतर उपर जाने में सक्षम होंगे, प्रदर्शनी गैलरी में घूम सकेंगे और सरदार सरोवर परियोजना और आस-पास के क्षेत्र को क़रीब 400 फीट की ऊंचाई से मनोरम दृश्य का आनंद ले सकेंगे।" दूसरे शब्दों में, यह प्रतिमा भारतीय उच्च वर्ग के लोगों के लिए एक स्मारक है जो यहां आ सकते हैं, एक खूबसूरत झील देख सकते हैं, 400 फीट की ऊंचाई तक किसी भी कोशिश के बिना जा सकते हैं और आसपास के वातावरण का एक मनोरम दृश्य देख सकते हैं।

आप जानते हैं कि 400 फीट की ऊंचाई से आप क्या नहीं देखते हैं? वह है जनता। न ही हम उन्हें देखते हैं जब आप उस झील को देखते हैं जिसने 377 वर्ग किलोमीटर भूमि डूबा दिया है।

विकास की इस तस्वीर में क्या ग़ायब है? वे लोग जिन्होंने इस प्रतिमा और झील के लिए पैसा दिया है, जिसने उनके घरों और ज़मीन को डुबो दिया है। ये वही लोग हैं जिनके लिए पटेल ने उत्पादक राष्ट्र की कल्पना की थी।

यह सत्य है कि ग़रीब को ही बांधों और खदानों से जुड़े विकास परियोजनाओं में सबसे ज्यादा क़ुर्बानी देना पड़ता है। उनकी ज़मीन ले ली जाती है, मुआवजा या तो दिया नहीं जाता है, या तो कम होता है; उनके पास कोई वैकल्पिक आजीविका नहीं होती है। पूंजी से लाभ कमाते है, परियोजनाओं से पैसे कमाते हैं, फिर निरंतर फायदा उठाते रहते हैं। यहां तक कि हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजनाओं के पावर हाउस से बिजली भी नज़दीक के गांवों तक नहीं पहुंचती है, बल्कि केवल शहरों और उद्योगों को मिलती है। इस तरह विकास के प्रति पूंजी का नज़रिया है और इसी तरह यह पूंजीवाद के अधीन संचालित होता है।

आदिवासी बुरी तरह प्रभावित और विस्थापित हुए

नर्मदा बांध - सरदार सरोवर और इंदिरा सागर - कोई अलग नहीं हैं। इन बांधों के लिए विस्थापित आदिवासी गांवों के प्रभावित लोगों को अभी तक पानी या बिजली भी नहीं मिल पाई है। सरदार सरोवर के पास के ग्रामीणों का कहना है कि सरदार सरोवर बांध के पास 28 गांवों को अभी तक पानी नहीं मिला है। 72 आदिवासी गांवों के लोगों ने 31 अक्टूबर को एक दिन का उपवास रखा था, इसी दिन मोदी ने प्रतिमा का उद्घाटन किया। इस क्षेत्र में आदिवासियों द्वारा व्यापक विरोध प्रदर्शन किया गया। मोदी और रूपाणी के पोस्टर को काला कर दिया गया, पोस्टर की रक्षा के पुलिस सुरक्षा की आवश्यकता पड़ी!

22 गांवों के प्रमुखों ने प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखा था, उन्होंने कहा था कि वे उद्घाटन के लिए उनका स्वागत नहीं करेंगे। उन्होंने लिखा, "ये जंगल, नदियां, झरने, भूमि और कृषि ने हमें पीढ़ियों से मदद किया। हम उन्हीं पर जीवित थें। लेकिन, अब सबकुछ नष्ट किया जा रहा है और समारोह भी योजनाबद्ध है। क्या आपको नहीं लगता कि यह किसी की मौत का जश्न मनाने जैसा है? हम ऐसा ही महसूस करते हैं।"

यह भी प्रतीत होता है कि इस प्रतिमा परियोजना के साथ अन्य मामले भी थे। इसके लिए उपयुक्त पर्यावरणीय मंज़ूरी नहीं ली गई थी, न ही ग्रामीणों से संपर्क किया गया, क्योंकि इस तरह की परियोजनाओं के लिए क़ानून की आवश्यकता होती है।

मोदी की प्रतिमा परियोजना आश्चर्यजनक वास्तुकला और फासीवादी कल्पना के बीच संबंधों की ओर ध्यान खींचती है। प्राचीन शासकों से लेकर आधुनिक "शक्तिशाली व्यक्ति" तक, वे सभी आकार से मोहित लगते हैं। और आइए हम मोदी के लिए पटेल के आकर्षण को भी समझें: अगर पटेल भारत के 20 वीं शताब्दी के लौहपुरूष थें, तो मोदी को उनके 21 वीं शताब्दी का संस्करण बनाना चाहिए। यह पटेल की तरह ही उनकी खुद की प्रतिमा है।

इतिहास को पता है कि किस तरह ऐसे अभिमान से निपटना है। अंग्रेज़ी के रोमांटिक क्रांतिकारी कवि शेली ने एक शक्तिशाली प्रतिमा के अवशेषों के बारे में लिखा:

एंड ऑन द पेडेस्ट्रल दीज वर्ड्स एपीयर:

(और मूर्तितल पर ये शब्द प्रकट होते हैं:)

“माई नेम ईज़ ओज़िमंडियास, किंग ऑफ किंग्स:

("मेरा नाम ओजिमंडियास है, राजाओं का राजा:)

लुक ऑन माई वर्क्स, ये माइटी, एंड डिस्पेयर!”

(मेरे काम पर नज़र डालो, कितना शक्तिशाली, और आशाहीनता!")

नथिंग बिसाइड रीमेंस: राउंड द डीसे

(अवशेषों के बगल में कुछ भी नहीं: चारों ओर नाश)

ऑफ दैट कोलेस्सल रेक, बाउंडलेस एंड बेयर,

(उस विशाल मलबे का, असीमित और नग्न,)

द लोन एंड लेवेल सैंड्स स्ट्रेच फार अवे

(सुनसान और ढेर लगा रेत दूर दूर फैला है)

स्टैच्यू राइज़ एंड फॉल, मिस्टर मोदी, ओनली द पीपल रीमेन.

 

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